टूटी बसें, बिखरा सिस्टम: यूपी में हर सफर खतरे की घंटी क्यों बन गया है?

सवाल यह नहीं है कि हादसा क्यों हुआ, सवाल यह है कि ये कब नहीं होता?

लखनऊ से लेकर बांदा तक रोडवेज और प्राइवेट बसों की जो हालत है, वो किसी खतरनाक जुए से कम नहीं। कहीं खिड़की हाथ में आ जाती है, तो कहीं सीट पर बैठना ऐसा लगता है जैसे हड्डियों का एक्स-रे हो रहा हो। इन बसों की हालत देखकर लगता है कि मानो इन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में हिस्सा लिया हो। इसके बावजूद इनकी फिटनेस रिपोर्ट ‘ऑल ओके’ कैसे हो जाती है? जवाब सीधा है – सिस्टम फिट है, बसें नहीं।
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आरटीओ अफसर जब यह कहते हैं कि 'हम चेकिंग कर रहे हैं', तो यह चेकिंग इतनी खुफिया होती है कि बसें भी नहीं जान पातीं कि उनकी जांच हुई है या नहीं। रोडवेज की गाड़ियां भले ही खटारा हो चुकी हों, लेकिन चेकिंग के नाम पर सिर्फ फाइलें घूम रही हैं और बयानबाज़ी चल रही है।
अब अगर नजर डालें प्राइवेट बसों पर, तो इन्हें देखकर लगता है जैसे सड़क की रानियां हों। न परमिट की चिंता, न सुरक्षा मानकों की। इनके पास अदृश्य परमिट होते हैं, जिन्हें शायद सिर्फ अफसरों की आंखें देख सकती हैं। अंदर बैठना ऐसा लगता है जैसे किसी कचरा कंप्रेसर में घुसा दिया गया हो – बंदे अंदर, दरवाजा बंद, और फिर बस भगाओ। नियम, सुरक्षा, मानक सब दिखावे की चीज़ बनकर रह गए हैं।
लोगों की शिकायतें भी कम नहीं। बांदा के यात्रियों से जब बात हुई, तो उन्होंने खुलकर कहा – "किराया तो पूरा लिया जाता है, लेकिन न सीट मिलती है, न सुरक्षा। कोई हादसा हो जाए तो बचने की कोई गुंजाइश नहीं। गैस सिलेंडर से लेकर फर्स्ट एड तक कुछ भी नहीं होता इन बसों में।"
लखनऊ हादसे का जिक्र आते ही एक बुज़ुर्ग यात्री बोले – "अगर इस हालत की बस में हादसा हो जाए, तो कोई नहीं बचेगा। लेकिन अफसर फिर भी यही कहेंगे – जांच करेंगे।"
असल समस्या यह है कि अफसर तब तक नहीं हरकत में आते जब तक कोई बड़ा हादसा न हो जाए। हादसा हो गया तो पहले चाय, फिर बयान, और फिर फाइलें। समय-समय पर चेकिंग की बात कह दी जाती है, लेकिन वो ‘समय’ कभी आता नहीं। अफसरों के अनुसार ‘अभियान चल रहा है’, ‘कार्रवाई हो रही है’, लेकिन जब तक सड़कों पर दौड़ती ये मौत की गाड़ियां रुकेंगी नहीं, तब तक ये अभियान सिर्फ दिखावा ही लगेगा।
आरटीओ बांदा, सौरभ कुमार कहते हैं कि हर परमिट जारी करने से पहले ‘टेक्निकल निरीक्षण’ होता है और ‘बीच-बीच में’ चेकिंग भी होती है। लेकिन हकीकत यह है कि सड़क पर दौड़ती इन बसों को देखकर ऐसा नहीं लगता कि इनका कभी भी कोई निरीक्षण हुआ हो। प्राइवेट बसों में न कोई फर्स्ट एड है, न कोई सेफ्टी उपकरण। और जो बसें बिना परमिट चल रही हैं, उनके खिलाफ क्या कार्रवाई हुई? जवाब में सिर्फ एक बात – "इस महीने की रिपोर्ट आपको बाद में देंगे।"
एमपी से आने वाली कई प्राइवेट बसें बिना परमिट बांदा में दौड़ रही हैं। इन पर न कोई रोक है, न कोई डर। चेकिंग के नाम पर सिर्फ खानापूर्ति की जाती है। और जो बसें मानक से बाहर पाई जाती हैं, उनके चालान की बात करके अफसर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं।
ट्रैफिक पुलिस चौक-चौराहों पर बस आम जनता से नियम पालन करवाने में लगी रहती है, लेकिन ये खटारा और खतरनाक बसें किस कानून के तहत बख्शी जा रही हैं, यह कोई नहीं बताता।
इस पूरे सिस्टम में बस एक चीज़ नहीं बदली – हादसों के बाद आने वाला बयान: "हमने जांच शुरू कर दी है।" लेकिन वो जांच कब खत्म होगी, उसका नतीजा क्या होगा – ये कोई नहीं जानता।
आज की सच्चाई यह है कि यूपी में पब्लिक ट्रांसपोर्ट दुआओं और दबंगई पर चल रहा है। रोडवेज की हालत दयनीय है और प्राइवेट बसों पर कोई लगाम नहीं है। और जब तक सिस्टम नहीं सुधरेगा, तब तक हर सफर एक रिस्क है – एक जुआ है, जिसमें आम आदमी अपनी जान दांव पर लगाता है।
सरकार और ट्रांसपोर्ट विभाग से सिर्फ एक अपील है – "बसों को सड़क पर दौड़ाने से पहले सिस्टम को दुरुस्त कर लीजिए, वरना अगली खबर फिर किसी और हादसे की होगी, और अफसरों का बयान वही पुराना होगा।"