राष्ट्रपति कैसा होना चाहिए ?

राष्ट्रपति कैसा होना चाहिए ?
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विपक्षी पार्टियों के राष्ट्रपति उम्मीदवार यशवंत सिन्हा ने एक अच्छी बहस की शुरुआत की है. उन्होंने राष्ट्रपति पद के लिए नामांकन करने के बाद अपनी प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि 'राष्ट्रपति का पद इस लोकतंत्र में चेक एंड बैलेंस बनाने के लिए हो. इसे केवल औपचारिकता निभाने वाला पद नहीं माना चाहिए उन्होंने आगे कहा 'राष्ट्रपति भवन में सिर्फ उसी व्यक्ति को जाना चाहिए, जो आवश्यक बिंदुओं पर सरकार को सलाह दे सके. लेकिन यदि इस पद पर कोई ऐसा व्यक्ति पहुंचता है, जो सरकार के कब्जे में है तो वह इस पद के साथ जुड़ी जिम्मेदारियों का निर्वहन नहीं कर पाएगा. लिहाजा इस पद पर केवल उसी व्यक्ति को पहुंचना चाहिए, जो संवैधानिक व्यवस्था को मजबूत कर सकेÓ.

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उनकी कही दो-तीन बातें बेहद अहम हैं. पहला तो यह कि राष्ट्रपति का पद चेक एंड बैलेंस के लिए होता है. भले संविधान में यह कहा गया हो कि राष्ट्रपति केंद्रीय मंत्रिमंडल की सलाह से काम करेगा, लेकिन असल में उसका पद इससे बड़ा होता है और उसके ऊपर संसदीय व्यवस्था में संतुलन बनाने की जिम्मेदारी होती है. दूसरी अहम बात यह है कि राष्ट्रपति जरूरी मसलों पर सरकार को सलाह और निर्देश दे सके. जरूरी मसले किसी तरह के हो सकते हैं. दुर्भाग्य से भारत में ऐसी व्यवस्था नहीं विकसित हुई, जिसमें राष्ट्रपति अपनी ओर से आगे बढ़ कर सरकार को सलाह दे. आमतौर पर राष्ट्रपति सरकार की सलाह पर ही काम करते हैं और अपनी आंखों के सामने घटित हो रहे असंवैधानिक कामों में भी दखल नहीं देते हैं. यशवंत सिन्हा की कही तीसरी बात और भी महत्वपूर्ण है. वह ये है कि राष्ट्रपति पद पर ऐसे व्यक्ति को पहुंचना चाहिए, जो संवैधानिक व्यवस्था को मजबूत कर सके. मौजूदा समय की यह नंबर एक जरूरत है कि संवैधानिक व्यवस्था सुचारू रूप से काम करे और संवैधानिक संस्थाएं मजबूत हों.

सबको पता है कि यशवंत सिन्हा राष्ट्रपति का चुनाव नहीं जीतेंगे. इसलिए उनकी सदिच्छा का भी कोई ज्यादा मतलब नहीं है. असल में भारत में राष्ट्रपति का चुनाव वहीं जीतता है, जिसे सरकार का समर्थन होता है. तभी सवाल है कि सरकार क्यों किसी ऐसे व्यक्ति को राष्ट्रपति बनाना चाहेगी, जो उसके कामकाज में दखल दे या उसे सलाह-मशविरा दे सरकार तो ऐसे व्यक्ति को ही राष्ट्रपति पद पर बैठाना चाहेगी, जो देश के प्रथम नागरिक की प्रतीकात्मक भूमिका निभाए और सरकार की सलाह पर काम करे. भारत में अब तक ऐसा ही होता आया है. अगर इससे अलग कुछ हुआ तो व्यवस्था बिगड़ जाएगी. अगर राष्ट्रपति बहुत सक्रिय हो जाए और संविधान की व्यवस्था से आगे बढ़ कर सरकार के कामकाज में दखल शुरू करे तो उससे भी संवैधानिक व्यवस्था बिगड़ेगी. जैसा अभी कई राज्यों में हो रहा है. राज्यपाल का पद भी राष्ट्रपति की ही तरह प्रतीकात्मक महत्व का होता है और उसे राज्य सरकार की सलाह से काम करना होता है. लेकिन विपक्षी पार्टियों के शासन वाले राज्यों के कामकाज में कई राज्यपाल दखल दे रहे हैं, जिससे बेवजह का विवाद पैदा हुआ है. सरकार के कामकाज में राज्यपालों के दखल से कोई राजनीति भले सध रही हो लेकिन कोई सकारात्मक बदलाव नहीं हो रहा है. इसलिए यह बड़ा सवाल है कि क्या ऐसा राष्ट्रपति ठीक होगा, जो केंद्र सरकार के कामकाज में दखल दे

यशवंत सिन्हा ने जो कहा वह सुनने में बहुत अच्छा लग रहा है. वे एक आदर्श स्थिति की बात कह रहे हैं, लेकिन वह यूटोपिया की तरह है. वह कल्पना लोक की बात है. यह सही है कि देश के सारे काम राष्ट्रपति के नाम से होते हैं लेकिन राष्ट्रपति की शक्तियां बहुत सीमित हैं. उन सीमित शक्तियों के साथ काम करते हुए संवैधानिक व्यवस्था का संतुलन बनाना आसान काम नहीं है. ऐसा भी नहीं लगना चाहिए कि किसी अन्य मकसद से राष्ट्रपति सरकार के कामकाज में दखल दे रहे हैं और ऐसा भी नहीं लगना चाहिए कि राष्ट्रपति अपनी आंखों के सामने संवैधानिक व्यवस्था से खिलवाड़ होने दे रहे हैं. दुर्भाग्य से भारत में ऐसे एकाध ही राष्ट्रपति हुए हैं, जिन्होंने ऐसा संतुलन बनाए रखा. ज्यादातर राष्ट्रपति रबर स्टैंप की तरह काम करते रहे. कुछ राष्ट्रपति ऐसे भी रहे, जिनका प्रधानमंत्री या सरकार से टकराव हुआ लेकिन वह संवैधानिक व्यवस्था को लेकर या नीतिगत मसले पर नहीं था. वह टकराव या तो व्यक्तिगत था या राजनीतिक था.

मिसाल के तौर पर पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद और पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के बीच कई मसलों पर विवाद हुआ. राष्ट्रपति द्वारा काशी विश्वनाथ मंदिर में ब्राह्मणों के पैर धोने का मामला हो या हिंदू कोड बिल रोके जाने का मामला हो, दोनों के ज्यादातर विवाद दोनों की निजी मान्यताओं की वजह से थे. संवैधानिक व्यवस्था या परंपरा को लेकर दोनों के बीच कोई विवाद नहीं रहा. इसी तरह ज्ञानी जैल सिंह का राजीव गांधी के साथ टकराव रहा लेकिन वह भी संवैधानिक व्यवस्था या परंपरा को लेकर नहीं था, बल्कि पंजाब की राजनीति और जैल सिंह की निजी महत्वाकांक्षा की वजह से था. शंकर दयाल शर्मा और पीवी नरसिंह राव के बीच भी टकराव रहा लेकिन वह पूरा टकराव कांग्रेस पार्टी की अंदरूनी राजनीति से निर्देशित था. राव स्वतंत्र रूप से राजनीति कर रहे थे और सरकार चला रहे थे, जबकि शंकर दयाल शर्मा को नेहरू-गांधी परिवार के हितों का भी ख्याल रखना था.

अब तक के इतिहास में केआर नारायणन इकलौते ऐसे राष्ट्रपति हुए, जिन्होंने संवैधानिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए स्टैंड लिया और जरूरत पडऩे पर दलगत राजनीति से अलग देश के प्रथम नागरिक के तौर पर अपनी जिम्मेदारी निभाई. उनके राष्ट्रपति बनने के थोड़े दिन के बाद अक्टूबर 1997 में आईके गुजराल की केंद्र सरकार ने उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार को हटा कर राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश भेजी थी. लेकिन राष्ट्रपति नारायणन वे उसे वापस लौटा दिया था. आजाद भारत के इतिहास में वह पहला मौका था, जब किसी राष्ट्रपति ने केंद्र सरकार की सिफारिश लौटाई थी. इसके ठीक एक साल बाद सितंबर 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी की केंद्र सरकार ने बिहार में राबड़ी देवी की सरकार को हटा कर राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश की थी और नारायणन ने उसे भी लौटा दिया था. हालांकि बाद में जब कैबिनेट ने दोबारा सिफारिश भेजी तो उन्हें उसे स्वीकार करना पड़ा.

इसके बावजूद उनके ये दोनों फैसले ऐतिहासिक महत्व के हैं और यह दिखाते हैं कि कैसे राष्ट्रपति दलगत भावनाओं से ऊपर रह सकता है. सोचें, यह काम उन्होंने इसके बावजूद किया कि वे देश के पहले राष्ट्रपति थे, जिन्होंने आम चुनाव में वोट डाला था. उससे पहले राष्ट्रपति आम चुनाव में वोट नहीं डालते थे. नारायणन ने 1998 के आम चुनाव में आम लोगों के साथ कतार में खड़े होकर वोट डाला था. इसका मतलब है कि किसी न किसी पार्टी के साथ उनका जुड़ाव था, जिसे उन्होंने वोट दिया. इसके बावजूद उन्होंने जनता सरकार और भाजपा सरकार दोनों की सिफारिशें लौटाईं. बतौर राष्ट्रपति उनके कार्यकाल के आखिरी साल में गुजरात दंगे हुए थे और नारायणन ने तब के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को कई चि_ियां लिखी थीं और दंगों में राज्य की भूमिका को लेकर सवाल उठाए थे.

सो, अगर इस सवाल का जवाब देना हो कि भारत का राष्ट्रपति कैसा होना चाहिए तो केआर नारायणन का नाम लिया जा सकता है. राष्ट्रपति उनके जैसा होना चाहिए, जो जड़ परंपराओं को तोड़े और ऐसी परंपरा स्थापित करे, जिससे संवैधानिक व्यवस्था और लोकतंत्र दोनों मजबूत हों. साथ ही दलगत भावनाओं से ऊपर रहे और प्रधानमंत्री या सरकार के साथ बिना टकराव पैदा किए प्रथम नागरिक की अपनी जिम्मेदारी भी निभाए.

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