क्या बहुविवाह सिर्फ इच्छाओं के लिए? इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इस्लामी कानून को लेकर सुनाया बड़ा फैसला

यह मामला मुरादाबाद के फुरकान नामक व्यक्ति से जुड़ा है, जिस पर आरोप है कि उसने दूसरी शादी के लिए झूठ बोला, साजिश रची और महिला से शारीरिक संबंध बनाए। उसके खिलाफ दर्ज एफआईआर के बाद कोर्ट में यह सवाल उठा कि क्या इस्लाम में बहुविवाह की छूट का इस्तेमाल इस तरह की परिस्थितियों में किया जा सकता है?
कोर्ट की एकल पीठ, जस्टिस अरुण कुमार सिंह देशवाल ने इस मामले की सुनवाई करते हुए कहा कि शरीयत कानून के अनुसार बहुविवाह की अनुमति तो दी गई है, लेकिन इसका उद्देश्य पूरी तरह सामाजिक और नैतिक था। इसका मकसद विधवाओं और बेसहारा महिलाओं को समाज में सम्मानजनक जीवन देना था, न कि पुरुषों की यौन इच्छाओं को पूरा करने का बहाना बनाना।
कोर्ट ने इस बात पर भी जोर दिया कि इस्लाम में बहुविवाह की जो छूट है, उसमें यह अनिवार्य शर्त है कि सभी पत्नियों के साथ समान व्यवहार किया जाए। यदि कोई व्यक्ति इन नियमों का पालन नहीं करता है तो शादी को अवैध (बातिल) भी घोषित किया जा सकता है, लेकिन यह अधिकार किसी मौलवी के पास नहीं है। इसके लिए सिर्फ और सिर्फ पारिवारिक न्यायालय ही सक्षम हैं।
Read Below Advertisement
इस मामले में फुरकान और दो अन्य आरोपियों ने हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी और मुरादाबाद की सीजीएम कोर्ट द्वारा जारी समन और आरोप पत्र को रद्द करने की मांग की थी। याचियों का तर्क था कि दोनों पक्ष मुस्लिम हैं और इस्लाम में चार शादियों की अनुमति है, इसलिए उन पर आईपीसी की धारा 494 लागू नहीं होती। लेकिन कोर्ट ने इसे मानने से इनकार किया और सवाल उठाया कि क्या इस्लाम में दी गई बहुविवाह की छूट सिर्फ सेक्स और स्वार्थ के लिए है?
कोर्ट ने मामले को विचारणीय मानते हुए फिलहाल आरोपियों के खिलाफ किसी कठोर कार्रवाई पर रोक जरूर लगा दी है, लेकिन दूसरी पत्नी को नोटिस जारी कर 26 मई तक जवाब भी मांगा है।
इस फैसले से यह स्पष्ट हो गया है कि धार्मिक स्वतंत्रता का मतलब कानून से ऊपर होना नहीं है। धर्म की आड़ लेकर कानून को तोड़ा नहीं जा सकता। और सबसे अहम बात यह है कि शादियां सिर्फ इच्छाओं की पूर्ति के लिए नहीं होतीं। अगर धर्म कोई छूट देता है तो उसकी जिम्मेदारी भी साथ आती है।
इस निर्णय ने उन मौलवियों की भूमिका पर भी सवाल खड़ा कर दिया है जो बिना किसी कानूनी प्रक्रिया के विवाह को वैध या अवैध घोषित कर देते हैं। कोर्ट ने साफ कर दिया है कि शरीयत के निर्णय भी तभी मान्य हैं जब वे कानून के तहत हों।
इस फैसले के बाद यह चर्चा भी तेज हो गई है कि क्या अब बहुविवाह के मामलों में कोर्ट की भूमिका और मजबूत होगी? क्या धार्मिक नियमों की आड़ में चल रही निजी मनमानी पर लगाम लगाई जा सकेगी? और सबसे बड़ी बात – क्या भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में व्यक्तिगत कानूनों और संविधान के बीच सही संतुलन बन पाएगा?
इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह फैसला इस दिशा में एक बड़ा कदम माना जा सकता है। यह न केवल बहुविवाह जैसे संवेदनशील विषय को तार्किक दृष्टिकोण से देखता है, बल्कि यह भी बताता है कि धार्मिक स्वतंत्रता और संविधान के बीच तालमेल कैसे बैठाया जाए।
फुरकान जैसे मामलों से साफ हो जाता है कि कई लोग धर्म को ढाल बनाकर अपने व्यक्तिगत स्वार्थ साधते हैं। लेकिन अब जब हाईकोर्ट ने इतनी स्पष्ट टिप्पणी की है तो उम्मीद है कि ऐसे मामलों में सख्ती बरती जाएगी और शरीयत की आड़ में महिलाओं के अधिकारों का हनन नहीं होगा।
यह मामला सिर्फ एक व्यक्ति या एक समुदाय का नहीं है, बल्कि यह पूरे देश की कानूनी और सामाजिक व्यवस्था से जुड़ा है। और यह भी एक सबक है कि धर्म चाहे जो भी हो, कानून से ऊपर कोई नहीं।