अमेरिकी लोकतंत्र पर सुप्रीम कोर्ट का धब्बा

अमेरिकी लोकतंत्र पर सुप्रीम कोर्ट का धब्बा
Opinion Bhartiya Basti 2

अमेरिका की सर्वोच्च अदालत ने दुनिया के सबसे जीवंत लोकतंत्र पर धब्बा लगाया है. अमेरिकी स्त्रियों से गर्भपात का अधिकार छीन कर सुप्रीम कोर्ट ने वह काम किया है, जिसकी कल्पना भी आधुनिक समाज में नहीं की जा सकती है. यह दुर्भाग्य है कि सुप्रीम कोर्ट के जजों ने सम्मान से जीवन जीने और स्वतंत्रता के बुनियादी अधिकारों की रक्षा के बजाए अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता को प्राथमिकता दी. तभी पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को यह कहने का मौका मिला कि उन्होंने अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभा दी. ट्रंप ने खुल कर कहा कि उनके द्वारा नियुक्त किए गए जजों ने उनका एजेंडा पूरा किया है. कोई 50 साल पहले 1973 में 'रो बनाम वेडÓ मामले में अपने फैसले से सुप्रीम कोर्ट ने पूरे देश में हर महिला को अपनी इच्छा से गर्भपात का अधिकार दिया था. 2016 में राष्ट्रपति बनने के बाद से ट्रंप इस फैसले को पलटने के उपाय कर रहे थे. उनको सफलता मिली राष्ट्रपति पद से हटने के डेढ़ साल बाद.

ट्रंप ने अपने चार साल के कार्यकाल में सुप्रीम कोर्ट में तीन जज नियुक्त किए थे. उन तीनों जजों ने गर्भपात का अधिकार वापस लेने वाले बहुमत के फैसले का साथ दिया. नौ जजों की बेंच ने पांच-चार से फैसला किया और कहा कि पूरे देश में महिलाओं को मिले गर्भपात का अधिकार वापस लिया जाता है. बहुमत के फैसले में कहा गया कि अब राष्ट्रीय स्तर पर इस तरह का कोई अधिकार महिलाओं के पास नहीं होगा. राज्य सरकारें अपने हिसाब से कानून बना सकती हैं. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के तुरंत बाद रिपब्लिकन पार्टी के शासन वाले राज्यों ने अपने राज्य में गर्भपात रोकने वाले ऐसे कानूनों को लागू कर दिया, जो उनके यहां पहले से बने हुए थे और जिन्हें सुप्रीम कोर्ट के 'रो बनाम वेडÓ के फैसले की वजह से लागू नहीं किया जा रहा था. हालांकि अमेरिका के 50 राज्यों में से करीब आधे राज्यों में, जहां डेमोक्रेटिक पार्टी की सरकारें हैं वहां महिलाओं को गर्भपात का अधिकार मिलेगा. लेकिन यह कोई ऐसा अधिकार नहीं है, जो किसी राजनीतिक दल या सरकार की इच्छा पर निर्भर हो या जिसे चुनिंदा तरीके से दिया और वापस लिया जा सके.

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स्त्रियों का अपने शरीर पर संपूर्ण अधिकार है और यह अधिकार उन्हें किसी संविधान या सरकार से नहीं मिला हुआ है. जिस तरह पुरुष को अपने शरीर पर पूरा अधिकार है और कोई राज्य किसी कानून के जरिए यह अधिकार उससे छीन नहीं सकता है उसी तरह महिलाओं से भी यह अधिकार नहीं छीना जा सकता है. ध्यान रहे गर्भ धारण के नौ महीने तक भ्रूण को और फिर बच्चे को स्त्री अपने शरीर में रखती है, उसमें पुरुष की कोई शारीरिक भूमिका नहीं होती है. इसलिए निश्चित रूप से स्त्री को इसका अधिकार होना चाहिए कि वह गर्भधारण करना चाहती है या नहीं. इस अधिकार को किसी अदालत या सरकार के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता है. दुर्भाग्य की बात है कि ऐसी बुनियादी या साधारण बात अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के जजों को क्यों नहीं समझ में आ रही है या पूरा अमेरिकी समाज व राजनीतिक बिरादरी इस बात को क्यों नहीं समझ रही है

बहुमत के फैसले से असहमति जताने वाले चार जजों ने इस पर सवाल उठाते हुए कहा कि किसी स्त्री के साथ बलात्कार होता है या उसकी इच्छा के विरूद्ध परिवार का कोई सदस्य संबंध बनाता है, जिससे स्त्री गर्भवती होती है तो उसे वह बच्चा पैदा करने के लिए कैसे मजबूर किया जा सकता है लेकिन ऐसे बुनियादी सवाल पर भी बहुमत का फैसला लिखने वाले जजों ने कोई जवाब देना जरूरी नहीं समझा. सोचें, दुनिया के कई समाजों में और कई देशों में भी महिलाओं को बच्चे पैदा करने की मशीन माना जाता है. क्या अमेरिका में भी महिलाओं को ऐसी दशा में डाला जा सकता है अमेरिका में महिलाएं पुरुषों के साथ बराबरी से काम कर रही हैं और हर क्षेत्र में समान भूमिका निभा रही हैं. स्पेस से लेकर युद्ध क्षेत्र तक महिलाएं समान दक्षता के साथ काम कर रही हैं क्या उनको बच्चे पैदा करने की अनिवार्यता से बांधा जा सकता है क्या यह अवसर की समानता के सिद्धांत के विरुद्ध नहीं होगा क्या महिलाएं इस अधिकार की हकदार नहीं हैं कि वे जब तक चाहें अपने जीवन, देश और समाज की बेहतरी के लिए काम करें और जब मर्जी हो तभी बच्चे पैदा करें

जो लोग यह तर्क दे रहे हैं कि अमेरिका के संविधान में गर्भपात को संवैधानिक अधिकार नहीं माना गया है उन्हें ध्यान रखना चाहिए 1868 में हुए संविधान संशोधन के जरिए हर अमेरिकी नागरिक को स्वतंत्रता और निजता का अधिकार दिया गया है. इसी स्वतंत्रता और निजता के अधिकार की संगति में 1973 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया था और पूरे देश में स्त्रियों को गर्भपात का अधिकार दिया था. तभी सवाल है कि यह अधिकार कैसे छीना जा सकता है क्या किसी भी सभ्य समाज में सरकार या अदालत को यह अधिकार है कि वह किसी व्यक्ति से समानता, स्वतंत्रता और निजता का अधिकार छीन सके ध्यान रहे भारत में भी इमरजेंसी की अवधि में महान न्यायविद् जस्टिस हंसराज खन्ना ने अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा था कि जीवन का अधिकार किसी संविधान या सरकार ने नहीं दिया है, बल्कि जन्म के साथ ही हर व्यक्ति को यह अधिकार मिल जाता है. स्त्रियों को मिला गर्भपात का अधिकार भी सम्मान और स्वतंत्रता से जीवन जीने के अधिकार से जुड़ा है, जिसे किसी हाल में छीना नहीं जा सकता.

सुप्रीम कोर्ट के कंजरवेटिव जजों ने अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता के हवाले एक बेहद पिछड़ा हुआ और प्रतिगामी फैसला सुनाया है. अमेरिकी समाज के साथ साथ पूरी दुनिया को इसका विरोध करना चाहिए. अमेरिका एक आधुनिक समाज है हालांकि प्रगतिशीलता उस अनुपात में अमेरिकी नागरिकों में कम है फिर भी वहां के लोग अपने अधिकारों के प्रति बेहद सजग होते हैं. उन्हें इस फैसले को राजनीतिक और दलगत प्रतिबद्धता से ऊपर उठ कर देखना चाहिए. इसका विरोध करना चाहिए. ध्यान रहे स्त्रियों की हर तरह की आजादी और अधिकार की लड़ाई अमेरिका में लड़ी गई है. सो, अगर जरूरी हो तो गर्भपात के अधिकार की बहाली के लिए भी एक लड़ाई होनी चाहिए.

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