नज़रिया : वैचारिक भ्रम के शिकार वरुण गांधी

नज़रिया : वैचारिक भ्रम के शिकार वरुण गांधी
मेनका गांधी और वरुण गांधी की फाइल फोटो (तस्वीर- @varungandhi80)

निर्मल रानी
भारतवर्ष में आपातकाल की घोषणा से पूर्व जब स्वर्गीय संजय गांधी अपनी मां प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी को राजनीति में सहयोग देने के मक़सद से राजनीति के मैदान में उतरे उस समय उन्होंने अपने जिस सबसे  ख़ास मित्र को अपने विशिष्ट सहयोगी के रूप में चुना उस शख़्सियत का नाम था अकबर अहमद 'डंपी'. डंपी के पिता इस्लाम अहमद उत्तर प्रदेश पुलिस में आई जी थे तथा दादा सर सुल्तान अहमद इलाहबाद हाई कोर्ट में मुख्य न्यायाधीश रह चुके थे. डंपी संजय गाँधी के सहपाठी होने के अतिरिक्त उनके 'हम प्याला ' और 'हम निवाला' भी थे. संजय गाँधी के राजनीति में पदार्पण से पूर्व डंपी विदेश में नौकरी कर अपना कैरियर निर्माण कर रहे थे. परन्तु संजय गाँधी के निमंत्रण पर वे नौकरी छोड़ भारत वापस आये और स्वयं को संजय गाँधी व उनके परिवार के प्रति समर्पित कर दिया. वैसे तो संजय-डंपी की दोस्ती के तमाम क़िस्से बहुत मशहूर हैं परन्तु 1970-80 के दौर की मशहूर इन दो बातों से संजय-डंपी की प्रगाढ़ मित्रता का अंदाज़ा लगाया जा सकता है. एक तो यह कि प्रधानमंत्री आवास में डंपी की पहुँच बिना किसी तलाशी के इंदिरा जी के बेडरूम व रसोई तक हुआ करती थी. दूसरी कहावत यह मशहूर थी कि जब संजय का बेटा (वरुण ) रोता था तो वह मां की नहीं बल्कि डंपी की गोद में चुप होता था.

संजय गाँधी के इकलौते पुत्र वरुण गाँधी का जन्म 13 मार्च 1980 को हुआ. जिस समय संजय गाँधी की दिल्ली में विमान हादसे में मृत्यु हुई उस समय वरुण की उम्र मात्र तीन वर्ष थी. इस हादसे के बाद नेहरू-गाँधी परिवार में सत्ता की विरासत की जंग छिड़ गयी. संजय गाँधी की धर्मपत्नी मेनका गाँधी बहुत जल्दबाज़ी में थीं. वह इंदिरागांधी से यही उम्मीद रखती थीं कि यथाशीघ्र उन्हें संजय गाँधी का राजनैतिक वारिस घोषित किया जाये जबकि इंदिरा जी पुत्र बिछोह के शोक में डूबी 'वेट एंड वाच ' की मुद्रा में थीं. नतीजतन मेनका की जल्दबाज़ी व अत्याधिक राजनैतिक महत्वाकांक्षा की सोच ने इंदिरा -मेनका यानि सास-बहू के बीच फ़ासला पैदा कर दिया. उस समय कांग्रेस पार्टी के किसी एक भी वरिष्ठ नेता ने इंदिरा गाँधी को छोड़ मेनका गाँधी का साथ देने का साहस नहीं किया. और उस समय  भी राजनैतिक नफ़ा नुक़सान की चिंता किये बिना,अकबर अहमद 'डंपी' ही एक अकेला ऐसा व्यक्ति था जिसने संजय गाँधी से उनके मरणोपरांत भी दोस्ती व वफ़ादारी निभाते हुए उनकी पत्नी के साथ खड़े होने का फ़ैसला किया. और मेनका गाँधी द्वारा गठित संजय विचार मंच के झंडे को उठाया. निश्चित रूप से डंपी का यह निर्णय राजनैतिक रूप से उनके लिये घाटे का फ़ैसला साबित हुआ.

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सवाल यह है कि ऐसे धार्मिक सौहार्दपूर्ण संस्कारों में परवरिश पाने वाले वरुण गांधी को अचानक ऐसा क्या हो गया कि 7 मार्च 2009 को उनपर चुनावी सभा के दौरान भड़काऊ भाषण देने का आरोप लग गया ? उस समय उनके विरुद्ध पीलीभीत की अदालत में मुक़द्द्मा दर्ज किया गया और मुक़द्द्मा दर्ज होने के बाद वरुण को राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के अंतर्गत गिरफ़्तार भी किया गया ? उस समय वरुण गाँधी अपने इन्हीं दो विवादित बयानों के चलते रातोंरात भाजपा के फ़ायर ब्रांड नेता गिने जाने लगे थे. वरुण ने अपने लोकसभा चुनाव क्षेत्र पीलीभीत में एक जनसभा में कहा था कि - "ये हाथ नहीं है, ये कमल की ताक़त है जो किसी का सिर भी क़लम कर सकता है." इसी तरह उनका दूसरा विवादित भाषण था कि - "अगर कोई हिंदुओं की तरफ़  हाथ बढ़ाता है या फिर ये सोचता हो कि हिंदू नेतृत्व विहीन हैं तो मैं गीता की क़सम खाकर कहता हूँ कि मैं उस हाथ को काट डालूंगा." . अपने भाषण में वरुण ने महात्मा गांधी की उस अहिंसावादी टिप्पणी का भी मज़ाक़ उड़ाया व इसे 'बेवक़ूफ़ी पूर्ण ' बताया  जिसमें गाँधी ने कहा था  कि -'कोई अगर आपके गाल पर एक चांटा मारे तो आप दूसरा गाल भी उसके आगे कर दें ' . वरुण का कहना था कि 'उसके हाथ काट दो ताकि वो किसी दूसरे पर भी हाथ न उठा सके."  अपने भाषणों में  वरुण गाँधी मुसलमानों के नामों का मज़ाक़ भी उड़ाते सुने गये. इसी तरह वरुण गाँधी की मां-मेनका गाँधी ने भी अपने सुल्तानपुर चुनाव क्षेत्र में कहा था कि  'अगर मैं मुसलमानों के समर्थन के बग़ैर विजयी होती हूं और उसके बाद वे (मुसलमान )मेरे पास किसी काम के लिए आते हैं तो मेरा रवैया भी वैसा ही होगा.

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दरअसल नेहरू गाँधी परिवार और उनके पारिवारिक संस्कार क़तई ऐसे नहीं जहाँ अतिवाद या सांप्रदायिकता की कोई गुंजाइश हो. परन्तु अनेकानेक विचार विहीन 'थाली के बैंगन' क़िस्म के नेता सांप्रदायिकता व अतिवाद का सहारा लेकर महज़ अपनी राजनैतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिये धार्मिक उन्माद का आवरण ओढ़ लेते हैं. संभव है मेनका-वरुण ने भी भाजपा में रहते व पार्टी की ज़रुरत को महसूस करते हुए स्वयं को भी उसी रंग में रंगने का असफल व अप्राकृतिक प्रयास किया हो. जिस समय वरुण गांधी पर उनके उपरोक्त  कुछ विवादित बयानों के बाद 'फ़ायर ब्रांड ' नेता का लेबल चिपका था उस समय 'भगवा ब्रिगेड' उनकी जय जयकार करने  उनके पीछे लग गयी थी. उन्हें योगी आदित्यनाथ के बराबर खड़ा करने की तैयारी शुरू हो चुकी थी. यहाँ तक कि भाजपा के उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री पद के दावेदारों तक में उनका नाम लिया जाने लगा था. परन्तु चूँकि मां-बेटे दोनों के ही डी एन ए में कट्टरपंथ,सांप्रदायिकता व अतिवाद शामिल नहीं था इसीलिये वे नक़ली 'फ़ायर ब्रांड ' बन कर रह गये. 

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 देश के सर्वोच्च राजनैतिक परिवार के सदस्य होने के चलते ही मेनका व वरुण दोनों ने ही आज तक राजीव- सोनिया-राहुल व प्रियंका किसी के भी विरुद्ध न तो एक शब्द बोले न ही इनके विरुद्ध चुनाव प्रचार में गये. यही ख़ानदानी आदर्श शायद भारतीय जनता पार्टी आला कमान को रास नहीं आया. शायद इसीलिये भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी से मां-बेटे दोनों की ही छुट्टी कर दी गयी. कहा जा सकता है कि वैचारिक भ्रम का शिकार होने की वजह से ही वरुण-मेनका गाँधी को कई कई बार सांसद होने के बावजूद उपेक्षा के दौर  गुज़रना पड़  रहा है. (यह लेखक के निजी विचार हैं.)

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