नज़रिया: कोरोना महामारी काल में राजनीतिक अस्थिरता के मायने

स्वदेश कुमार
कोरोना की दूसरी लहर उतार पर जरूर है, लेकिन अभी पूरी तरह से थमी नहीं है. चिंता तीसरी लहर को लेकर भी है. वह कितनी भयावह होगी,यह चर्चा चैतरफा छिड़ी हुई हैं. कोशिश यह भी हो रही है कि तीसरी लहर में कहीं वैसा हाहाकार देखने को नहीं मिले, जैसा मंजर दूसरी लहर में देखा गया था. लोग आक्सीजन की कमी और अस्पताल में भर्ती नहीं मिल पाने के कारण यहां-वहां दम तोड़ रहे थे. ऐसा न हो इसके लिए केन्द्र सहित सभी राज्यों को स्वास्थ्य सेवाओं में काफी सुधार की आवश्यकता है. समय कम है और काम ज्यादा. परंतु दुख की बात यह है कि महामारी के इस दौर में भी कई राज्यों की सरकारें तीसरी लहर से जनता को बचाने के लिए ठोस उपाय करने की बजाए सियासी रस्साकशी में उलझी हुई हैं. इसी रस्साकशी के चलते पंजाब-राजस्थान की कांगे्रस और उत्तर प्रदेश की योगी सरकार महामारी पर ध्यान देने की बजाए राजनैतिक ‘जंग’ में फंसी हुई है. सबसे बड़ी बात है, उक्त प्रदेशों की सरकारों को कमजोर करने की साजिश विरोधी दलों के नेता नहीं, अपनी ही पार्टी के लोग रच रहे हैं. पंजाब और राजस्थान की सरकारों के लिए उन्हीं राज्यों के नेता मुसीबत खड़ी कर रहे हैं तो उत्तर प्रदेश की योगी सरकार पर ‘दिल्ली का दबाव’ है.
योगी सरकार जिसके कामकाज की पिछले चार वर्षो से हर तरफ तारीफ हो रही थी. योगी की मिसाल देकर अन्य प्रदेशों की सरकारों को बताया जाता था कि कैसे अपराध पर अंकुश लगाना है. कोरोना की पहली लहर सीएम योगी के अथक प्रयासों के चलते प्रदेश में इतना विकराल रूप धारण नहीं कर पाई थी,जितना महाराष्ट्र-दिल्ली आदि जगह देखने को मिला था. योगी देश के इकलौते ऐसे मुख्यमंत्री थे,जिन्होंने कोरोना काल में सबसे अधिक समय फील्ड में गुजारा था.प्रदेश का कोई हिस्सा ऐसा नहीं बचा होगा,जहां योगी पहुंचे नहीं होंगे. केन्द्र भी योगी की तारीफ के पुल बांधा करता था. योगी की इमेज एक कड़क मुख्यमंत्री के रूप में बनी हुई थी. हाॅ,कुछ आरोप भी लगते थे,जैसे योगी का अक्खड़ स्वभाव, पार्टी के नेताओं की जगह नौकरशाही पर भरोसा. योगी को मोदी की कार्बन काॅपी भी कहा जाता था,क्योंकि योगी केन्द्र में लिए गए मोदी सरकार के सभी फैसलों को बिना नानुकुर के उत्तर प्रदेश में तुरंत अमली जामा पहना देते थे.यह सब 2020 तक चलता रहा,लेकिन 2021 योगी के लिए नई चुनौतियां लेकर आया. इसमें कोरोना की दूसरी लहर की नाकामयाबी भी थी और पंचायत चुनाव में बीजेपी को उम्मीद के अनुसार सीटें नहीं मिलने का गम भी था,जिसकी आड़ में दिल्ली आलाकमान द्वारा यूपी की सियासत में शुरू की गई दखलंदाजी ने ‘आग में घी डालने’ का काम कर दिया. माहौल ऐसा बनाया गया कि 2022 में होने वाले उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव योगी के चेहरे-मोहरे या कामकाज के बल पर नहीं जीता जा सकता है.
दिल्ली आलाकमान तो यूपी को लेकर चिंतित था ही, विपक्ष ने भी योगी के खिलाफ माहौल बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. कहा जाता है कि राजनीति में ‘संदेश’ का बहुत महत्व होता है. विपक्ष और उनकी ही पार्टी वालों ने ही योगी पर ‘सियासी स्ट्राइक’ की तो जनता के बीच यह संदेश पहुंचने लगा कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से प्रदेश संभल नहीं पा रहा है. योगी जी नौकरशाहों की चौकड़ी में फंस कर रह गए हैं, जबकि नौकरशाहों द्वारा योगी को ‘शाइनिंग यूपी’ वाली तस्वीर दिखाई जा रही थी.
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योगी से नाराज प्रदेश बीजेपी नेताओं ने उनके खिलाफ माहौल बनाया तो केन्द्र ने ऐसे नेताओं पर लगाम लगाने की कभी जरूरत नहीं समझी,जिसके चलते कई नेता तो सार्वजनिक मंचों से भी योगी सरकार की खामियां गिनाने लगे. योगी जाने वाले हैं,जैसी चर्चा तक चल पड़ी. कथित रूप से नाम तक तय हो गया कि योगी की जगह कौन सीएम बनेगा. दूसरी तरफ योगी लगातार ऐसी तमाम खबरों का खंडन करते रहे.मगर शायद केन्द्र ने कुछ और ही सोच रखा था. इसी लिए जब कुछ पूर्व जनवरी 2021 में विधान परिषद चुनाव हुए तो केन्द्र ने गुजरात के एक नौकरशाह को इस्तीफा दिलाकर यूपी विधान परिषद का सदस्य बनाने की मुहिम छेड़ दी,जिसमें केन्द्र कामयाब भी रहा. यह नौकरशाह और कोई नहीं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का वफादार अरविंद शर्मा थे जो मोदी के गुजरात का सीएम रहते तो उनके विश्वास पात्र रहे ही थे,जब मोदी पीएम बने तो गुजरात से जिन दो आईएएस अधिकारियों को वहां से लाकर पीएमओ में बैठाया गया था,उसमे अरविंद शर्मा का भी नाम था. अरविंद करीब सात वर्ष तक पीएमओं में रहे. इसके बाद उन्हें अचानक न केवल यूपी की सियासत मंे उतार दिया गया,बल्कि ऐसा औरा तैयार किया गया कि बीजेपी के दिग्गज नेता भी अरविंद शर्मा के यहां सलामी ठोंकने पहुंच गए. योगी मंत्रिमंडल में बदलाव की चर्चा चल पड़ी. कोई कहता अरविंद डिप्टी सीएम बनेंगे तो, किसी को लगता कि योगी से गृह विभाग की जिम्मेदारी लेकर अरविंद को यह विभाग सौंप दिया जाएगा, ताकि नौकरशाही पर अरविंद नियंत्रण लगा सकें,लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. करीब पांच माह का समय बीत चुका है और अरविंद आज भी एमएलसी से अधिक की कोई भी कुर्सी हासिल नहीं कर पाए हैं.

दरअसल, अरविंद शर्मा योहिं नहीं योगी की आंख की किरकिरी बन गए थे. इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह यही है कि पिछले पांच महीनों में अरविंद ऐसा व्यवहार कर रहे थे,मानों उनके आका सीएम योगी नहीं पीएम मोदी हैं. यह सच भी है,लेकिन हर मौके पर इस बात का ढिंढोरा पीटना कम से कम राजनैतिक चतुराई तो नहीं कही जा सकती है. कोई यूपी और वह भी भाजपा में रहकर योगी को कैसे अनदेखा कर सकते हैं,जबकि अरविंद शर्मा का हर समय मोदी के कसीदे पढ़ा करते हैं. योगी को साइड लाइन करके केन्द्र अरविंद को वाराणसी कोरोना महामारी के नियंत्रण के लिए भेज देता है.बात यहीं तक सीमित होती तो भी ठीक था,अरविंद वहां कोरोना से जनता को निजाद दिलाने के लिए क्या कदम उठा रहे हैं? कौन से निर्णय ले रहे हैं ? यह बात योगी को बताने की बजाए अरविंद टिवटर के माध्यम से मोदी और अमित शाह को ‘टैग’ करके बताते हैं. वह कभी यह जरूरी नहीं समझते हैं कि मुख्यमंत्री के तौर पर योगी आदित्यनाथ को भी इसकी जानकारी देनी चाहिए. अरविंद का यह रवैया कई बार योगी को नागवार गुजरा होगा. हो सकता है कि दिल्ली में योगी इस सब बातों पर आपत्ति जताएं.
बहरहाल,उत्तर प्रदेश की सरकार और बीजेपी संगठन में जिस तरह का अंतरविरोध चल रहा है,उससे पार्टी का कोई भला नजर नहीं आता है. यह सच है कि 2017 का यूपी विधान सभा चुनाव मोदी के चेहरे पर जीता गया था,लेकिन आज की तारीख में योगी को कोई अनदेखा नहीं कर सकता है. नहीं भूलना चाहिए कि आदित्यनाथ भले ही कर्म से योगी हों,लेकिन जन्म से तो वह क्षत्रिय ही हैं और क्षत्रिय झुकने से अधिक टूट जाने पर विश्वास करता है. (यह लेखक के निजी विचार हैं.)