OPINION: अच्छा है एक दीप जला लें…

राघवेंद्र मिश्रा
भारतीय संस्कृति का कोई भी पर्व हो वह कुछ न कुछ संदेश लेकर आता है. शरद ऋतु में पडने वाला रोशनी का पर्व दीपावली त्योहार एक बार भी नई उमंग व उत्साह को लेकर आया है.
यूं तो देश का यह सबसे प्राचीन त्योहार माना जाता है पर समय के हिसाब से इस त्योहार में भी काफी परिवर्तन आ गए हैं. कथा व शास्त्रों के अनुसार भगवान राम जब अहंकार के रावण को मार कर चैदह वर्ष के वनवास को पूरा कर आयोध्या वापस लौटे थे तो उनके वापसी के उपलक्ष्य में खुशी दिये जलाए गए थे.
तभी से दीपावली का शुभारंभ माना जाता है. देश के अलग-अलग हिस्सों में इस पर्व को मनाने की अपनी विधा है. गांवों में लोग इस दिन घी के दिये जला कर माता लक्ष्मी का पूजन-अर्चन करते हैं. ऐसा माना जाता है इस दिन माता लक्ष्मी धरती पर अवतरित होती हैं और भक्तों पर अपनी कृपा बरसाती हैं.
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मान्यता के हिसाब से इस त्योहार पर अधिकतर लोग अपने अंदर व्याप्त किसी न किसी बुराई को त्यागने का संकल्प लेते हैं. यह सब मान्यता की बात है, लेकिन सच्चाई पर बात करें तो अधुनिकता के रंग में यह त्योहार इतना रंग गया है कि अपना मूल रूप ही खो चुका है.
इस पर्व पर सालभर में कम से कम एक बार इस दिन लोग अपने घरों व आस-पास की सफाई करते थे, जिससे वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता था. अब न कच्चे घर रहे और न ही वो परंपराएं बची हैं.
घरों की लिपाई-पुताई से चूनाकारी होते हुए अब पेंट होने लगे हैं. जो एक बार लगाने से कई वर्षों तक चलते हैं. इससे इस त्योहार में जो नयापन दिखता था वह कहीं गुम सा नजर आ रहा है. घी के दियों की जगह अब चाइनीज झालरों ने ले लिया है.
वैसे परंपराएं केवल गांव में बची थीं, लेकिन देखते ही देखते गांव खत्म हुए तो परंपराएं व मान्यताएं भी टूट गईं. सभी ने अपने हिसाब से त्योहारों को अपने में ढाल लिया. शायद यही वजह है कि रोशनी के इस पर्व में अब पहले जैसी रौनक नहीं दिखती.
कवि गोपाल दास नीरज की कविता- ‘जलाओं दिये पर रहे ध्यान इतना, अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए.’ इसका भाव बहुत सुंदर था. नीरज जी कविता के माध्यम से मन के अंदर के अंधकार को दूर करने संदेश देने का पूरा प्रयास किया था. क्योंकि अगर मन के अंदर अंधकार व्याप्त है तो दुनिया कितनी भी रंगीन क्यों न हो बदरंग ही नजर आएगी.
दीपावली पर एक और श्लोगन खूब चलता है- अंधकार को क्यों धिक्कारे, अच्छा है एक दीप जला लें. इस श्लोगन का भी भाव काफी बड़ा है. ठहराव की जगह सार्थक दिशा में आगे बढने का संदेश देता हुआ यह श्लोगन जिंदगी में बेहतरी के नजरिये को दर्शाता है.
इन सबके बीच सवाल यह उठता है कि त्योहार तो हम अपने हिसाब से मना लेंगे पर उससे जुड़ी मान्यताओं को भी बदल लेंगे क्या? अक्सर लोग यह कहते नजर आ जाते हैं कि इस बार त्योहार पर पहले जैसी रौनक नहीं रही. जबकि सच यह है कि पहले जैसे जब हम त्योहार को न जानते हैं और न समझते हैं तो पहले जैसी रौनक कहा से आएगी.
वर्तमान समय के अधिकत्तर युवा पीढ़ी के पास दीपावली क्यों मनाते हैं इसका जवाब ही नहीं है. भगवान राम किसके बेटे थे इसकी जानकारी उन्हें नहीं है? भगवान राम कितने भाई थे उन्हें नहीं मालूम? रावण को किसने मारा था यह उन्हें बताने वाला भी नहीं है? ऐसे में किस तरह के त्योहार मनाने की बात हम कर सकते हैं.
यही कारण है कि अब त्योहारों में उमंग की जगह हुडदंग ज्यादा हो रहा है. इसका सारा दोष युवा पीढ़ी को भी नहीं दिया जा सकता. इसके लिए घर व समाज के बड़े-बूढ़े कम जिम्मेदार नहीं हैं. क्योंकि इस पीढ़ी को सही रास्ता दिखाने वालों ने उन्हें सद्मार्ग पर चलना सिखाया ही नहीं.
जैसे-जैसे लोग शिक्षित हुए वैसे-वैसे वह परिवार और समाज से कटते चले गए. स्कूलों की किताबों से पर्व, धर्म और त्योहारों पर आधारित कहानियां गायब सी हो गईं. युवा पीढ़ी को धर्म-अध्यात्म से जुड़ी बातें बाताने वाले अम्मा-बाबा अब टीवी वाले दादा-दादी बन गए हैं. गृहस्थी से ज्यादा नौकरी की पीछे भागने वाले परिवार व बच्चों को समय ही नहीं दे रहे हैं. ऐसे में इस पीढ़ी को धार्मिक कहानियां कौन सुनाए?
फिलहाल सार्थकता की शुरुआत हम कभी भी, कहीं से भी कर सकते हैं. इस बार दीपावली पर्व पर यह जानने की कोशिश करें कि रोशनी का यह पर्व कब और क्यों मनाया जाता है? इसका धार्मिक और पौराणिक महत्व क्या है? इस पर्व पर घी के दीपक क्यों जलाए जाते हैं?
यकीन मानिए जब हम अपने त्योहार, उत्सव के बारे में पूरी तरह से जानेंगे तो हुड़दंग की जगह उमंग को स्थान मिलेगा और बदलते परिवेश में भी त्योहारों का आनंद भी आएगा.
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