पुण्य तिथि विशेष: भैया जी बनारसी एक अप्रितम व्यक्तित्व

-डॉ. श्रीनाथ सहाय
काशी की हास्य व्यंग्य परंपरा के शीर्षस्थ कवि, हिन्दी पत्रकारिता के शिखर, ख्यातिलब्ध साहित्यकार और यशस्वी सम्पादक स्व. मोहनलाल गुप्त, भैयाजी बनारसी देश के प्रतिष्ठित वाराणसी से प्रकाशित समाचार पत्र ‘आज’ के पांच दशकों तक साहित्य सम्पादक थे.
अपने सम्पादन काल में निरन्तर संघर्ष करते हुए कई हजार लेखकों, कवियों एवं साहित्यकारों की एक विशाल पीढ़ी निर्मित की. प्रयाग विश्वविद्यालय से हिन्दी विषय में 1940 में स्नताकत्तोर उपाधि प्राप्त करने के उपरान्त अनवरत साहित्य साधना में आप सलंग्न रहे. हिन्दी में हास्य व्यंग्य लेखकों की संख्या नगण्य ही है पर आप जैसे सुधी साहित्यकार ने अपने लेखों, कविताओं, कहानियों आदि के द्वारा इस क्षेत्र में अप्रितम योगदान दिया है. आपकी प्रकाशित कृतियां हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि हैं.
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जब पूरा विश्व निराशा के गहन अंधकार में घिर गया था तो हिंदी के प्रत्येक छायावादी कवि ने गौतम बुद्ध को याद किया और उनके संबंध में कविताएं लिखीं. लेकिन काशी के कवियों ने धारा से अलग हटकर जीवन को हास्य एवं व्यंग्य के माध्यम से व्यक्त किया. भैयाजी बनारसी जिंदगी को आलू, चाट और कचालू से उपमित करते हैं, ‘जिंदगी रेत और बालू है, जिंदगी भुना हुआ आलू है.
भैया जी मुस्कुराके कहते हैं जिंदगी चाट है कचालू है.’ उन्होंने हास्य व्यंग्य के क्षेत्र में बेढब और बेधड़क की परंपरा को आगे बढ़ाया. पद्य की तरह उनका गद्य भी सटीक, सधा हुआ और चोट करने वाला होता था. उन्होंने कई पुस्तकें लिखीं, जिनमें बच्चों की सरकार, हाथी घोड़ा पालकी, देश हमारा, आजारी निंदिया प्रमुख हैं.
भैयाजी हिन्दी, हिन्दू, हिन्दुस्तान के प्रबल समर्थक थे. उनकी इस आस्था पर यदि कोई चोट पहुंचाता था तो उसे वह सहन नहीं कर पाते थे, तिलमिला उठते थ्ेा. उनके प्रबल राष्ट्रीय भावना थी और वे राष्ट्रीयता से ही हिन्दी को जोड़ना चाहते थे. वह स्पष्ट रूप से कहते थे कि जैसे हम राष्ट्रध्वज को सम्मान करते हैं वेसे ही हमें राष्ट्रध्वज का सम्मान करते हैं वैसे ही हमें राष्ट्र गीत का सम्मान करना चाहिए. बिना हिन्दी के सम्मान के हमारी राष्ट्रीयता खण्डित है.
भैयाजी ने जिस समय साहित्य सृजन का कार्य आरम्भ किया, उस समय खड़ी बोली अपनी शैश्वावस्था से किशोरावस्था में पर्दापण कर रही थी. गद्य में ब्रजभाषा के स्थान पर खड़ी बोली स्वीकृत हो चुकी थी, परन्तु कविता के क्षेत्र में अपना स्थान बनाने के लिए अभी संघर्षरत थी. कुछ विद्धान तो खड़ी बोली को कविता के लिए अनुपयुक्त मान रहे थे.
भारतेन्दु, हरिऔद्य, गुप्त जी, प्रसाद, पन्त, निराला आदि महाकवियों ने खड़ी बोली में सशक्त महाकाव्यों की रचना करके उन विद्धानों के विचारों पर विरामचिह्न लगा दिया. परन्तु खड़ी बोली के प्रति दुराग्रह से ग्रस्त विद्धान अभी भी मौन नहीं हुए. ये अब यह कहने लगे कि खड़ी बोली में हास्य रस की उत्कृष्ट रचना करना सम्भव नहीं है. भैयाजी ने इस चुनौती को मानो विचार किया और खड़ी बोली में शुद्ध, सरस और सशक्त हास्य और व्यंग्य साहित्य की रचना करके साहित्यकारों में अपना अविस्मरणीय स्थान बना लिया. भाषा के संबंध में भैयाजी जी कहते थे कि, ‘‘प्रारम्भ में संस्कृत विषय हिन्दी कहानी की भाषा थी, इसलिये हास्य-व्यंग्य के लिये उन्हें एक अन्य भाषा शैली की तलाश थी.
उन्होंने अनुभव किया कि इसके लिये साधारण स्तर पर आना होगा, ‘आनन्द’ में वह मजा नहीं है जो मौज में है, इसी कारण उन्होंने उर्दू शब्दों तथा बोलचाल की भाषा का अधिक प्रयोग किया. साप्ताहिक आज में ‘अरबी न फारसी कालम’ के अंतर्गत हिन्दी भाषा भाषियों को खूब हंसाया, गुदगुदाया और आनन्दित किया. पश्चात् अरबी न फारसी नामक काव्य संग्रह प्रकाशित किया. यूं तो अनेक लोगों ने हास्य और व्यंग्य की कहानियों की रचना की, परन्तु निबंध साहित्य अछूता था. भैयाजी ने हास्य और व्यंग्य से संबंधित निबंध भी लिखे. जो बनारसी रईस नामक निबंध संग्रह प्रकाशित हुआ.
ब्रिटिश सरकार के निमंत्रण पर आपने 1965 में इंग्लैण्ड की यात्रा की तथा यूरोप के अन्य देशों का भ्रमण किया. इसी प्रकार नेपाल सरकार के आंमत्रण पर आपने इस महत्वपूर्ण पड़ोसी देश का भ्रमण किया. अनेक देशों की यात्रा के दौरान अपनी विशाल मातृभूमि के कोने-कोने में आपने यात्राएं की और एक यात्रावर के रूप में एक विशाल अनुभव का भण्डार आपने देश को दिया. अपनी साहित्य रचना 1935 में लिखना आरम्भ किया. आप कहानी, कविता, निबंध, हास्य-व्यंग्य और बाल साहित्य के स्तम्भ लेखक थे. दो काली काली आंखें 1946 में प्रकाशित हुई. चिरकुमारी सभा, मखमली जूती 1954 में प्रकाशित, आलोचकों द्वारा स्वीकृत एवं उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा पुरस्कृत है.
भैयाजी ने नये लेखक-लेखिकाओं को सदैव प्रोत्साहित किया. नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, मनु शर्मा, धर्मवीर भारती, प्रतिमा वर्मा, वीरबाला, सूर्यबाला तथा सुरभि आदि की रचनायें भैयाजी सदैव छापते रहे एवं उन्हें प्रोत्साहित करते रहे. इनकी निर्मलता एवं दुख कातरता की भावना ईश्वरीय वरदान थी. उनका जीवन के प्रति बहुत ही मुक्त दृष्टिकोण था. अपनी रचनाओं के माध्यम से वो समाज के व्याप्त बुराइयों पर तीखी चोट करते थे. ‘हे प्रकाशक’ में प्रकाशकों के व्यवहार पर व्यंग्य करते हुए भैयाजी ने लिखा है, ‘‘लेखकों के परिश्रम एवं ज्ञान का उपयोग प्रकाशक अपनी सुविधानुसार करता है यदि प्रकाशक न होते तो तुलसीदास और कालिदास आज जीवित नहीं रहते तथा महाकवि बाल्मीकि घास काटते दिखाई देते. प्रकाशक की विशेषता है कि, ‘बिना रायल्टी दिये मृत लेखकों की चीज छापो और जीवित से कहो अब स्वर्ग की तुम राह नापो.’’
भैयाजी का सम्पूर्ण जीवन हास्य व्यंग्य की परम्परा को पुष्ट करने में बीता. भैयाजी बनारसी अपने समय के सबसे बड़े सचेतक रहे हैं. श्रीराम सिंह उदय जी के शब्दों में कहा जाए तो, ‘‘ये उस वाराणसी की हवा पानी और मिट्टी से निर्मित हैं, जिसके कण-कण में सम्पूर्ण वातावरण में हास्य का सागर लहरा रहा है. वे बेढब और बेधड़क परम्परा को कहीं अधिकक विकसित और जीविन्त करने में अग्रसर रहे. उसे नया मोड़ नयी गति दी.’’
हिन्दी साहित्य के इतिहास की दृष्टि से यदि विचार किया जाए तो भैया जी का स्थान हिन्दी साहित्य के हास्य-व्यग्ंय के इतिहास के रचनाकारों में प्रथम है. साहित्यिक दलबंदी, प्रसिद्धि और यश से दूर भैयाजी का सम्पूर्ण जीवन सादगी से परिपूर्ण था. अनेकोमुखी प्रतिभा के धनी गुप्त जी ने भावी पीढ़ी को विशेष रूप से सन्देश दिया है अर्थात अपनी रचनाओं द्वारा देश की भावी पीढ़ी के बच्चों का मार्ग प्रशस्त किया. इस प्रकार भैयाजी बनारसी का हास्य-व्यंग्य की परम्परा में महत्वपूर्ण स्थान है.
-लेखक राज्य मुख्यालय पर मान्यता प्राप्त पत्रकार हैं. यह उनके निजी विचार हैं.