Opposition Parties Meeting: विपक्षी दलों के लिए आसान नहीं एकता की राह, आ सकती हैं ये मुश्किलें

Opposition Parties Meeting: विपक्षी दलों के लिए आसान नहीं एकता की राह, आ सकती हैं ये मुश्किलें
Opposition Parties Meeting In Patna rahul gandhi kharge nitish kumar

-राजेश माहेश्वरी
2024 के आम चुनाव से पूर्व देश में विपक्षी एकता की कोशिशें एकबार फिर से शुरू हो गई हैं. बीती 23 जून को बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के आमंत्रण पर पटना में विपक्ष के 15 से ज्यादा दलों के नेता एकजुट हुए. खास बात यह रही कि विपक्षी एकता की इस बैठक में कांग्रेस अध्यक्ष एवं पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी भी शामिल हुए. तीन घंटे की बैठक से कोई ठोस नतीजा तो नहीं निकला, लेकिन यह बैठक देशवासियों को विपक्षी एकता का मैसेज देने में कामयाब रही. 

बैठक के बाद साझा प्रेस ब्रीफिंग में, केजरीवाल और स्टालिन को छोड़कर, शेष सभी नेताओं ने संकल्प-सा दर्शाया कि वे प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ एकजुट होकर चुनाव लड़ेंगे, ताकि 2024 में देश में सत्ता-परिवर्तन किया जा सके. लेकिन जिस तरह के मतभेद और मनभेद विपक्षी दलों के मध्य व्याप्त हैं, और बैठक से पूर्व और बाद में उजागर हुए, उससे ऐसा आभास हो रहा है कि विपक्षी एकता का रास्ता आसान नहीं है. विपक्षी एकता में बड़ी बाधा और अड़चने आम आदमी पार्टी का रवैया फिलवक्त दिखाई देता है. 

बैठक में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच गर्मागर्मी की खबरें आ रही हैं. वहीं जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री एवं नेशनल कॉन्फ्रेंस नेता उमर अब्दुल्ला ने केजरीवाल को अनुच्छेद 370 की याद दिलाई. संसद में इस विशेष प्रावधान को जब रद्द किया गया था, तब केजरीवाल ने मोदी सरकार के उस फैसले का समर्थन किया था. महबूबा मुफ्ती ने भी यही सवाल किया. तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी ने बंगाल में कांग्रेस के राजनीतिक रवैये और धरना देने पर आपत्ति जताई. केजरीवाल की ‘आप’ ने बाद में बयान देकर स्पष्ट किया कि यदि अध्यादेश पर कांग्रेस ने रुख साफ नहीं किया, तो पार्टी के दोनों मुख्यमंत्री-केजरीवाल और भगवंत मान-विपक्ष की ऐसी बैठकों में शिरकत नहीं करेंगे. बहरहाल ये चंद उदाहरण हैं, जो विपक्षी एकता के यथार्थ पर सवाल करते हैं, लेकिन इनके बावजूद ‘आप’ को छोड़ कर सभी विपक्षी दल एक ही छतरी के तले लामबंद होकर 2024 का आम चुनाव लडने के पक्षधर हैं. 

इसके साथ ही मतदाताओं में विश्वास पैदा करने के लिये कई जटिल मुद्दों को अभी सुलझाने की जरूरत होगी. बहरहाल, अभी विपक्षी एकता की कोशिशें शुरू हुई हैं और विभिन्न राजनीतिक दलों को लेकर राज्यों में सामंजस्य बैठाने की जरूरत होगी. लोकसभा चुनाव में करीब दो सौ से लेकर ढाई सौ तक ऐसी सीटें हैं जहां पर बीजेपी और कांग्रेस की सीधी टक्कर होती है. उस सीधी टक्कर में अगर कांग्रेस मजबूत नहीं होती है, तो विपक्षी एकता का कोई मतलब नहीं रह जाता है. ऐसे में अभी कांग्रेस की मजबूत स्थिति और कांग्रेस के साथ विपक्षी दलों का मजबूत गठबंधन का प्रयास एक गंभीर प्रयास है.

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विपक्षी एकता की इस बैठक में  बीजू जनता दल, भारत राष्ट्र समिति, वाईएसआर कांग्रेस, तेलुगूदेशम पार्टी, बसपा, जनता दल-एस, इंनेलो, अकाली दल, मुस्लिम लीग, केरला कांग्रेस, आरएलपी, आरएसपी, अकाली दल-मान आदि दलों के नेता नहीं आए और ज्यादातर को आमंत्रित भी नहीं किया गया था. इन दलों के 68 सांसद मौजूदा संसद में हैं. ये दल न तो कांग्रेस-समर्थक हैं और न ही भाजपा-विरोधी हैं. इन दलों में ऐसे समीकरण भी नहीं हैं कि वे तीसरा मोर्चा बना सकें. अलबत्ता कुछ दल भाजपा के साथ एनडीए का हिस्सा बन सकते हैं या कोई और राजनीतिक समीकरण बना सकते हैं.

राजनीतिक विशलेषकों की माने तो 2014 व 2019 के आम चुनावों में प्रचंड जीत दर्ज करने वाली भाजपा को हटाना इतना आसान भी नहीं है, क्योंकि विपक्षी पार्टियों खासकर कांग्रेस की ताकत अभी के कुछ वर्षों में कम हुई है. हालांकि, हाल के वर्षों में पहली बार कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दल पटना में जुटे, लेकिन मतभेद-मनभेद दूर करने के लिये अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है. खासकर दिल्ली सरकार की शक्तियों पर केंद्र सरकार के अध्यादेश के मुद्दे पर कांग्रेस व आम आदमी पार्टी में मतभेद बने हुए हैं. जिसे विपक्षी एकता के प्रयासों को लेकर अच्छा संकेत नहीं कहा जा सकता. जिसका आम जनता में अच्छा संदेश तो कदापि नहीं जाएगा. बीजेपी के साथ उसके पुराने सहयोगी ही आज नहीं है, न नीतीश कुमार न अकाली दल उनके साथ हैं. उद्धव उनके साथ नहीं हैं. शिवसेना को बिल्कुल उन्होंने तोड़ दिया है. इन सब प्रकरण ने क्षेत्रीय दलों को आज सोचने पर मजबूर किया है. लेकिन ये जरूर है कि अगर बंगाल में चुनाव होगा तो ममता और कांग्रेस में किस तरह से सीट शेयरिंग होगी, इसका क्या स्वरुप होगा?

वहीं सीटों के बंटवारे को लेकर भी अड़़चन सामने हैं. दिल्ली और पंजाब में आप, पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, महाराष्ट्र में एनसीपी-शिवसेना (ठाकरे), यूपी में समाजवादी पार्टी कांग्रेस को ज्यादा भाव देने के मूड में नहीं हैं. मित्र दलों का इरादा कांग्रेस को लोक सभा की आधे से भी कम सीटें देने का है. महाराष्ट्र में अब तक कांग्रेस और राकांपा मिलकर चुनाव लड़ती रही हैं. लेकिन अब शिवसेना (उद्धव गुट) के साथ आने के बाद कांग्रेस को भी अपनी सीटें छोड़नी पड़ेगी. इसी प्रकार बिहार में आधा दर्जन पार्टियों को मिलकर भाजपा से मुकाबला करना है. बिहार में राजद और जदयू को लोकसभा की ज्यादा सीटें मिलनी तय है. ऐसे में कांग्रेस, भाकपा, माकपा और भाकपा (माले) के खाते में कितनी सीटें आती हैं, देखना दिलचस्प रहेगा. क्या अकेले दम कर्नाटक जीत चुकी कांग्रेस इसके लिए मान जाएगी? पटना बैठक में केंद्र सरकार के अध्यादेश के विरोध के मुद्दे पर आम आदमी पार्टी व कांग्रेस पार्टी में सहमति नहीं बन सकी, लेकिन इससे एकता के प्रयासों को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता. 

विपक्षी दलों के लिए ब्रांड मोदी के खिलाफ चेहरा एक बड़ा मुद्दा है कि फेस के बदले फेस कौन होगा. बीजेपी भी यही सवाल उठा रही है. लेकिन 2004 चुनाव हमें नहीं भूलना चाहिए जब एक तरफ अटल जी का बड़ा चेहरा था, लेकिन दूसरी तरफ विपक्ष का कोई बड़ा चेहरा नहीं था. लेकिन जनता ने चेहरा को भुलाकर मुद्दे पर वोट किया था. ऐसे में हो सकता है कि विपक्ष चेहरा लाए या फिर चेहरा न लाकर मुद्दे पर ही जाए. सवाल ये भी है कि विपक्ष अंतर्विरोध को खत्म कर साथ आ भी पाएगा या नहीं आ पाएगा? 

इसमें कोई दो राय नहीं है कि देर-सवेर बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के प्रयास रंग लाते नजर आ रहे हैं. अभी तो यह सबसे महत्त्वपूर्ण निर्णय लिया जाना है कि एक सीट पर विपक्ष का एक ही, साझा उम्मीदवार कैसे उतारा जा सकता है. ममता और अखिलेश यादव कांग्रेस से ही अपेक्षा कर रहे हैं कि कांग्रेस बड़ा दिल दिखाए. इन दोनों बड़े राज्यों में अपने उम्मीदवार उतारने की जिद न करे. यह कैसे संभव है? क्षेत्रीय दलों की अपनी महत्त्वाकांक्षाएं हैं. 

इसमें दो राय नहीं कि देश में स्वस्थ लोकतंत्र के लिये मजबूत विपक्ष अपरिहार्य ही है. यदि देश में विपक्ष मजबूत होगा तो सत्ता पक्ष के निरंकुश व्यवहार पर अंकुश लगाने की कोशिशें सिरे चढ़ सकेंगी. कह सकते हैं कि विपक्षी एकजुटता के लिये अभी कई परीक्षाएं शेष हैं. यह भी हकीकत है कि पटना बैठक में कोई ठोस निर्णय सामने नहीं आए. लेकिन आगे संवाद की स्थिति बनी रहने की जरूरत पर बल दिया गया. अगली बैठक का शिमला में आयोजित किया जाना विपक्ष की एकता की इन्हीं कोशिशों का ही विस्तार है. फिलहाल विपक्ष नेे जो शुरुआत की है, वह सकारात्मक है, छोटा कदम है, लेकिन निर्णायक होने का रास्ता अभी लंबा और टेढ़ा-मेढ़ा है. अब सबकी निगाहें शिमला में होने वाली बैठक पर टिकी हुई हैं. 

-लेखक राज्य मुख्यालय पर मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार हैं.

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