OPINION: शैक्षणिक संस्थानों में बढ़ते आत्महत्या के मामले
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-डॉ. आशीष वशिष्ठ
बीते दिनों सरकार ने राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में कहा है कि आईआईटी, राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (एनआईटी) और भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम) में 2018-2023 की अवधि के दौरान आत्महत्या के कुल 61 मामले दर्ज किए गए. आत्महत्या के आधे से अधिक मामले आईआईटी में सामने आए हैं. इसके बाद एनआईटी और आईआईएम का नंबर आता है. शिक्षा राज्य मंत्री सुभाष सरकार के लिखित जवाब के अनुसार, ‘अकादमिक तनाव, पारिवारिक कारण, व्यक्तिगत कारण, मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे आदि आत्महत्या के कुछ कारणों में से हैं.’ ऐसे में अहम प्रश्न यह है कि छात्र आत्महत्या क्यों करते हैं? क्या दोष हमारी व्यवस्था में है? क्या हमारी शिक्षा प्रणाली ठीक नहीं है? प्रश्न यह भी है कि क्या छात्रों पर परिवार और समाज की ओर से बेहतर प्रदर्शन का दबाव है? क्या अभिभावकों व परिजनों की उम्मीदों और आशाओं के बोझ तले छात्र दब रहे हैं? या फिर समाज का बदला दृष्टिकोण और विचार छात्रों और युवाओं के लिए घातक सिद्ध हो रहा है? लगातार जारी आत्महत्याओं ने प्रमुख संस्थानों में मानसिक स्वास्थ्य और अन्य कारणों की स्थिति पर बहस शुरू कर दी है.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो की एक्सीडेंटल डेथ्स एंड सुसाइड इन इंडिया रिपोर्ट 2021 के अनुसार, वर्ष 2020 में 12,526 मौतों से 4.5 फीसदी की वृद्धि के साथ भारत में वर्ष 2021 तक प्रतिदिन 35 से अधिक की औसत से 13,000 से अधिक छात्रों की मृत्यु हुई जिसमें 10,732 आत्महत्याओं में से 864 का कारण ष्परीक्षा में विफलताष् थी. वर्ष 1995 के बाद से देश में वर्ष 2021 में आत्महत्या के कारण सबसे अधिक छात्रों की मृत्यु हुई, जबकि पिछले 25 वर्षों में आत्महत्या करने वाले छात्रों का आँकड़ा लगभग 2 लाख है. वर्ष 2017 में 9,905 छात्रों की आत्महत्या के कारण मृत्यु हुई थी, उसके बाद से आत्महत्या से होने वाली छात्रों की मृत्यु में 32.15ः की वृद्धि हुई है.
महाराष्ट्र में वर्ष 2021 में 1,834 मामलों के साथ छात्रों की आत्महत्या की संख्या सबसे अधिक थी, इसके बाद मध्य प्रदेश और तमिलनाडु का स्थान था. रिपोर्ट में यह भी दर्शाया गया है कि महिला छात्रों की आत्महत्या का प्रतिशत 43.49 प्रतिशत के साथ पांच वर्ष के निचले स्तर पर था, जबकि पुरुष छात्रों की आत्महत्या कुल छात्र आत्महत्याओं का 56.51 प्रतिशत थी. वर्ष 2017 में 4,711 छात्राओं ने आत्महत्या की, जबकि वर्ष 2021 में ऐसी मौतों की संख्या बढ़कर 5,693 हो गई. शिक्षा मंत्रालय के अनुसार, वर्ष 2014-21 में आईआईटी, एनआईटी, केंद्रीय विश्वविद्यालयों और अन्य केंद्रीय संस्थानों के 122 छात्रों ने आत्महत्या की. 122 में से 68 अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति या अन्य पिछड़ा वर्ग के थे. इंजीनियरिंग और मेडिकल प्रवेश परीक्षाओं की तैयारी के जाने-माने केंद्र कोटा, भारत में होने वाली आत्महत्याएं एक बढ़ती हुई चिंता है. जनवरी 2023 तक कोटा में वर्ष 2022 से अब तक 22 छात्रों की मौत हो चुकी है और वर्ष 2011 से लगभग 121 की मौत हो चुकी है.
अफसोस की बात है कि 2023 के पहले तीन महीनों में ही आईआईटी में दो छात्र आत्महत्या कर चुके हैं. जबकि आईआईटी-मद्रास में बीटेक थर्ड ईयर के 20 वर्षीय छात्र वी. वैपु पुष्पक श्री साई बीती 14 मार्च को अपने होस्टल के कमरे में बेहोशी की हालत में पाया गया था और बाद में अस्पताल ले जाने पर उसे मृत घोषित कर दिया था. रिसर्च स्कॉलर स्टीफन सनी 13 फरवरी को अपने हॉस्टल के कमरे में मृत पाए गए थे. इसी महीने, आईआईटी-बॉम्बे में, 18-वर्षीय दर्शन सोलंकी ने 12 फरवरी को कथित तौर पर एक परिसर की इमारत की सातवीं मंजिल से कूदकर आत्महत्या कर ली. दर्शन का परिवार जो एक पिछड़े समुदाय से हैं, ने आरोप लगाया था कि उनकी जाति के कारण उन्हें बहिष्कृत किया गया था. जबकि आईआईटी-मद्रास के छात्रों ने कैंपस में दो मौतों के बाद तनाव में काम करने की बात कही है और बेहतर मानसिक स्वास्थ्य के लिए सहायता की मांग की है, दर्शन की मौत ने भारत के कुछ सबसे प्रमुख संस्थानों में जाति-आधारित भेदभाव की व्यापकता के बारे में बातचीत को फिर से शुरू कर दिया है.
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अब सोचने वाली बात यह है कि जिस पीढ़ी के लोग अपने बचपन और जवानी में खूब खेले हैं, चले-दौड़े हैं, वह भी 45-50 साल की उम्र में बढ़ते वजन, घुटने के दर्द और सर्वाइकल जैसी बीमारियों से परेशान हो जाते हैं. ऐसे में जो बच्चे बचपन से शारीरिक रूप से सक्रिय नहीं हैं, चिकित्सकों का कहना है कि उनके जल्दी बीमार होने की संभावनाएं अधिक होती हैं. आधुनिक शिक्षा में मेरिट और अच्छे नंबरों का दबाव स्टूडेंट्स पर इतना बढ़ चुका है कि वे मानसिक रूप से उबर नहीं पा रहे हैं. इसी दबाव की नीति में स्टूडेंट हताश और तनावग्रस्त हो जाता है और आत्महत्या जैसा कदम उठाने पर मजबूर हो जाता है. कोचिंग संस्थानों को अपनी व्यवस्था में परिवर्तन लाना चाहिए.
विशेषज्ञों के अनुसार, माता-पिता, शिक्षकों और समाज की उच्च अपेक्षाओं के अनुरूप परीक्षा में अच्छा प्रदर्शन करने के लिये अत्यधिक तनाव और दबाव इसका कारण बन सकता है. असफल होने का यह दबाव कुछ छात्रों पर भारी पड़ सकता है, जिससे असफलता और निराशा की भावना पैदा होती है. अवसाद, चिंता और बाईपोलर विकार जैसी मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं छात्रों द्वारा आत्महत्या करने का कारण हो सकती हैं. ये स्थितियां तनाव, अकेलापन और समर्थन की कमी से और भी बदतर हो सकती हैं. वहीं शैक्षिक केंद्रों में कई छात्र दूर-दूर से आते हैं और अपने परिवार तथा दोस्तों से दूर रहते हैं. यह अलगाव और अकेलेपन की भावना को जन्म दे सकता है, जो एक अपरिचित और प्रतिस्र्पधी माहौल में विशेष रूप से कठिन परिस्थितियां पैदा करता है. इसके अलावा वित्तीय कठिनाइयां जैसे ट्यूशन फीस या रहने का खर्च वहन करने में सक्षम न होना, छात्रों के लिये बहुत अधिक तनाव और चिंता पैदा कर देता है. इससे निराशा और हताशा की भावना पैदा हो सकती है. वहीं शिक्षण संस्थानों में कई छात्र कठिनाइयों का सामना करते समय सहायता लेने में संकोच करते हैं.
छात्रों की आत्महत्या के मूल कारण को दूर करने के लिए किए गए उपायों के बारे में पूछे जाने पर सरकार ने सदन को लिखित जवाब में कहा कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 में ‘संस्थानों में तनाव और भावनात्मक समायोजन से निपटने के लिए परामर्श प्रणाली के प्रावधान हैं.’ वर्ष 2023 में घोषित राष्ट्रीय आत्महत्या रोकथाम रणनीति देश में अपनी तरह की पहली योजना है, जो वर्ष 2030 तक आत्महत्या मृत्यु दर में 10 प्रतिशत की कमी लाने के लिये समयबद्ध कार्ययोजना और बहु-क्षेत्रीय सहयोग है. इसका उद्देश्य अगले आठ वर्षों के भीतर सभी शैक्षणिक संस्थानों में एक मानसिक विकास पाठ्यक्रम को शामिल करना है.
आइंस्टीन ने कहा था, ‘अगर कोई मछली पेड़ पर नहीं चढ़ सकती तो इसका मतलब यह नहीं कि वह स्मार्ट नहीं है. उसकी अपनी अलग कुछ खूबी है.’ इस बात पर छात्रों और युवाओं को थोड़ा सोचने की जरूरत है. युवा और छात्र भी समझें कि कोई भी परीक्षा, समस्या या दाबव इतना बड़ा नहीं है कि उसमें असफलता से घबराकर जिंदगी का साथ छोड़ दिया जाए.
-स्वतंत्र पत्रकार