शिक्षा के अभाव में मानवाधिकारों के उल्लंघन की बढ़ती घटनाएं

शिक्षा के अभाव में मानवाधिकारों के उल्लंघन की बढ़ती घटनाएं
human rights in india
संजीव ठाकुर
मानवाधिकारों को सुनिश्चित करने की बढ़ती हुई आवश्यकता सीधा-सीधा शिक्षा तथा जागृति से जुड़ी हुई है. इसके बिना न तो व्यक्तित्व का विकास संभव है और ना ही जीवन यापन की किसी भी पहलू की अंतर्निहित प्रक्रिया ही पूरी होती दिखाई दे रही है. मानवाधिकार के अभाव में जनतंत्र और लोकतंत्र की कल्पना ही निरर्थक है.
 
अंतरराष्ट्रीय संगठन ऑफ ह्यूमन राइट्स वॉच की लगभग 175 देशों में मानवाधिकार की स्थिति का जायजा लेने वाली रिपोर्ट में भारत के संदर्भ में कहा गया है कि यहां महिलाओं तथा बच्चों आदिवासियों के मानव अधिकार से जुड़ी समस्याएं बहुत ज्यादा विकट विकृत और विकराल है. मानवाधिकार के बारे में जानकारी सीधे-सीधे किसी भी देश की शिक्षा, संस्कृति से जुड़ा हुआ सवाल है. देश के बहुत बड़े भूभाग में जहां आदिवासी और उनकी महिलाएं तथा बच्चे निवास करते हैं, वहां शिक्षा के अभाव में मानवाधिकार की कल्पना भी करना एक दुष्कर कार्य है.
 
मानवाधिकार का संदर्भ सीधा सीधा किसी भी देश के शैक्षिक स्तर से जुड़ा हुआ है. भारत देश में मानवाधिकार संरक्षण इसलिए भी काफी पिछड़ा है क्योंकि सभी जिलों में मानव अधिकार आयोग एवं मानवाधिकार संबंधी जागरूकता का ना होना है,और नागरिकों का शिक्षा के प्रति लगाओ ना होना ही है. मानवाधिकार मूलभूत अधिकार हैं.
 
मानवाधिकार के अंतर्गत जीवन जीने का अधिकार शिक्षा का अधिकार, जीविकोपार्जन का अधिकार ,वैचारिक स्वतंत्रता का अधिकार, समानता का अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, निजता का अधिकार, जैसे मूलभूत अधिकार शामिल है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विश्व के अधिकांश देशों में अधिकार संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान किए गए हैं.भारत में भी संविधान के भाग 3 के अनुच्छेद 14 से लेकर 35 तक नागरिकों को विभिन्न प्रकार के अधिकार दिए गए हैं. पूरे विश्व में मानवाधिकार को सुरक्षित सुरक्षित करने के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एमनेस्टी इंटरनेशनल एक संस्था है जिसका मुख्यालय ब्रिटेन के लंदन शहर में स्थित है.
 
वैसे तो मानवाधिकार की अवधारणा के इतिहास बहुत पुराना है. पर नवीन संदर्भों में इसकी अवधारणा द्वितीय विश्व युद्ध के बाद विकसित हुई है. वर्ष 1948 में संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा को स्वीकृत किया था. मानव अधिकार का उल्लेख प्राचीन भारतीय ग्रंथों में जैसे मनुस्मृति, हितोपदेश, पंचतंत्र, प्राचीन यूनानी दर्शन आदि में भी मिलता है. 1215 में इंग्लैंड में जारी किए गए मैग्नाकार्टा में नागरिक अधिकारों का विस्तृत उल्लेख तथा वर्णन है, पर उन अधिकारों को मानवाधिकार की संज्ञा नहीं दी जा सकती है. बहुत महत्वपूर्ण 1789 में फ्रांस की क्रांति के बाद वहां की राष्ट्रीय सभा ने नागरिकों के अधिकारों की घोषणा की थी. फल स्वरूप विश्व में समानता उदारता बंधुत्व के विचारों को बल मिलना शुरू हुआ, 19वीं शताब्दी में ब्रिटेन एवं अमेरिका में दास प्रथा की समाप्ति के लिए कानून बने. बीसवीं शताब्दी के आते-आते मानव अधिकारों को लेकर कई विश्वयापी सामाजिक परिवर्तन हुए जिसके अंतर्गत बालश्रम का विरोध एवं विभिन्न देशों में महिलाओं को चुनाव में मतदान का अधिकार प्राप्त हुआ. 1864 में जेनेवा समझौता से अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार सिद्धांतों को ताकत प्राप्त हुई. संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के साथ साथ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मानव अधिकार को मान्यता प्राप्त हुई. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक मानव अधिकार संरक्षण संस्था बनी जो पूरे विश्व में अलग-अलग देशों में होते मानव अधिकार उल्लंघन पर नियंत्रण रखती है. पर ऐसा कुछ नहीं है. जो शक्तिशाली व्यक्ति है, राष्ट्र है, वह अपनी मनमानी करता है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त राष्ट्र संघ और मानव अधिकार आयोग मूकदर्शक बना रहता है . इसका सबसे ताजा उदाहरण अफगानिस्तान पर तालिबानी आतंकवादियों का कब्जा है, अमेरिका,अफगानिस्तान छोड़कर चला गया. और अफगानिस्तान पर बर्बर युग की वापसी के साथ तालिबानी आतंक को अफगानिस्तान की जनता बुरी तरह झेल रही है. एवं महिलाएं तथा बच्चे हर स्तर पर अपमानित प्रताड़ित हो रहे हैं. ना तो संयुक्त राष्ट्र संघ कुछ कर पा रहा है, और ना ही मानव अधिकार आयोग.अफगानिस्तान की आवाम ने पूरी दुनिया से गुहार लगाकर अपनी जान बचाने की अपील की थी,पर वे अभी भी तालिबानियों का आतंक रहने पर मजबूर हैं.
 
213 में पाकिस्तान के कारागृह में मौत की सजा काट रहे भारतीय कैदी सरबजीत सिंह पर वही के कैदियों द्वारा जानलेवा हमला किए जाने पर उनकी मृत्यु हो गई मानव अधिकार आयोग चुप था. म्यानमार में भी मानवाधिकारों के उल्लंघन की खुली घटनाएं देखी गई, मानव अधिकार आयोग शांत है. पर ऐसा भी नहीं है कि हम मानव अधिकार नियमों तथा आयोग के प्रति एकदम निराश हो जाएं.
 
मानवाधिकार की धाराएं अच्छी एवं सशक्त हैं. मानवाधिकार के संदर्भ में जो संविधान बने हैं, उसमें किसी को भी गुलाम या दासता की हालत में ना कि नहीं रखा जा सकता, किसी को न तो शारीरिक प्रताड़ना नहीं दी जा सकती है. ना ही किसी के प्रति अमानुषिक एक अपमानजनक व्यवहार किया जा सकता है. ऐसा किया जाता है और संविधान की धारों में प्रावधान होता है जो कड़ी से कड़ी सजा दे सकता है. मानवीय मूल्यों और संविधान के संदर्भ में हमें आशावादी दृष्टिकोण अपनाकर ज्यादा से ज्यादा कानून पर विश्वास रख, इन घटनाओं को रोकना चाहिए. भारत में राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग का गठन 1993 में किया गया था.
 
मानवाधिकार उल्लंघन की घटनाओं पर जांच एवं सजा का प्रावधान भी रखा गया है. वस्तुतः शिक्षा के साथ मानव अधिकार संविधान के बारे में भी आम जन को हमें ज्यादा से ज्यादा जागरूक करने की आवश्यकता होगी.
 
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