लोकतंत्र की कड़ाही में राजतंत्र का छौंक
सौरभ जैन

जीव विज्ञान विषय वाले बताते हैं कि श्वान सबसे वफादार होता है। क्या जीव विज्ञान ने उनके दल का लोकतंत्र नहीं देखा? मिलावट के बाजार में दूध में डिटर्जेंट और लोकतंत्र में राजतंत्र मिलाया जा रहा है। कई राज्यों के मुख्यमंत्री बदल गए, एक राज्य में तो सारे मंत्री ही बदल गए, मगर मजाल उन्होंने अपना अध्यक्ष बदला हो। इतने वर्षों में कई देशों के राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री पद पर आकर चले गए लेकिन इनके दफ्तर में अध्यक्ष पद वाली नेमप्लेट नहीं बदल पाई है। 'नेमÓ भले बदल भी जाये तो 'सरनेमÓ नहीं बदलता। सरनेम मानो अध्यक्ष पद का कॉपीराइट हो गया। लोगों की पुश्तैनी दुकानें होती हैं, यहां तो एक पुश्तैनी पार्टी हो गई है।
कल तक हीरो कहता था मेरे पास गाड़ी है, बंगला है, बैंक बैलेंस है, तुम्हारे पास क्या है? फिर सारा देश टकटकी लगाए दूसरे हीरो की तरफ देखने लग जाता, उनका जवाब होता 'मेरे पास मां हैÓ यह सुन जनता खुशी के मारे उछल पड़ती। लेकिन अब दोनों का यह संवाद अर्थहीन साबित हो चुका है क्योंकि इनके पास मां है और मां के पास अंतरिम अध्यक्ष पद है। मां के पास से पद बेटे के पास और बेटे के पास से मां के पास आता-जाता रहता है। अध्यक्ष पद, पद न हुआ फुटबॉल हो गया जिसे आपस में ही पास-पास किया जा रहा है। आश्चर्य की बात यही है कि फुटबॉल खेल रहे टीम के अन्य खिलाडिय़ों को इसमें आपत्ति भी नहीं है, जिसे आपत्ति है वो फुटबॉल टीम में ही नहीं है।
एक ओर तो लोकतंत्र में जनता द्वारा चुनी हुई सरकारें बीच मझधार में ही बदल गईं, कितनी बार कितने रिसॉर्ट बदल गए, रिसॉर्ट में आने-जाने वाले माननीय बदल गए, यहां तक कि कई नेताओं के गले में गमछे तक बदल गए, विचारधारा से लेकर सिद्धांत बदल गए और इधर एक पार्टी अपना अध्यक्ष नहीं बदल पा रही है। सम्पूर्ण विश्व कोरोना काल में परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। अगर कहीं कुछ नहीं बदला है तो वह उनकी पार्टी का अध्यक्ष पद है।