संकट से मुकाबले के रणनीतिक विकल्प
भरत झुनझुनवाला

आज विश्व का सामरिक विभाजन अमेरिका और चीन के बीच है। हम अमेरिका का साथ देंगे तो अमेरिका के दुश्मन चीन की स्वाभाविक प्रवृत्ति होगी कि वह तालिबान एवं पाकिस्तान के साथ जुड़े। यों भी चीन के पाकिस्तान के साथ मधुर सम्बन्ध हैं, इसलिए चीन का झुकाव मूल रूप से तालिबान-पाकिस्तान की तरफ होगा। लेकिन यह गठबंधन हमारे लिए कष्टप्रद होगा क्योंकि तब हमारे पश्चिमी छोर से पूर्वी छोर तक तालिबान-पाकिस्तान-चीन के गठबंधन द्वारा हम घेर लिए जायेंगे। इसके अतिरिक्त पाकिस्तान-तालिबान के गठबंधन को चीन की आर्थिक सहायता मिल जायेगी तो वह ताकतवर हो जायेगा।
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इसलिए हमें दूसरी संभावना पर विचार करना चाहिए कि भारत और चीन मिलकर तालिबान-पाकिस्तान के गठबंधन का सामना करें। यह संभावना वर्तमान में कठिन दिखती है, लेकिन यह असंभव नहीं है। कारण यह कि चीन को पाकिस्तान से जो लगाव है, वह मुख्यत: वाणिज्यिक है। यदि चीन को भारत से वाणिज्यिक और व्यापारिक लाभ मिलता है तो चीन को भारत से बेहतर रिश्ते कायम करने में कठिनाई नहीं होगी। उस स्थिति में भारत पाकिस्तान और तालिबान के गठबंधन का सामना कर सकेगा। अत: हमें अमेरिका और चीन के बीच अपने सहयोगी का चयन करना है।
अपने सहयोगी को चिन्हित करने के लिए सर्वप्रथम उसकी ताकत को आंकना जरूरी है। इसमें कोई संशय नहीं कि बीते 100 वर्षों में विश्व के अधिकांश तकनीकी आविष्कार पश्चिमी देशों अथवा अमेरिका द्वारा किये गये हैं। ये आविष्कार ही अमेरिका की ताकत हैं। जैसे परमाणु बम, जेट हवाई जहाज, सुपर कम्प्यूटर, आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, इंटरनेट इत्यादि। ये सभी आविष्कार अमेरिका द्वारा किये गये। लेकिन बीते दो दशक में चीन ने तकनीकी क्षेत्र में भारी प्रगति की है। चीन ने स्वयं अपने लड़ाकू विमान बनाये हैं और इन्हें अन्य देशों से नहीं खरीदा है। उन्होंने परमाणु अस्त्र बना लिए हैं, मंगल ग्रह पर अमेरिका की बराबरी में अपने यान को उतारा है और अमेरिका से आगे बढ़कर सूर्य के बराबर का तापमान अपनी प्रयोगशाला में बनाया है। चीन के जूम और कैम स्कैनर जैसे एप प्रतिबंधों के बावजूद भारत और अमेरिका में पूरी तरह व्याप्त हैं। इसलिए पूर्व में अमेरिका ने जो भी तकनीकी महारत हासिल की थी, वह वर्तमान में फिसल गयी है। आज चीन और अमेरिका तकनीकी दृष्टि से बराबर दिखते हैं। इसलिए तकनीकी आधार पर हम अपने मित्र का चयन नहीं कर सकते। चीन की आर्थिक ताकत भी अमेरिका के बराबर पहुंच चुकी है।
सहयोगी चयन करने का एक आधार सामरिक है। अमेरिका के भारत पर कई उपकार हैं। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री विन्सेंट चर्चिल अमेरिका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट से मिलने अमेरिका गए थे। उन्होंने रूजवेल्ट को विश्वयुद्ध में इंग्लैण्ड की मदद करने का आग्रह किया। बताते हैं कि रूजवेल्ट ने मदद देने की एक शर्त यह रखी कि इंग्लैण्ड को भारत जैसे अपने उपनिवेशों को स्वतंत्र करना होगा। हम मान सकते हैं कि रूजवेल्ट का वह दबाव भी इंग्लैण्ड द्वारा भारत को स्वतंत्रता दिलाने में कुछ हद तक कारगर रहा होगा। इसके बाद 60 के दशक में अमेरिका ने भारत को पब्लिक लॉ 480 के अंतर्गत मुफ्त अनाज भारी मात्रा में उपलब्ध कराया था। उस समय हमारे देश में सूखा पड़ गया था और हम भुखमरी के कगार पर आ गये थे। अमेरिका के इन उपकारों को मानते हुए हमें अमेरिका के दूसरे पक्ष को भी देखना होगा। अमेरिका ने सऊदी अरब में लोकतंत्र विरोधी सरकार का निरंतर साथ दिया है, पाकिस्तान को एफ-16 लड़ाकू विमान समेत तमाम सहायता दी है, जिनका उपयोग पाकिस्तान द्वारा भारत के खिलाफ किया जा सकता है, अफगानिस्तान सरकार को जिस प्रकार अमेरिका छोड़ कर भागा है, उससे विश्वास कम ही पैदा होता है। पूर्व में दक्षिण वियतनाम में भी ऐसा ही हुआ था। अत: अमेरिका का अपने साथियों के प्रति व्यवहार भी बहुत आशाजनक नहीं रहा है।
हाल ही में यूरोपीय देशों के प्रमुख ने कहा है कि अब यूरोपीय देशों को विश्वस्तर पर सैन्य गतिविधियां करने के लिए अमेरिका के इतर अपनी ताकत को बनाना होगा। इसलिए पूर्व में अमेरिका का चरित्र जो भी रहा हो, वर्तमान में अमेरिका स्थाई एवं ठोस साथी बना रहेगा, यह संदेह का विषय बना रहता है। दूसरी तरफ हमारा चीन से 1962 से शुरू हुआ सरहद का विवाद लगातार जारी है। चीन ने हमको चारों तरफ से घेरने का प्रयास किया है। जैसे श्रीलंका, म्यांमार और बांग्लादेश को भारी ऋण दिए हैं। अत: हमारे सामने कुएं और खाई के बीच चयन करने जैसी स्थिति है। अमेरिका भरोसेमंद नहीं है जबकि चीन के साथ हमारा लगातार विवाद रहा है।
इन दोनों विकल्पों को सैन्य दृष्टि से भी देखना चाहिए। यदि हम चीन के साथ हाथ मिलाते हैं तो भारत-चीन का गठबंधन तालिबान-पाकिस्तान के गठबंधन पर अंकुश लगाने में सफल होने की संभावना अधिक दिखती है तब तालिबान-पाकिस्तान को हम घेर सकेंगे। लेकिन इस दिशा में हमें चीन के साथ अपना सरहद का विवाद निपटाना पड़ेगा। दूसरी तरफ यदि हम अमेरिका के साथ हाथ मिलाते हैं तो तालिबान-पाकिस्तान-चीन का विशाल गठबंधन हमारे सामने खड़ा होगा, जिसका सामना करना कठिन होगा। चूंकि चीन की आर्थिक ताकत इस गठबंधन को पोसेगी। अमेरिका के भरोसेमंद न होने का संकट भी बना रहेगा। इसलिए हमें चीन के साथ अपने सरहदी विवाद को निपटाना चाहिए और वर्तमान में जो बड़ा संकट तालिबान-पाकिस्तान-चीन के गठबंधन के बनने से हमारे सामने खड़ा हुआ है, उसे क्रियान्वित होने से रोकने का प्रयास करना चाहिये।
हमें तय करना होगा कि बड़ा दुश्मन कौन, तालिबान-पाकिस्तान या चीन? चीन के साथ हमारी दुश्मनी 1962 के युद्ध से शुरू हुई है। नेविल मैक्सवेल द्वारा लिखी पुस्तक 'इंडियाज चाइना वारÓ के अनुसार भारत के रक्षा मंत्री कृष्ण मेनन ने चीन को उकसाया था। उस खोजबीन में जाने के स्थान पर आगे की देखनी चाहिए। इस समय हमें चीन से कम और तालिबान-पाकिस्तान से खतरा अधिक है। इसलिए छोटे दुश्मन चीन से मिलकर बड़े दुश्मन तालिबान-पाकिस्तान का सामना करना चाहिए।