मोबाइल फ़ोन अति का सबसे सटीक उदाहरण!

योगेश मिश्रा
‘अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप, अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप.’ यही नहीं, हमारे यहाँ यह भी कहा गया है-‘अति सर्वत्र वर्ज्यते.’ लेकिन हमारी आदत में इस और इस तरह की नसीहतों को न मानना शुमार है. हम इसे फ़िलहाल मोबाइल फ़ोन के संदर्भ में समझें तो आसानी से समझा जा सकता है. क्योंकि देश में मोबाइल उपभोक्ताओं की संख्या तक़रीबन 120 करोड़ है. जिसमें 76 करोड़ केवल स्मार्ट फ़ोन धारक हैं. यानी हर आदमी फ़ोन से लैस है. जिस देश में किसी भी शहर में लोगों को बिजली , सड़क व पानी पूरी तरह मयस्सर न हो. रोज़ 19 करोड़ लोग भूखों सोने को अभिशप्त हों. ‘हर हाथ को रोज़गार , हर खेत को पानी’ जैसे नारे केवल जुमला बन कर रह गये हों. वहाँ मोबाइल फ़ोन ही अति का सबसे सटीक उदाहरण हो सकता है. वह भी तब जबकि हम भारतीय मोबाइल के सारे फ़ीचर का औसतन दस फ़ीसदी ही इस्तेमाल जानते हैं.तब रोज औसतन पाँच घंटे मोबाइल के साथ गुज़ारते हैं. जबकि वर्ष 2019 में यह आंकडा 3.30 घंटे का ही था.
नताशा ने एक किताब लिखी है,” एडिक्शन बाई डिज़ाइन .” आदत का हिस्सा बन जाने वाली तकनीकी में ई मेल को भी शरीक किया जा सकता है.फ़ोन पर आने वाले नोटिफिकेशन भी हमें उकसाते रहते हैं. फ़ेसबुक, ट्विटर व स्नैपचैट हम उत्सुकता से खोलते हैं. क्योंकि हमें पता नहीं रहता कि हमें क्या रिवार्ड मिलने वाला है. हर कंपनी चाहती है कि हमें आदत पड़ जायें. इसके लिए रिवार्ड व फ़ीचर को लेकर कंपनियाँ अलग अलग प्रयोग करती रहती हैं .
शुरूआत में हम बोरियत कम करने के लिए इनका इस्तेमाल करते हैं. आन लाइन क्लास व कारोबार होने से मोबाइल व लैपटॉप का इस्तेमाल बढ़ गया है. जिससे सिरदर्द, आँखों में लाली, आँखों का सूखना, नज़र कमजोर होना , आँखों में जलन संबंधी दिक़्क़तें तो बढ़ ही रही हैं.ज़्यादा स्क्रीन टाइम से आत्म संयम व जिज्ञासा की कमी, भावनात्मक स्थिरता का न होना, ध्यान केंद्रित न कर पाना, आसानी से दोस्त न बना पाना जैसी समस्याएँ हो जाती हैं. तेज सुनने व तेज बोलने की भी आदत बन जाती है.जब स्कूल खुलेंगे तो बच्चों की आदत बदलने में अभिभावकों को दिक़्क़त पेश आयेगी .
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डाटा ईंधन की तरह है. यह विज्ञापनदाताओं को एक प्लेटफ़ार्म देता है. जिसके बदले में वह पैसा बनाता है. अपने उपयोगकर्ताओं के लाइक, डिसलाइक, लाइफ़ स्टाइल व राजनीतिक आँकड़े रखता है. 2016 में अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में कैंब्रिज एनलिटिका नाम की कंपनी ने फ़ेसबुक से पाँच करोड़ से अधिक यूज़र्स की जानकारियाँ चुका ली थीं. जिसका इस्तेमाल डोनाल्ड ट्रंप के लिए किया गया था. भारत में इसके 29 करोड़ उपयोगकर्ता हैं. ट्विटर के 1.75 करोड़, इंस्टाग्राम के 12 करोड़, स्नैपचैट के 7.43 करोड़ और यू ट्यूब के 26.5 करोड़ यूज़र्स हैं. औसत भारतीय रोज़ सोशल मीडिया पर 99 मिनट का समय बिताता है.
अमेरिकी मनोवैज्ञानिक फादर ऑफ विहैवियरिज्म कहे जाने वाले वी. एफ . स्कीनर के मुताबिक़ ईनाम पाने की लत तब लगती है जब पता न हो कि ईनाम कितना मिलेगा? कब मिलेगा? कबूतरों को पता था कि लीवर दबाने से खाना मिलता है. ऐसे में जब भूख लगेगी तभी लीवर दबायेंगे. पर अगर उन्हें यह पता चल जाये कि लीवर दबाने पर कभी खाना मिलेगा. कभी नहीं मिलेगा. तब कबूतर लीवर से चिपके रहेंगे. हमारी कुछ यही गति है.
इन दिनों मोबाइल व सोशल मीडिया के चलते हो रही बीमारियों से छुटकारा दिलाने के लिए अलग से अस्पतालों में विभाग खुल रहे है . लखनऊ के किंग जार्ज मेडिकल कालेज में ऐसा विभाग खोला गया है. पर हमें अपने स्तर से भी इनसे होने वाली बीमारियों से निपटने की पहल करनी होगी.
इसके लिए हम फ़ोन का नोटिफिकेशन बदल सकते हैं.’टाइम स्पेंट’ को ‘टाइम बेस्ट स्पेंट’ बनाना होगा. पुंक्ट आज दुनिया की उन कंपनियों में है जो तकनीकी में छोटे छोटे बदलाव लाकर चिंता व लत से छुटकारा दिलाने का काम करती है. स्मार्टफ़ोन से बेसिक फ़ोन पर जाने को कहती है. पश्चिमी सेलिब्रिटी किम कर्दाशियां, एना विंटूर, डेनियल डे लेविस, व वारेन बफ़ेट ने अपने स्मार्टफ़ोन हटाकर. बेसिक मोबाइल फ़ोन ले लिये हैं. आप तय कीजिये आपको क्या करना है? आपको किधर जाना है? ( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .)