देश की शक्तिशाली प्रधानमंत्रियों में से एक- इंदिरा गांधी

देश की शक्तिशाली प्रधानमंत्रियों में से एक- इंदिरा गांधी
indira gandhi

बैजनाथ मिश्र
'मुझे चिंता नही की मैं जिवित रहूँ या न रहूँ लेकिन जब तक जीवित हूँ मेरे शरीर मे मौजूद खून का एक एक कतरा भारत को मजबूती देता रहेगा.' यह उद्गार इन्दिरा गांधी के है. वैसे प्रधानमंत्री बनने के बाद इंदिरा के सामने कई चुनौतियां व संकट थे. देश में उसी साल ऐसा भयानक अकाल पड़ा कि कई राज्यों में आहार के लिए दंगे होने लगे. मिजो जनजातियों ने विद्रोह कर दिया तथा पंजाब में भाषाई आंदोलन सर उठाने लगा. साथ ही उनके ख़िलाफ दुष्प्रचार ने ज़ोर पकड़ लिया . दिल्ली व देश के कुछ भागों में उन्हें देश के लिए अशुभ बताने वाले पोस्टर लग गए.

इन सबसे विचलित हुए बिना इंदिरा ने अपना सफर शुरू कर दिया. गौरक्षा मामले में उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त मुख्य़ न्यायाधीश एके सरकार की अध्यक्षता में एक समिति गठित कर दी, जिसे यह रिपोर्ट देनी थी कि देश भर में गौवध पर रोक लगाना उचित होगा . इसमें उन्होंने निर्भीकता के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख़िया एमएस गोलवलकर को भी रखा. उनके अलावा पुरी के शंकराचार्य, राष्ट्रीय डेयरी विकास निगम अध्यक्ष वी कुरियन, अर्थशास्त्री अशोक मित्रा सहित अन्य लोग शामिल थे. कुरियन ने बाद में लिखा कि गोलवलकर ने स्वीकार किया था कि नवंबर 1966 में उनके द्वारा चलाए गए गौरक्षा अभियान का मूल उद्देश्य सरकार को परेशान करना था तथा उनके मस्तिष्क में कई राजनीतिक उद्देश्य भी थे. समिति समय पर रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं कर सकी तथा 1979 में मोरारजी देसाई सरकार ने इसे भंग कर दिया.

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1967 में इंदिरा गांधी पचास साल की हो गईं और इसी साल होने वाले लोकसभा चुनाव में उन्होंने पहली बार जनता से सीधा सामना करने यानी चुनाव लड़ने का मन बनाया . इसके लिए उन्होंने अपने दिवंगत फिरोज गांधी की सीट रायबरेली चुनी. यही नहीं उनकी क्षमता को लेकर के.कामराज ने जो अनुमान लगाए थे, उन्हें सिद्ध करते हुए इंदिरा ने प्रचार के लिए 45 दिन के चुनाव अभियान में 25 हजार किलोमीटर से ज्य़ादा की यात्रा की.इस चुनाव से पहले देश में समाजवादी आंदोलन आकार लेने लगा था.  इसमें यादव, जाट, रेड्डी, पटेल व मराठा जैसी पिछड़ी जातियां शामिल थीं, जिनका कांग्रेस से मोहभंग हो चुका था.  कांग्रेस में रह चुके राम मनोहर लोहिया के विचार में सन् 1952, 1957 व 1962 के चुनाव कांग्रेस द्वारा सतत् जीतने पर मतदाता को लगने लगा था कि कांग्रेस को कोई नहीं हरा सकता.  इस सोच को बदलने के लिए उन्होंने विपक्ष को सलाह दी कि चुनाव में अपने अलग-अलग उम्मीदवार खड़े करने के बजाय सभी पार्टियों को मिलकर कांग्रेस के सामने एक साझा उम्मीदवार खड़ा करना चाहिए . लोहिया का यह फार्मूला काम कर गया और कांग्रेस को कई जगह हार का मुंह देखना पड़ा. देश के नौ राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकार भी बनी.

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स्वतंत्र पार्टी के टिकट पर महारानी गायत्री देवी ने चुनाव लड़ा और ख़ुद को इंदिरा गांधी की प्रतिद्वंद्वी के रूप में पेश किया . जयपुर में एक आमसभा को संबोधित करते हुए इंदिरा ने पूर्व राजे-महाराजों पर यह कह कर हमला किया कि “जाओ और महाराजाओं व महारानियों से पूछो कि अपने राज में उन्होंने जनता के लिए क्या किया तथा जनता के धन से ऐश करने वाले इन लोगों ने अंग्रेजों के ख़िलाफ़ कितनी जंगें लड़ीं.” बहरहाल 1967 के चुनाव कांग्रेस जीत तो गई, लेकिन उसे सीटों का नुक़सान उठाना पड़ा .

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वी.कृष्णा अनंत के मुताबिक 1967 के चुनाव ने भारत की सामाजिक व राजनीतिक संरचना को ख़ासी ठेस पहुंचाई, जिसके बाद में दुष्परिणाम दिखते रहे. इस चुनाव में “गठबंधन, समझौतों के साथ धर्म, जाति आदि के नाम पर भी वोट मांगे गए,” नतीजतन सन् 1947 से एक साझा परिवार की तरह रहते आए भारत को इससे अपूरणीय क्षति पहुंची . वरिष्ठ राजनेताओं द्वारा इस तरह के हथकंडे अपनाए जाने का जवाब इंदिरा ने ख़ामोशी से दिया.एक तो यह कि देश के राजे-महाराजों की संपत्तियां उन्होंने भारत सरकार में शामिल कर लीं तथा दूसरा देश के बड़े बैंकों को राष्ट्रीयकृत कर दिया . एक झटके में 14 बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण अपनेआप में बड़ी घटना थी, जिसने आम नागरिकों का दिल जीत लिया . इंदिरा के इस कदम से आमजन कितने उत्साहित थे, इसका अंदाज़ा ‘शू शाइन बॉयज यूनियन’ द्वारा दिए गए एक ऑफर से लगाया जा सकता है.  यूनियन की ओर से घोषणा की गई थी कि कांग्रेस अधिवेशन में शामिल होने वाले ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी के तमाम प्रतिभागियों के जूतों पर मुफ्त़ में पॉलिश की जाएगी. राष्ट्रीयकृत की जाने वाली बैंकों में सबसे बड़ी सेंट्रल बैंक थी. टाटा द्वारा नियंत्रित इस बैंक में 4 अरब से अधिक रुपए जमा थे. सबसे छोटी महाराष्ट्र बैंक में भी 70 करोड़ रूपए जमा थे. ये उस दौर के मान से बहुत बड़ी-बड़ी रकमें थीं.

गरीबी हटाओ’ वाले नारे के साथ सन् 1971 में इंदिरा गांधी सत्ता में वापस लौटीं. एक शक्तिशाली प्रधानमंत्री के रूप में वे स्थापित थीं. इसी दौरान उन्होंने पाकिस्तान के दो टुकड़े कर के दिखाए. इससे इंदिरा को पूरे देश ने सिर आंखों पर बिठा लिया. इतना ही नहीं तब भारतीय जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें ‘दुर्गा’ की उपाधि से भी नवाजा. पाकिस्तान पर भारत की भारी-भरकम जीत राष्ट्र के लिए गौरव का विषय थी. इसे 1962 में चीन से मिले घाव की भरपाई भी माना गया. सन् 1974 में भारत द्वारा पोखरण में किए गए परमाणु परीक्षण ने इंदिरा का रुतबा देश व संसार में और बढ़ा दिया. इसके बाद 1975 में सिक्किम के भारत में विलय से उनकी छवि एक महान नेता की हो गई.

कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं से मिले कड़वे अनुभवों के कारण उन्होंने कांग्रेस को पूरी तरह नियंत्रण में लेने के प्रयास शुरू कर दिए. कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों को हटा कर वहां उन्होंने अपनी पसंद के मुख्यमंत्री बिठाए. जैसे राजस्थान में मोहनलाल सुखाड़िया की जगह बरकतुल्लाह ख़ान तो मध्यप्रदेश में श्यामाचरण शुक्ला के स्थान पर प्रकाशचंद सेठी को गद्दी सौंप दी गई. पार्टी फंड को भी उन्होंने अपने कब्ज़े में कर लिया. आज इंदिरा गांधी का 37 वां पुण्यतिथि है उन्हें भावभिनी श्रद्धांजलि.

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