Joshimath Sinking: जोशीमठ त्रासदी से उपजे सवाल

Joshimath Sinking:   जोशीमठ त्रासदी से उपजे सवाल
joshimath sinking (Photo- https://www.facebook.com/photo?fbid=666392675173943&set=pcb.882707746261818)
-डॉ. ओ.पी. त्रिपाठी
उत्तराखंड के जोशीमठ शहर में जो हो रहा है वो बड़ी चिंता का सबब है. ये त्रासदी बहुत से सवाल खड़े करती है. जोशीमठ चार दशक पहले भी भयावह और असुरक्षित था और आज भी त्रासदी के मुहाने पर है. बीते कुछ अंतराल में उत्तराखण्ड में जो त्रासदियां पेश आई हैं, उससे साफ हो गया है कि विकास का जो माडल अपनाया गया है उसमें खामियां हैं. वर्ष 1803 के गढ़वाल के महाभूकंप से 2013 की आपदा तथा फरवरी, 2021 एवं जोशीमठ की वर्तमान आपदा तक आते-आते यह प्रक्रिया श्प्राकृतिकश् से श्मानवकृतश्अधिक हो गई है. वर्तमान में जोशीमठ में आई आपदा को सिर्फ आंशिक रूप से प्राकृतिक कहा जा सकता है. यह त्रासदी दरअसल हमारे द्वारा बनाई और विकसित की गई है.
 
जोशीमठ बदरीनाथ और केदारनाथ का प्रवेश द्वार और देशवासियों के लिए एक प्रमुख तीर्थ है. उसका अपना एक पौराणिक महत्व है. जोशीमठ का महत्त्व सांस्कृतिक, पौराणिक, आध्यात्मिक और सामरिक है. सिर्फ 40 किलोमीटर की दूरी पर चीन की सीमा है. इसे भगवान विष्णु का दूसरा घर माना जाता था. आदि शंकराचार्य ने भारत में हिंदुत्व के जो चार मठ स्थापित किए थे, उनमें से एक ‘ज्योतिर्मठ’ इसी शहर का प्राचीन नाम था. विष्णु अवतार नरसिंह भगवान भी अपना गुस्सा शांत करने इसी पहाड़ पर आए थे. लोग उनके मंदिर में पूजा करते हैं. आज शिवलिंग भी खंडित हो गया है, लिहाजा श्रद्धालु उसे देखकर रो रहे हैं और किसी अनिष्ट की कल्पना से कांप रहे हैं.
 
उल्लेखनीय है कि आज 21वीं सदी में जोशीमठ में जो संकट पैदा हुआ है उसकी आशंका वर्ष 1976 में एक शीर्ष नौकरशाह ने उजागर कर दी थी. उनकी अध्यक्षता में बने एक पैनल ने क्षेत्र में भारी निर्माण पर प्रतिबंध लगाने की सिफारिश की थी. दरअसल, मिश्रा आयोग ने चेताया था कि जोशीमठ एक भूस्खलन के स्थल पर बसा है और बड़े निर्माणों का बोझ उठाने में सक्षम नहीं है. आयोग ने बड़ी संख्या में भवन निर्माण से परहेज रखने की सलाह दी. लेकिन उनकी सिफारिश को उत्तराखंड के सत्ताधीशों व प्रशासन ने अनदेखा किया. बीते दशकों में जोशीमठ में अंधाधुंध निर्माण कार्य हुए. रोप-वे के लिये भारी-भरकम पिलर बनाये गये. बताया जाता है कि ऊपर के पिलरों से दरार पड़ने का सिलसिला शुरू हुआ. ब्रिटिश काल से ही लोग इस तथ्य से अवगत हैं कि जोशीमठ की बसाहट ऐसी जगह पर है, जो एक ग्लेशियर के पिघलने से निकले मलबे के रूप में है. यह भूगर्भीय दृष्टि से एक नाजुक जगह है. ऐसी जगह पर किए जाने वाले निर्माण कार्यों के प्रति सावधानी बरती जानी चाहिए थी.
 
सवाल उठता है कि पहाड़ की कमजोर बुनियाद के बारे में चेताने के बावजूद आखिर बड़े पैमाने पर अव्यवस्थित निर्माण की अनुमति क्यों दी गई. दरअसल, बड़ी पन-विद्युत परियोजनाओं के लिये सुरंग खोदने तथा ऑल वेदर राजमार्ग के विस्तार ने पहले से संवेदनशील ढलानों को अत्यधिक अस्थिर बना दिया. जिसका नतीजा आज बड़ी दरारों के रूप में सामने आ रहा है. निस्संदेह, उत्तराखंड में तीर्थयात्रा और ट्रैकिंग सर्किट के लिये जोशीमठ महत्वपूर्ण पड़ाव है. साथ ही चीन की संवेदनशील सीमा के चलते इसका सामरिक महत्व भी अधिक है. यहां चीन सीमा की वजह से सेना की बड़ी छावनी स्थित है. सुरक्षा कारणों के चलते सेना की आवाजाही को सुगम बनाने के लिये सड़कों के बुनियादी ढांचे का उन्नयन भी जरूरी था.
 
पर्यावरण विशेषज्ञ बताते हैं कि चमोली से लेकर जोशीमठ तक पूरा क्षेत्र आपदाएं झेल चुका है. विशेषज्ञों का कहना है कि 2013 और 2021 की बाढ़ का इस इलाके में प्रतिकूल असर पड़ा था. दो साल पहले सर्दी के मौसम में एक हिमाच्छादित झील के फटने से करीब 204 से अधिक लोगों की मौत हुई थी, जिसमें ज्यादातर जलविद्युत परियोजना में काम करने वाले प्रवासी श्रमिक व कर्मचारी थे. साथ ही संपत्ति का बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ था. ऐसे वक्त में जब भूमि धंसने से जोशीमठ का अस्तित्व खतरे में पड़ रहा है, बचाव का तात्कालिक विकल्प नजर नहीं आता. प्रभावित इलाकों से लोगों को निकालने की चुनौती है. फिर उसके बाद उनके पुनर्वास की समस्या है. 
 
सिर्फ जोशीमठ ही नहीं, राज्य के अन्य 70 स्थानों और गांवों के लोगों ने भी घरों, जमीन में दरारों की शिकायतें की हैं. टिहरी, पौड़ी, रुद्रप्रयाग और चमौली जिलों के हालात भी जोशीमठ सरीखे हो सकते हैं. वहां भी पहाड़ को छिन्न-भिन्न किया गया है. कुल 35,000 परिवारों पर अचानक संकट आ पसरा है. विकास के नाम पर पहाड़ों को चीर-चीर कर ‘महानगरीय’ बनाने की भूख पहाड़ों को जिंदा कहां रहने देगी? दरअसल ‘ग्लोबल क्लाईमेट रिस्क इंडेक्स, 2020’ में भारत का स्थान पांचवां है. नीति आयोग और नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक सरीखे संवैधानिक संगठन अपनी-अपनी रपटों में आगाह कर चुके हैं कि पहाड़ों पर जो अतिक्रमण, ड्रिल निर्माण किए जा रहे हैं, विकास के नाम पर सुरंगें और राजमार्ग बनाए जा रहे हैं, उनके कारण एक दिन पहाड़ पर जीवन ही समाप्त हो सकता है. इससे बड़ी और खौफनाक चेतावनी और क्या हो सकती है?
 
लोगों ने जीवन भर की पूंजी जोड़कर घर बनाये हैं, घर छोड़ते वक्त उनकी आंखों में आंसू हैं. ऐसे में इस शहर को बचाने का यक्ष प्रश्न सामने है. दरअसल, बड़े निर्माण शुरू करने से पहले उस चट्टान का वैज्ञानिक आकलन जरूरी था जिस पर यह शहर टिका है. यह इलाका भूकंप की दृष्टि से भी संवेदनशील बताया जाता है. विडंबना यह है कि इसके अलावा शहर के वर्षा जल व घरेलू जल निकासी के निस्तारण की पर्याप्त व्यवस्था यहां नहीं रही है. पानी पहाड़ के भीतर जाता रहा है. लोग यहां निर्माणाधीन पनबिजली परियोजना का निर्माण स्थगित करने की मांग कर रहे हैं, जिसकी सुरंगों को खोदने के चलते संकट बढ़ने की आशंका जतायी जा रही है. 
 
जोशीमठ में जमीन धंसने की घटनाओं पर यह कहा गया कि पास से गुजरते हए हाइवे के निर्माण और एनटीपीसी की परियोजना के कारण यहां की जमीन खिसक रही है. इसके बाद कई विशेषज्ञों ने बताया कि इस निर्माण के कारण जमीन नहीं दरक रही है, लेकिन इतनी जल्दी नतीजे पर पहुंचना ठीक नहीं. इसके साथ ही यह भी ध्यान रखना होगा कि जोशीमठ और उसके आसपास हर तरह के निर्माण को ठप नहीं किया जा सकता, क्योंकि एक तो यह तीर्थस्थल है और दूसरे चीनी सीमा भी अधिक दूर नहीं. ऐसे में यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि जो भी निर्माण हो, वह मानकों को ध्यान में रखते हुए हो. 
 
दरअसल, जोशीमठ भूगर्भीय हलचलों के चलते भी धंसने के प्रति संवेदनशील है. जो उपचारात्मक उपायों की तत्काल जरूरत बताता है. लेकिन इसको लेकर दीर्घकालिक रणनीति बनाने की जरूरत है. छोटे-छोटे टुकड़ों में समस्या का समाधान तलाशना चुनौती की गंभीरता को कम करने मे सहायक नहीं हो सकता. प्रयास हो कि स्थानीय लोगों की जीविका भी प्रभावित न हो. इतना ही नहीं, जोशीमठ की चुनौती से सबक लेकर अन्य पर्वतीय शहरों की स्थिति की पड़ताल करने तथा उत्तराखंड की घाटियों में पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्रों में निर्माण कार्यों को लेकर फिर से विचार करने की भी जरूरत है. उचित यह होगा कि सरकारें हर तरह के निर्माण कार्य की गुणवत्ता जांचने के लिए किसी समिति का गठन करने के साथ यह सुनिश्चित करें कि उसकी ओर से तय किए गए मानकों पर वास्तव में अमल भी हो. यह अमल तब होगा, जब इंजीनियरों के साथ ठेकेदारों को जवाबदेह बनाया जाएगा और उनकी ओर से कराए जाने वाले निर्माण कार्यों की गुणवत्ता की प्रभावी ढंग से निगरानी भी की जाएगी. -चिकित्सक एवं लेखक
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