श्राद्ध वास्तव में श्रद्धा का प्रतीक है।वर्ष में श्राद्ध पक्ष का यह पखवाड़ा अपने उन पूर्वजों को याद कर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने का अवसर है,जिन्हें हम जिंदगी की भागदौड़ और आगे बढऩे की आपाधापी में विस्मृत कर देते है।यह अपने पूर्वजों के सद्गुणों और उनके बताए सन्मार्ग पर चलने के लिए प्रतिबद्ध होने का भी अवसर है।वास्तव में माता पिता चाहे किसी के भी हो उनके कदमों में स्वर्ग सी अनुभूति होती है।मुझे याद है जब कभी स्नेह वश मैं बालिग हो जाने के बाद भी मां की गोद मे सिर रखकर उनका दुलार पाता या फिर पिता का स्नेहशील हाथ मेरे सिर पर आ जाता था तो उस समय मैं स्वयं को सबसे भाग्यशाली व सुरक्षित महसूस करता था।लेकिन जब मेरे माता पिता इस दुनिया से चले गए तो मुझे लगा जैसे मुझ पर से किसी ने मेरा साया छीन लिया हो।तभी तो माता पिता के हमेशा के लिए चले जाने के बाद मेरे जीवन में उदासी व अवसाद इस कदर आया था जैसे मेरी दुनिया ही सुनी हो गई हो।दरअसल माता पिता के दिवगंत होने के बाद उनके कदमों की जन्नत ने मेरा साथ छोड दिया था। मुझे अब न मां की गोद में सिर रखकर मां के ममत्व की अनुभूति हो पा रही थी, न ही पिता के ममत्व भरे हाथ मेरे सिर को सहलाने के लिए अब बचे थे। माता पितां की देह से तो मैं हमेशा के लिए वंचित हो गया था परन्तु आत्म स्वरूप में माता पिता का अक्स आज भी मेरी आंखों में बसा हुआ है और लगता है कि वे मुझे कदम कदम पर सन्मार्ग दिखाते रहेंगे। आज भी लगता है कि जैसे वे मुझे जीवन की राह पर उगंली पकडकर ले जाना चाहते हो और मै भी माता पिता के अक्स और उनकी यादों के साथ उनके बताए मार्ग पर चल पडता हूं, जिस मार्ग पर ले चलने का उन्होने स्वपन बुना था। यानि माता पिता के आदर्शो पर चलने की प्रेरणा ही मेरी सफलता का कारण भी बनी है।मेरे लौकिक माता पिता के चले जाने के बाद मुझे परमात्मा शिव की रूहानी गोद प्रजापिता ब्रहमाकुमारी ईश्वरीय विश्वविद्यालय में राजयोग प्रशिक्षण के माध्यम से मिली है।उससे तो मेरे जीवन की दशा और दिशा ही बदल गई। मेरे पिताजी मदन लाल शर्मा मेरी मां से तीन साल पहले 13 फऱवरी 2009 में 82 वर्ष की आयु में चल बसे थे। 13 फरवरी को ही सन 2012 में मेरी मां श्रीमती प्रकाशवती ने महाप्रयाण किया था। मेरे पिताजी एक रहमदिल इंसान थे और उनमें मां जैसा ममत्व था।तभी तो मां जब पढने के लिए कहती या फिर पढाई न करने पर डांटती तो पिताजी मां के सामने ढाल बनकर खडे हो जाते और प्यार से कहते कोई बात नही, धीरे धीरे पढ लेगें । कई बार तो मां जब घर पर नही होती और हम भाई बहन रात में मां के निर्देश पर देर रात तक पढ रहे होते तो पिताजी हमें कहते थे बस, बहुत पढाई कर ली। अब सो जाओं। मां के बीमार होने या फिर मायके जाने पर भी पिताजी अपने हाथ से खाना बनाकर हमें खिलाते थे । पिताजी हमारे लिए पिता के साथ साथ दुसरी मां की तरह थे।वही मां जो अपने जीवन में कभी स्कूल नही गई थी ,हम भाईयों व बहन की पढाई को लेकर इतनी सजग थी कि बडे भाई श्याम मोहन शर्मा का पालिटेक्निक में एडमिशन कराने के लिए उन्होने अपने जेवर तक बेच दिये थे। वही हम भी पढे और अच्छे नम्बरो से पास हो,इसके लिए मां हर रोज देर रात तक हमे पढने के लिए न सिर्फ कहती बल्कि स्वयं भी रात भर हमारे पास बैठी रहती और देखती रहती कि हम पढ रहे है या नही । उस जमाने में टेलीविजन नये नये आए थे। हमारे गांव नारसन कलां में सिर्फ एक या दो टेलीविजन ही थे।टेलीविजन पर हर रविवार को फीचर फिल्म और हर बुधवार को चित्रहार टेलीविजन का प्रमुख आकर्षण था। हमारी भी इच्छा होती कि हम फिल्म और चित्रहार देखे परन्तु मां पढाई के कारण इसकी अनुमति नही देती थी। कई बार हमे बुरा भी लगता परन्तु जब हमारा रिजल्ट आता और हम पास होते तो सब लोग बोलते कि पास हम नही, हमारी मां हुई है। लोगो की यह बात सोलह आने सच भी थी क्योकि मां का अपने बच्चो की पढाई के प्रति इस जुजून के कारण हम सफ़ल हो सके।मेरे माता पिता ने गरीबी के दिनों में भी कभी होंसला नही खोया और मां ने पिताजी का साथ निभाने के लिए सन 1965 में अनपढ होते हुए भी सिलाई व कढाई में डिप्लोमा किया और फिर घर में सिलाई कढाई करके घर चलाने में पिताजी की मदद की थी।मेरी मां प्रकाशवती सन 1942 के जनआन्दोलन में तिरंगा फैहराते हुए हरिद्वार में शहीद हुए 17 वर्षीय जगदीश प्रसाद वत्स की सगी बहन थी और जब उनके भाई जगदीश शहीद हुए, उस समय मां की उम्र केवल 14 वर्ष की थी। शहादत के अगले वर्ष ही बेटे के गम में उनके मां बाप गुजर गए जिससे मां के जिम्मे मात्र 15 वर्ष की आयु में अपने परिवार की सारी जिम्मेदारी आ गई थी। उन कठिन दिनों में जिम्मेदारी के एहसास और अनुभव से ही मां को वह ताकत मिली थी कि वे जीवन के हर मोड पर सफल रही और हमें कामयाब कर पायी।
मां अपने या पराये किसी भी बच्चे में कोई भेद नही करती थी।न्याय प्रिय मेरी मां ने कभी हमारी गलती को नही छिपाया और कभी दूसरो पर झूठा दोषारोपण नही किया। उनकी अपनी कोई गलती होती तो सहजता से उसे स्वीकार कर लेना ही मां का स्वभाव था।
अपने जीवन के अन्तिम दिनों में मां ने शारिरीक कष्ट झेलते हुए भी कभी अपना दुख प्रकट नही किया । जब भी मां से उनकी तकलीफ जानने की कौशिश करते तो मां के मुंह से एक ही शब्द निकलता कि वह ठीक है। दरअसल मां नही चाहती थी कि उनके दुख को देखकर कोई दुखी हो। जीवन पर्यन्त संयमी,शांत और सन्तुष्ट रही मां प्रकाशवती के अन्दर राष्ट्रभक्ति का भाव कूट कूटकर भरा था।उन्हे अपने भाई जगदीश वत्स के राष्टृबलिदान के लिए एक बडे पत्र समूह द्वारा सम्मानित भी किया गया था। मां चाहती थी उनके अमर शहीद भाई जगदीश प्रसाद वत्स की जीवनी किसी पाठयक्रम में शामिल हो ,ताकि आने वाली पीढी देश के शहीदो से प्रेरित होकर राष्टृभक्ति के मार्ग को अपना सके।मां के इस सपने को पूरा करने के लिए उत्तराखण्ड के तत्कालीन मुख्यमन्त्री हरीश रावत ने अमर शहीद जगदीश वत्स की जीवन पाठयक्रम में शामिल करने के निर्देश शिक्षा विभाग के अधिकारियों को दे दिये थे ,लेकिन उनकी सरकार चले जाने के कारण उक्त निर्देश आज तक फलित नहीं हुए है।(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है)