OPINION : सांसदों के भत्तों पर क्यों नहीं लगता Tax?

OPINION : सांसदों के भत्तों पर क्यों नहीं लगता Tax?
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चुनाव के नतीजे आते ही पता नहीं क्यों हमारे विजयी नुमाइंदों के पंख लग जाते हैं.

हमारे विधायक, सांसद या दूसरे जनप्रतिनिधि नतीजों के एलान के साथ ही आम नहीं रह जाते. खास हो जाते हैं. अपने खास बने रहने के लिए ही ये लगातार जद्दोजहद करते रहते हैं.

इनकी पांच साल की समूची कोशिश का परदा हटाकर देखा जाए तो यह तथ्य हाथ लगता है कि निरंतर विशेषाधिकार के अधिकार की ही कोशिश करना इनकी आदत है.

चुनाव जीतते ही जनता से उन्हें भय सताने लगता है, उन्हें सुरक्षाकर्मियों की दरकार आन पड़ती है.

चुनाव के नतीजों के साथ क्यों हो जाता है असुरक्षा का बोध?

सवाल यह उठता है कि चंद दिनों पहले तक जनता के हमकदम रहने वाले माननीय, चुनावी नतीजों के साथ ही असुरक्षा का बोध क्यों करने लगते हैं? क्योंकि उनके साथ लगे सुरक्षाकर्मी आसपास के लोगों को उनके विशेषाधिकार का बोध कराते हैं.

जनता की गाढ़ी कमाई किस तरह बहाई जाती है, इसमें भी हमारे माननीय पारंगत हैं.

हालांकि अक्सर यह इस बात का रोना रोते हुए दिख जाएंगे कि जनता का पैसा बर्बाद नहीं होना चाहिए, उनके इस रोने में एक सच्चाई भी है, वह यह कि जनता का पैसा सिर्फ उनके लिए खर्च होना चाहिए, भले ही वह बर्बादी क्यों न हो.

विधायकों और सांसदों को मकान देने वाले महकमे के लोगों से बात करें तो साफ होता है कि कोई भी अपने पूर्ववर्ती सांसद व विधायक द्वारा छोड़े गए मकान से संतुष्ट नहीं होता है.

लाखों रुपए खर्च किये बिना वर्तमान सांसद व विधायक के लिए वह मकान रहने लायक नहीं होता है! मंत्रियों के मामले में यह बीमारी और गंभीर है.

एक सरकार के मंत्री के आवास को दूसरे सरकार के मंत्री के रहने लायक बनाने के लिए कई लाख रुपए खर्च करने पड़ते हैं.

सिर्फ उत्तर प्रदेश की बात करें तो सपा और बसपा सरकार के मुख्यमंत्रियों के बंगलों को रहने के लिए बनाने में करोड़ों रुपए खर्च हो जाते हैं.

उत्तर प्रदेश में हुआ यह खुलासा

बीते दिनों उत्तर प्रदेश में एक बेहद दिलचस्प खुलासा हुआ है. हर आदमी को अपने आयकर की अदायगी अपनी आमदनी से करनी होती है लेकिन 1981 में विश्वनाथ प्रताप सिंह (Vishwa nath pratap singh) जब उत्तर प्रदेश (uttar pradesh) के मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने यह कानून बनाया कि मुख्यमंत्री और सभी मंत्रियों का आयकर सरकारी खजाने से भरा जाए.

इस नए कानून की वजह भी बेहद दिलचस्प बताई गई थी, कहा गया था कि अधिकतर मंत्री गरीब हैं, उनकी आमदनी बहुत कम है, लिहाजा उनके हिस्से के आयकर की अदायगी सरकारी कोष से होगी.

तब से उत्तर प्रदेश में 19 मुख्यमंत्री बदले लेकिन यह विशेषाधिकार का कानून बदस्तूर जारी रहा. जब मीडिया में इस कानून के खिलाफ आवाज उठी तब जाकर योगी आदित्यनाथ (Yogi adityanath)ने इस कानून को रद करने का फैसला लिया.

किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री (Chief Minister) का वेतन वहां की विधानसभा तय करती है जो हर दस साल पर बढ़ता है.

कितनी है यूपी के सीएम की सैलरी?

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का मासिक वेतन इस समय तीन लाख 65 हजार रुपए हैं. विधायकों के वेतन में महंगाई भत्ते का जो हिस्सा होता है वह मुख्यमंत्री के वेतन में भी जुड़ जाता है.

आयकर (Income tax)सरकारी खजाने से अदा करने के पीछे के तर्क में यह कहना कि मंत्री, मुख्यमंत्री गरीब होते हैं बेहद हास्यास्पद है.

98 फीसदी विधायक, मंत्री, मुख्यमंत्री, सांसद ऐसे हैं, जिनकी संपत्ति हर कार्यकाल में सुरसा के मुंह से भी तेज गति से बढ़ जाती है.

यह इनके शपथ पत्र से ही उजागर होता है. आम आदमी की आमदनी और विधायक, सांसद, मंत्री की आमदनी में कई बार सौ गुना तक अंतर मिलता है.

इनकी चल-अचल संपत्तियों की बढ़ोत्तरी की दर अर्थव्यवस्था के विकास के किसी भी आंकड़े को मुंह चिढ़ाती मिलती है.

Telangana के विधायकों की सैलरी सबसे ज्यादा

देश के 31 राज्यों में 4120 विधायक हैं. सबसे अधिक वेतन तेलंगाना (Telangana) के विधायक को मिलता है जो ढाई लाख रुपए महीना है. सबसे कम वेतन 34 हजार रुपए त्रिपुरा (Tripura) के विधायक के हिस्से में आता है.

उत्तर प्रदेश के विधायक को वेतन और भत्ते के मद में 1.87 लाख रुपए, असम (Assam)के विधायक को 42 हजार रुपए महीने मिलते हैं.

सांसद को एक लाख रुपए महीने का वेतन, दैनिक भत्ते के रुपए दो हजार रुपए प्रतिदिन, संवैधानिक भत्ते के नाम पर 70 हजार रुपए महीने और कार्यालय व्यय भत्ते के मद पर 60 हजार रुपए महीना मिलता है.

हवाई यात्रा पर 25 फीसदी ही देना पड़ता है. एक सांसद इस भुगतान पर सालभर में 34 यात्राएं कर सकता है यह सुविधा उसे उसकी पत्नी के साथ मिली हुई है.

इन चिंताओं से मुक्त रहते हैं माननीय

सड़क मार्ग से यात्रा करने पर 16 रुपए प्रतिकिलोमीटर के हिसाब से उसे यात्रा भत्ता मिलता है. लेकिन सांसद के वेतन भत्तों पर कोई कर देय नहीं है.

यह सवाल महत्वपूर्ण हो जाता है कि आखिर इन्हें कर से मुक्त क्यों रखा गया है? तब जबकि देश निरंतर आयकर देने वालों की संख्या बढ़ाने की कोशिश करता दिखता है.

इतना ही वेतन पाने वाले दूसरे लोग आयकर देते हैं. इसकी भी वजह हमारे माननीयों के मन में विशेषाधिकार की भावना का होना है.

यही नहीं, हमारे सांसदों को क्षेत्र के विकास के लिए पांच करोड़ सालाना मिलते हैं जबकि विधायकों को अलग अलग राज्यों में इस मद में एक करोड़ से लेकर चार करोड़ तक की धनराशि मिलती है.

हमारे माननीय जीवन भर यात्रा और दवा की चिंता से मुक्त रहते हैं. आम आदमी की तरह यात्रा आरक्षण की दिक्कत का भी इन्हें सामना नहीं करना पड़ता है.

माननीय का अलग होगा आपकी कीमत पर

वह हमारे और आप की तरह का पानी नहीं पीते. हमारे और आपके तरह के माहौल में जिंदगी नहीं जीता. कभी उसके रिहायशी इलाके में जाइये तो उसकी दुनिया आपको चौंकाती भी है और रुलाती भी है.

आम आदमी की जिंदगी की तरह की मुश्किलें चुनाव जीतने के साथ ही हमारे माननीयों को पसंद नहीं आतीं. यही नहीं, एक बार भी जीत जाते हैं तो अपने लिए ऐसा ताना बाना बुन लेते हैं कि उनकी जिंदगी आम से हटकर खास हो जाए.

सुविधा की सियासत ही नहीं सुविधा की जिंदगी उनका मकसद हो जाता है. आप अपने आसपास के किसी भी माननीय को देखिये पहली बार चुनाव जीतने के पहले तक वह आप सरीखा ही होता है.

पर चुनाव जीतने के बाद उसका सब कुछ आपसे अलग हो जाता है. उसका यह अलग होना आपकी कीमत पर होता है.

उसकी सुविधाएं, उसके वेतन, उसके भत्ते, उसकी सुरक्षा इस सब की कीमत हम आप अदा करते हैं. आपके हाथ सिर्फ यह लगता है- एक मौका और दें.

योगेश मिश्र. (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह उनके निजी विचार हैं.)

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