न्याय प्रणाली के भारतीयकरण की जरूरत

अनूप भटनागर

न्याय प्रणाली के भारतीयकरण की जरूरत
Opinion Bhartiya Basti 2

 

देश के प्रधान न्यायाधीश एन.वी. रमण का मत है कि न्याय प्रदान करने वाली प्रणाली का भारतीयकरण समय की मांग है। लेकिन इसमें महत्वपूर्ण सवाल यह जुड़ा है कि विविधता से परिपूर्ण भारत में न्याय व्यवस्था का भारतीयकरण कैसे हो। प्रधान न्यायाधीश की यह चिंता भी उचित है कि अदालतों की कार्यवाही अंग्रेजी भाषा में होने की वजह से ग्रामीण अंचलों की जनता इसे समझ नहीं पाती हैं और वे खुद को इससे अलग-थलग महसूस करते हैं। यही नहीं, विवादों के समाधान के प्रयास में उसका धन भी ज्यादा खर्च होता है।

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नि:संदेह न्याय प्रणाली का भारतीयकरण तभी संभव और सफल होगा जब जिला स्तर पर लोगों को सहजता और सुगमता के साथ सस्ता न्याय मिलने लगे। इस दिशा में न्यायपालिका और केंद्र प्रयास भी कर रहे हैं। इन्हीं प्रयासों का नतीजा देश में सफलतापूर्वक काम कर रही लोक अदालतें हैं, जबकि इसके विपरीत, सांध्य अदालत और ग्राम अदालत स्थापित करने के प्रयास सफल नहीं हो पा रहे हैं। भारतीयकरण के लिए जरूरी है कि अदालतों के आदेश और फैसलों की भाषा भी सरल और आसानी से समझ में आने वाली हो। उच्चतम न्यायालय अदालतों के आदेशों और फैसलों में प्रयुक्त जटिल और पेचीदगी भरी भाषा पर लगातार चिंता भी व्यक्त कर रहा है।

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देश के विभिन्न राज्यों की अधिकांश अधीनस्थ अदालतों में राज्य की राजभाषा में ही कामकाज होता है जबकि उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय तथा दूसरे मंचों पर न्यायिक कामकाज अंग्रेजी भाषा में होता है, जहां निश्चित ही ग्रामीण परिवेश से आये वादकारियों को इस कार्यवाही को समझने में बहुत कठिनाई होती है। ग्रामीण अंचल के निवासियों के विवादों का सुगमता और सहजता से समाधान करने के इरादे से केन्द्र ने ग्रामीण अदालतों की स्थापना का निर्णय किया था। संसद ने 2008 में ग्राम न्यायालय कानून बनाया और महात्मा गांधी के जन्मदिन के अवसर पर दो अक्तूबर, 2009 को इस कानून को देश में लागू किया गया। इस कानून के तहत देश में पांच हजार से अधिक ग्राम अदालतों की स्थापना का लक्ष्य रखा गया था।

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इस कानून का मकसद ग्रामीणों के विवादों को उनके गांव की सीमा में ही सुलझाना और उन्हें सुगमता से न्याय दिलाना था। परंतु ग्राम न्यायालय योजना राज्यों की उदासीनता के अभाव में अधिक कारगर नहीं हो सकी। इस महत्वाकांक्षी योजना को सफल बनाने के लिए केन्द्र से वित्तीय सहायता भी दी जा रही है। शीर्ष अदालत ने ग्राम अदालतों पर आने वाले खर्च की राशि बढ़ाने पर विचार करने का भी केंद्र को निर्देश दिया था। इस योजना के तहत शुरू में प्रति ग्राम अदालत भवन के लिए 10 लाख रुपये, वाहन के लिए पांच लाख रुपये और कार्यालय की साज-सज्जा के लिए तीन लाख रुपये के हिसाब से सहायता प्रदान करने की व्यवस्था की गयी थी। इस योजना के तहत शुरू में सिर्फ 11 राज्यों में 343 ग्राम न्यायालयों को अधिसूचित किया था, लेकिन राज्यों में पर्याप्त संख्या में ग्राम न्यायालय स्थापित नहीं हुए।

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ग्राम न्यायालयों की स्थापना को लेकर नेशनल फेडरेशन ऑफ सोसाइटीज फॉर फास्ट जस्टिस नाम के संगठन ने उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की। न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद भी स्थिति में बहुत अधिक सुधार नहीं हुआ। इस मामले में न्यायालय ने राज्यों से हलफनामे पर जानकारी मांगी थी। अपेक्षित जानकारी उपलब्ध नहीं कराने वाले राज्यों पर न्यायालय ने जनवरी, 2020 में सख्त रुख अपनाया और उन पर एक-एक लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया था। शीर्ष अदालत में यह मामला अंतिम बार 28 जुलाई, 2020 को सूचीबद्ध हुआ था। इन ग्राम न्यायालयों में सिर्फ उन्हीं मामलों की सुनवाई होनी थी, जिसमें अधिकतम दो साल की सजा हो सकती है। इन अदालतों को दीवानी और फौजदारी के सामान्य मामलों की सुनवाई के लिए कुछ अधिकार प्रदान किये गये थे। ऐसे मामलों को सुलझाने के लिये समझौता और अपराध कबूल करके सजा कम कराने के उपाय शामिल थे।

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इस कानून में यह भी व्यवस्था की गयी कि ग्राम न्यायालय के फैसले को 30 दिन के भीतर जिला अदालत या सत्र अदालत में चुनौती दी सकती है। जिला अदालत और सत्र अदालत को ऐसे मामले में छह महीने के भीतर निर्णय करने का प्रावधान भी कानून में किया गया। लेकिन यह योजना राज्य सरकारों के उदासीन रवैये के कारण सफल नहीं हो पा रही है। दरअसल, ग्राम न्यायालयों की स्थापना की धीमी प्रगति में इनके अधिकार क्षेत्र को लागू करने में पुलिस तथा प्रशासनिक अधिकारियों का ढुलमुल रवैया, नोटरी और स्टाम्प विक्रेताओं की अनुपलब्धता और नियमित अदालतों के समान अधिकार क्षेत्र की समस्या के योगदान से भी इनकार नहीं किया जा सकता।

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उम्मीद है कि सरकार अंग्रेजों के जमाने के पुराने और अव्यावहारिक हो चुके कानूनों को रद्द करने की प्रक्रिया की तरह ही देशवासियों को सहजता से समझ में आने वाली कानूनी प्रक्रिया के भारतीयकरण के बारे में प्रधान न्यायाधीश के विचारों को गंभीरता से लेकर इस दिशा में ठोस कदम उठायेगी।

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