आदर्शवादी वादों से दूर सफलता की कहानियां

उमेश चतुर्वेदी

आदर्शवादी वादों से दूर सफलता की कहानियां
Opinion Bhartiya Basti 2


सफलताएं, दुनिया को आकर्षित ही नहीं करतीं, प्रेरित भी करती हैं। इन अर्थों में संघ लोक सेवा आयोग की 2020 की परीक्षा में शीर्ष पर रहे बिहार के पूर्णिया निवासी शुभम की कहानियों से बिहार और उसके युवाओं का लहालोट होना स्वाभाविक है। मौजूदा टॉपर बिहार के छठवें निवासी हैं, जिन्होंने देश की सबसे चुनौतीपूर्ण और कठिन मानी जाने वाली परीक्षा में शीर्ष स्थान हासिल किया है।
वैसे टॉपर हों या फिर सामान्य चयनित, सिविल सेवक, सिविल सेवक ही होता है। टॉपर होने के नाते उसे उस सेवा में कोई विशेषाधिकार नहीं मिल जाता। बिहार में नागरिक सेवा के प्रति क्रेज अरसे रहा है। वहां के माता-पिताओं की कॉलर ऊंची तभी होती है, जब उनका बेटा या बेटी सिविल सेवा में जाता है। अगर बच्चा सिविल सेवा के लिए नहीं चुना जा सका तो बैंकिंग समेत तमाम दूसरी सरकारी नौकरियां उसके गर्वबोध का जरिया बनती हैं। इसलिए बिहार में सिविल सेवा समेत तमाम सरकारी नौकरियों के प्रति रुझान बाकी राज्यों की तुलना में कहीं ज्यादा है। इसकी वजह से हर साल बिहार के तमाम लड़के-लड़कियां सिविल सेवा, पुलिस सेवा, विदेश सेवा, अलायड सेवा आदि के लिए चुने जाते हैं। इनमें सफलता नहीं मिलती तो पड़ोसी राज्यों की राज्य प्रशासनिक सेवा में वहां के छात्र कामयाब कोशिशें करते हैं। कुछ साल पहले दिल्ली से प्रकाशित एक अंग्रेजी दैनिक की एंकर स्टोरी याद आ रही है। उस स्टोरी में आंकड़ों के जरिए से हवाला दिया गया था कि 2025 आते-आते देश के सभी जिलों के डीएम या एसपी या दोनों बिहारी मूल के छात्र होंगे।
आखिर इतनी संख्या में बिहारी मूल के नौकरशाहों के होने के बावजूद बिहार की स्थिति अब भी तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा जैसी क्यों नहीं है? मिस यूनिवर्स, मिस वर्ल्ड, मिस एशिया पैसिफिक, मिस इंडिया या मिस शहर जैसी प्रतियोगिताओं के फाइनल में पहुंचने वाली सुंदरियों का जिस तरह एक ही जवाब होता है, मां की तरह दयालु बनना, समाज की सेवा करना, मदर टेरेसा से प्रभावित होना, की तरह सिविल सेवा के इंटरव्यू में पहुंचे छात्र भी साक्षात्कार बोर्ड के सामने अपना प्रमुख उद्देश्य समाज को बदलना और उसकी सेवा करना बताते हैं।
लेकिन क्या ऐसा हो पाता है? जिस तरह प्रतियोगिता जीतते ही सुंदरियां मदर टेरेसा को भूल जाती हैं, सिविल सेवा में चयन होने के बाद मसूरी के लाल बहादुर शास्त्री प्रशासन अकादमी में पहुंचने के बाद अपने उस उद्देश्य के वर्णों को भूलने लगते हैं, जिनका बखान वे साक्षात्कार बोर्ड के सामने कर चुके होते हैं। कुछ एक अपवादों को छोड़ दें तो उनके अंदर वही आत्मा धीरे-धीरे समाहित होने लगती है, जो अंग्रेजों द्वारा स्थापित उनकी पूर्वज इंडियन सिविल सेवा के अधिकारियों में थी। आदर्शवादी दावों का दम कार्यक्षेत्र में निकलने लगता है और सफलता की इन कहानियों में हुकूमत का भाव भरने लगता है। इसके बाद अधिकारी बना शख्स उस समुदाय को भी भूलने लगता है, जो उनकी टॉपर गाथाओं को गा-गाकर अपने गर्वबोध और कई बार अपने हताशा बोध को पुष्ट करता रहता है।
अगर ऐसा नहीं होता तो समाज बदलने की उनकी प्रतिज्ञाएं समाज को पहले की तुलना में बेहतर बना चुकी होतीं, प्रशासनिक अधिकारियों के सामने जाने के लिए लोगों में हिचक नहीं होती। या फिर समाज ही ऐसा हो गया है कि साल-दर-साल संघ लोकसेवा आयोग या राज्य लोकसेवा आयोग के साक्षात्कार बोर्ड के सामने समाज बदलने का दावा करने वालों के झांसे में नहीं आता। समाज ही खुद बदलने से इनकार कर देता है।
यहां पर याद आती है संविधान सभा में अनुच्छेद 310 और 311 को लेकर हुई बहस। पहले अनुच्छेद के तहत सिविल सेवकों के अधिकार तय किए गए हैं तो दूसरे के तहत उन्हें चुनने वाली लोक सेवा आयोग का। बहस में संविधान सभा के कई सदस्यों ने आशंका जताई थी कि सिविल सेवकों को गांधी जी के सपनों के मुताबिक लोक सेवक बनाने के लिए संवैधानिक संरक्षण नहीं दिया जाना चाहिए। क्योंकि वे भी अंग्रेजों के अधिकारियों जैसा तानाशाही रुख अपनाएंगे, उनके अंदर भी सामंती बोध बढ़ेगा। तब सरदार पटेल ने संविधान सभा के सदस्यों की उस आशंका को खारिज किया था। उन्होंने उम्मीद जताई थी कि स्वाधीन भारत में प्रशासनिक सेवा के अधिकारी अपनी लोकभूमिका को समझेंगे, वे जीवन और स्वाधीन भारत के मूल्यों को समझेंगे। सरदार ने उन्हें संवैधानिक संरक्षण देने की वकालत करते हुए तर्क दिया था कि चूंकि मौजूदा राजनीतिक पीढ़ी स्वाधीनता आंदोलन के मूल्यों से विकसित हुई है, इसलिए वह अपनी जिम्मेदारी समझती है। उन्होंने तब कहा था कि अगर भावी राजनीतिक पीढ़ी भ्रष्ट हुई तो वह नौकरशाही को तंग करेगी।
नौकरशाही को जर्मन विचारक मैक्सवेबर ने व्यवस्था का स्टील फ्रेम कहा है। सरदार की वकालत पर नौकरशाही को मिले संवैधानिक संरक्षण ने भारतीय नौकरशाही को मैक्सवेबर की सोच से भी कहीं ज्यादा मजबूत बना दिया है।
सफलताओं की कहानियों पर लहालोट होना भी चाहिए। इससे भावी पीढिय़ों का उत्साहवर्धन होता है। लेकिन हमें यह भी याद रखना चाहिए कि सफलता की ये कहानियां अपने रचे जाने के दौर में कैसे सपने दिखाती हैं और बाद में वे कैसी हो जाती हैं। नौकरशाही वाले घरों में पडऩे वाले छापे, और वहां से निकलने वाली अकूत संपत्तियों की कहानियां भी याद रखना होगा। तभी सफलता की कहानियों को उन लक्ष्यों के प्रति जागरूक रखा जा सकेगा, जिनका जिक्र संघ लोकसेवा आयोग के साक्षात्कार बोर्ड के सामने करके पूरी हुई हैं।

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