मारक वेरिएंट के खिलाफ नयी मुहिम
मुकुल व्यास

नॉर्थवेस्टर्न विश्वविद्यालय के माइक्रोबायोलॉजी और इम्यूनोलॉजी के असिस्टेंट प्रोफेसर और नये अध्ययन के सह-लेखक पाब्लो पेनालोजा-मैकमास्टर ने कहा कि हम यह पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि कोरोना वायरस के नये वेरिएंट के खिलाफ अधिक प्रभावी वैक्सीन कौन सी हो सकती है। ऐसा लगता है कि वैक्सीन में न्यूक्लियोकैप्सिड प्रोटीन मिलाने से वह ज्यादा ताकतवर हो सकती है। नयी वैक्सीन चूहों में पुनर्संक्रमण के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करने में सफल रही। वैक्सीन की डोज पूरी होने के बाद होने वाले संक्रमण को 'ब्रेकथ्रू इंफेक्शनÓ भी कहा जाता है। इस तरह के इंफेक्शन के खिलाफ मौजूदा स्पाइक प्रोटीन आधारित वैक्सीन और अतिरिक्त एंटीजन से युक्त वैक्सीन के प्रभाव का पता लगाने के लिए यह पहला अध्ययन है।
ध्यान रहे कि कोरोना वायरस का बहुचर्चित स्पाइक प्रोटीन वायरस के बाहर होता है जबकि न्यूक्लियोकैप्सिड प्रोटीन वायरस के भीतर होता है। पेनालोजा-मैकमास्टर ने कहा कि न्यूक्लियोकैप्सिड प्रोटीन उन प्रोटीनों में से है, जिनकी अभिव्यक्ति तेजी से होती है। इसकी वजह से इसका डिटेक्शन शीघ्र होता है। शायद इसी कारण से यह चूहों में ब्रेकथ्रू इंफेक्शन को रोकने में कारगर सिद्ध हुआ है। उन्होंने कहा कि किसी कोशिका के सार्स-कोव-2 वायरस के संक्रमित होने के बाद हम चाहते हैं कि शरीर की टी-कोशिकाएं जल्द से जल्द इस संक्रमित कोशिका का पता लगाएं। पेनालोजा-मैकमास्टर का कहना है कि यदि टी-कोशिकाएं कोरोना वायरस के जीवन चक्र के दौरान शुरू में अभिव्यक्त होने वाले प्रोटीनों का पता लगा सकती हैं तो हम वायरस के अनियंत्रित होने से पहले ही संक्रमण को रोक सकते हैं।
उन्होंने कहा कि हमें अभी से ऐसी भावी वैक्सीन के बारे में सोचना शुरू कर देना चाहिए जो न सिर्फ परिवर्तनशील स्पाइक को निशाना बनाए बल्कि न्यूक्लियोकैप्सिड जैसे वायरस के उन हिस्सों को भी निशाना बनाए, जिनमें ज्यादा परिवर्तन नहीं होता। अपने अध्ययन के निष्कर्षों पर पहुंचने से पहले वैज्ञानिकों ने चूहों को सार्स-कोव-2 के स्पाइक प्रोटीन से बनी वैक्सीन, सिर्फ न्यूक्लियोकैप्सिड प्रोटीन से बनी वैक्सीन और दोनों प्रोटीनों से बनी वैक्सीन लगाई। कई हफ्तों बाद शोधकर्ताओं ने इन चूहों की नाक का संपर्क कोरोना वायरस से किया। इसके पश्चात उन्होंने चूहों की श्वसन और स्नायु प्रणाली में वायरस के लोड का हिसाब लगाया। इस अध्ययन के आधार पर विज्ञानी यह तय करने में सफल रहे कि कौन-सी वैक्सीन ब्रेकथ्रू इंफेक्शन से बचाव करने में कितनी असरदार रही। विज्ञानी अब यह जानने की कोशिश कर रहे हैं कि दोबारा संक्रमित होने वाले लोगों के स्नायु तंत्र पर दीर्घकालीन प्रभाव क्या पड़ता है।
नये वेरियंट्स से निपटने के लिए वैज्ञानिक दूसरे उपायों पर भी विचार कर रहे हैं। जर्मन रिसर्चरों ने ऐसी सूक्ष्म एंटीबॉडीज विकसित की है जो कोरोना वायरस और उसके नये खतरनाक वेरिएंट का कारगर ढंग से मुकाबला कर सकती हैं। ये सूक्ष्म एंटीबाडीज अथवा नैनोबॉडीज वायरस के साथ जुड़ कर उसे निष्प्रभावी करने में उन नैनोबॉडीज से 1000 गुणा ज्यादा प्रभावी हैं जो पहले विकसित की जा चुकी हैं। वैज्ञानिकों ने नयी नैनोबॉडीज को कुछ इस तरह से विकसित किया है कि वे लंबे समय तक टिकाऊ रहें और उच्च तापमान झेल सकें। इन दोनों गुणों की वजह से ये कोविड-19 के इलाज में कारगर हो सकती हैं। इन्हें कम लागत पर अधिक मात्रा में तैयार करके कोविड की औषधियों की विश्वव्यापी मांग को पूरा किया जा सकता है। इस समय क्लिनिकल ट्रायल के किए इन नैनोबॉडीज का उत्पादन किया जा रहा है।
ध्यान रहे कि एंटीबॉडीज की मदद से हमारा इम्यून सिस्टम रोगाणुओं के हमले को रोकने की कोशिश करता है। ये एंटीबॉडीज वायरस के साथ जुड़ कर उसे निष्प्रभावी कर देती हैं, जिससे वह कोशिकाओं को संक्रमित नहीं कर सकता। एंटीबॉडीज का उत्पादन औद्योगिक पैमाने पर किया जा सकता है और गंभीर रूप से बीमार व्यक्तियों के इलाज में इन एंटीबॉडीज का प्रयोग किया जाता है। ये एंटीबॉडीज दवाओं की तरह से काम करती हैं। ये बीमारी के लक्षणों को दूर करने और मरीज की रिकवरी के समय को कम करने में मदद करती हैं। हेपेटाइटिस बी और रेबीज के इलाज के लिए यह एक स्थापित उपचार विधि है। एंटीबॉडीज का प्रयोग कोविड के इलाज के लिए भी किया जाता है लेकिन औद्योगिक स्तर पर इन मॉलिक्यूल्स का उत्पादन एक जटिल प्रक्रिया है और पूरी दुनिया की मांग को पूरा करने की दृष्टि से यह बहुत महंगी भी है। नैनोबॉडीज से इस समस्या का समाधान हो सकता है।
जर्मनी के गोटिंजन स्थित शोध संस्थानों में कार्यरत वैज्ञानिकों ने जो सूक्ष्म एंटीबॉडीज तैयार की हैं, उनमें वे सारे गुण मौजूद हैं जो कोविड के खिलाफ किसी असरदार दवा में मौजूद होने चाहिए। ये सूक्ष्म एंटीबॉडीज अत्यंत टिकाऊ होने के साथ-साथ कोरोना वायरस और उसके अल्फा, बीटा, गामा और डेल्टा वेरियंट के खिलाफ बहुत कारगर हैं। एक रिसर्चर मैथियास डोबलस्टीन ने कहा कि हमने जो सूक्ष्म एंटीबॉडीज विकसित की हैं, वे 95 डिग्री सेल्सियस तक का तापमान बर्दाश्त कर सकती हैं और उच्च तापमान से उनके कार्य पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। दूसरे शब्दों में ये शरीर में लंबे समय तक सक्रिय रह सकती हैं। नैनोबॉडीज के उत्पादन के लिए जर्मन रिसर्चरों ने दक्षिण अमेरिका में पाए जाने 'एल्पाका ऊंट का प्रयोग किया।