झाझडिय़ा के जज्बे से सोने-चांदी की झंकार
अरुण नैथानी

अक्सर हम देश की प्रतिभाओं को पहचान देने में बहुत देर कर देते हैं। जब देश के लोग टोक्यो ओलंपिक में भाला फेंक में सोने का पदक लाने वाले नीरज चोपड़ा का पलक-पांवड़े बिछाकर स्वागत कर रहे थे, तब दो बार पैरालंपिक में सोने का पदक जीतने वाले देवेंद्र झाझडिय़ा के बारे में बहुत कम लोगों को पता था। तब तीसरे पदक के लिये तैयारी कर रहे देवेंद्र झाझडिय़ा की तरफ बहुत कम लोगों का ध्यान गया। देवेंद्र ने उस वक्त देश के लिये पैरालंपिक में सोने का पदक जीता, जब देश में पैरा खेलों की चर्चा भी नहीं होती थी। तब खेलों की सुविधाएं भी नहीं थी और सरकारी मदद भी नहीं। पैरा एथलीटों को बुनियादी सुविधाएं नहीं मिलती थी। जब देवेंद्र ने देश के लिये पहला स्वर्ण पदक जीता तो पता नहीं था कि फिजियो व फिटनेस ट्रेनर क्या होता है। वर्ष 2004 में जब वह एथेंस के पैरालंपिक में भाग लेने जा रहा था तो खर्चे का जुगाड़ पिताजी ने किया। वे ही उसे हवाई अड्डे छोडऩे आये थे। तब पिता ने कहा था कि तुम कामयाबी हासिल करो तब ही सरकारें और संस्थाएं तुम्हारी प्रतिभा को पहचान देंगी। आज पिता नहीं हैं लेकिन पिता की बातें उसे सच होती दिख रही हैं। सरकारें अब पैरा खिलाडिय़ों पर ध्यान दे रही हैं और ईनाम भी बरस रहे हैं। हालांकि, सामान्य ओलंपिक और पैरालंपिक का भेद कुछ हद तक नजरों में कायम है। बहरहाल, जब हम नीरज चोपड़ा व देवेंद्र झाझडिय़ा की उपलब्धि की बात करते हैं तो याद रखना चाहिए कि देवेंद्र ने ये उपलब्धियां एक हाथ से हासिल की हैं।
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देश ने देवेंद्र की प्रतिभा का फिर पूरा सम्मान किया है। वर्ष 2005 में उन्हें खेल जगत का प्रतिष्ठित अर्जुन सम्मान मिला। फिर 2012 में तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने उनकी प्रतिभा का सम्मान करते हुए देश का चौथा सबसे बड़ा नागरिक सम्मान पद्मश्री दिया। यह सम्मान पाने वाले वे पहले भारतीय पैरा खिलाड़ी हैं।
देवेंद्र कहते हैं कि यदि हमें पैरा खेलों में अंतर्राष्ट्रीय स्तर की उपलब्धियां हासिल करनी हैं तो खेल विश्वविद्यालयों की स्थापना की जाए। ऐसे विश्वविद्यालय देश को उत्कृष्टता के उच्च स्तर तक ले जा सकते हैं। देश के पास प्रतिभाओं की कमी नहीं है। खिलाड़ी का स्थिर व शांत होकर लक्ष्य के प्रति केंद्रित होना भी बेहद जरूरी है। पैरालंपिक में भारतीय खिलाडिय़ों की उपलब्धि इस बार ऐतिहासिक रही। वह भी तब जब कोरोना संकट के कारण खिलाडिय़ों को अभ्यास के अवसर नहीं मिले। देवेंद्र ने यह कामयाबी कोविड की चपेट में आने के बावजूद हासिल की। उनके वर्ग के लिये वजन न बढऩे देना भी एक चुनौती थी। कोच ने कहा कि एक किलो वजन बढऩे पर वे पदक से वंचित हो जाएंगे। फिर वजन नियंत्रित करने के लिये देवेंद्र ने गैस का सिलेंडर उठाना शुरू किया और सात किलो वजन कम करके पदक पाने की दौड़ में शामिल हो सके। निस्संदेह, देवेंद्र की तपस्या पैरा खिलाडिय़ों के लिये ही नहीं बल्कि हर आम व्यक्ति के लिये प्रेरणा की मिसाल है।