नज़रिया: विकास की गुलाबी तस्वीरों का सच
योगेश मिश्रा
कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिए कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिए दुष्यंत कुमार की इन लाइनों को यदि देश के विकास के पैमाने या आईने में फ़िट करके देखेंगे बेहद निराशाजनक तस्वीर उभरती है. कोरोना काल में यदि हम सेहत के लिए सरकार की ओर से किये गये इंतज़ामात पर नज़र दौड़ायें तो यह साफ़ हो जाता है कि सरकारों के लिए हम महज़ एक आँकड़ा और वह भी केवल इकाई वाला आँकड़ा मात्र है. आज़ादी के चौहत्तर साल में हम देश के एक फ़ीसदी लोगों को भी अच्छी चिकित्सा सुविधा दे पाने की स्थिति में नहीं पहुँच पाये हैं. इसे सरकारों के ब्लेम गेम से ऊपर उठ कर देखा जाये तो बेहद शर्मिंदगी महसूस होगी. पर राजनीतिक ब्लेम गेम शर्मिंदगी महसूस न करने का रक्षा कवच बनता है. ऐसा महज़ इसलिए है क्योंकि भारत में हेल्थ पर जीडीपी का महज़ 1.28 फीसदी खर्च होता है. इसे 2025 तक 2.5 फीसदी करने की बात है. दूसरे कुछ देशों की तुलना करें तो अमेरिका अपनी जीडीपी का 17.07 फीसदी, जर्मनी 9.4, इटली 8.94 और चीन 4.98 फीसदी खर्च करते हैं.
जिसमें एलोपैथिक डॉक्टर 8 लाख और नर्स आदि 14 लाख हैं.डब्लूएचओ के अनुसार प्रति 10 हजार पर 44.5 डॉक्टर, नर्स और एएनएम हैं. स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार देश में कुल 8432 वेंटिलेटर हैं. यह सरकारी अस्पतालों का डेटा है.जबकि इंडस्ट्री सूत्रों के अनुसार देश में 40 हजार वेंटिलेटर हैं. अधिकांश प्राइवेट सेक्टर में हैं. वैसे, कोरोना काल में बड़ी तादाद में विदेशों से दान स्वरूप वेंटिलेटर मिले हैं. भारत में ऑक्सीजन का उत्पादन 7500 टन प्रतिदिन है. कुल ऑक्सीजन का 80 फीसदी स्टील प्लांट बनाते हैं. देश में दवाओं का देशी बाजार 41 बिलियन डॉलर का है. 2030 तक यह 130 बिलियन डॉलर का हो जाएगा. इस साल भारत से फार्मा एक्सपोर्ट 22.15 बिलियन डॉलर का रहा है. भारत में 3 हजार दवा कंपनियां और 10,500 निर्माण इकाईयां हैं. भारत में 344 दवाइयां प्रतिबंधित हैं.
नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2019 की रिपोर्ट के मुताबिक देश में कुल 26 हजार अस्पतालों में से करीब 21 हजार अस्पताल ग्रामीण क्षेत्रों में हैं . लेकिन अगर ग्रामीण भारत की मात्र 0.03 फीसदी आबादी को भी जरूरत पड़े तो सरकारी अस्पतालों में उसके लिए बिस्तर उपलब्ध नहीं होंगे.देशभर के सरकारी अस्पतालों में सात लाख से अधिक बिस्तर हैं .लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में बसने वाली देश की दो तिहाई आबादी के लिए बिस्तरों की संख्या महज 2.6 लाख ही है. देश के सभी निजी अस्पतालों, क्लीनिक, डायग्नोस्टिक सेंटर और कम्युनिटी सेंटर को भी शामिल कर लें तो कुल बिस्तरों की संख्या करीब 10 लाख ही है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक प्रत्येक एक हजार नागरिकों पर अमेरिका में 2.8, इटली में 3.4, चीन में 4.2, फ्रांस में 6.5 तथा दक्षिण कोरिया में 11.5 बिस्तर उपलब्ध हैं. भारत में प्रत्येक दस हजार लोगों पर करीब छह यानी 1700 मरीजों पर सिर्फ एक बेड उपलब्ध है. ग्रामीण अंचलों में तो करीब 3100 मरीजों पर महज एक बेड उपलब्ध है. बिहार में सोलह हजार लोगों पर केवल एक ही बेड उपलब्ध है. झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, मणिपुर, गुजरात आदि में भी करीब दो हजार लोगों पर सिर्फ एक बेड उपलब्ध है.
देश में करीब 26 हजार सरकारी अस्पताल हैं यानी 47 हजार लोगों पर एक सरकारी अस्पताल है. नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2019 की रिपोर्ट के मुताबिक सेना और रेलवे के अस्पतालों को मिलाकर देशभर में कुल 32 हजार सरकारी अस्पताल हैं. निजी अस्पतालों की संख्या 70 हजार के आसपास है. अरुणाचल प्रदेश, हिमाचल प्रदेश जैसे छोटे राज्यों में एक लाख आबादी पर 16 निजी व 12 सरकारी अस्पताल हैं .लेकिन देश की कुल 21 फीसदी आबादी वाले राज्यों दिल्ली, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात तथा आंध्र प्रदेश में अस्पतालों की संख्या प्रति एक लाख लोगों पर एक से भी कम है. दिल्ली में 1.54 लाख लोगों पर एक, महाराष्ट्र में औसतन 1.6 लाख लोगों पर एक, मध्य प्रदेश में 1.56 लाख तथा छत्तीसगढ़ में 1.19 लाख लोगों पर एक-एक, गुजरात में 1.37 लाख और आंध्र प्रदेश में प्रत्येक दो लाख लोगों पर एक-एक अस्पताल हैं. देशभर में करीब 1.17 लाख डॉक्टर हैं यानी लगभग 10700 लोगों पर एक डॉक्टर है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के नियमानुसार प्रत्येक एक हजार मरीजों पर एक डॉक्टर होना चाहिए लेकिन ग्रामीण भारत में तो यह औसत 26 हजार लोगों पर एक डॉक्टर का ही है.
ग्रामीण स्वास्थ्य सांख्यिकी 2019 के आंकड़ों के मुताबिक पश्चिम बंगाल में 6.2 करोड़ की ग्रामीण आबादी पर सरकारी अस्पतालों में 70 हजार लोगों के लिए एक डॉक्टर है. बिहार तथा झारखंड में भी ग्रामीण क्षेत्रों में 50 हजार लोगों के लिए एक डॉक्टर है.सरकारी अस्पतालों में रजिस्टर्ड नर्स और मिडवाइव्स की संख्या बीस लाख से अधिक है, जिसका औसत प्रत्येक 610 लोगों पर एक नर्स का है. इन्फ़्रास्ट्रक्चर को लेकर ही नहीं कोरोना महामारी के समय भी सरकार गलती पर गलती करती गयी. जब कोरोना की वैक्सीनों पर काम शुरू हुआ तब भारत सरकार ने कोई पहल नहीं की. वैक्सिन डेवलपमेंट में पैसा नहीं लगाया. इसके अलावा वैक्सीन के लिए एक भी एडवांस आर्डर नहीं दिया. वैक्सीन के लिए सहयोग के नाम पर सिर्फ आईसीएमआर ने भारत बायोटेक को इनक्टिवेटेड कोरोना वायरस दिया है. 2021 में वैक्सीनेशन शुरू किया गया. लेकिन कम्पनियों को वैक्सीनों के पर्याप्त ऑडर ही नहीं दिए गए.देश में प्रियॉरिटी ग्रुप के लोगों का पूरा वैक्सीनेशन भी नहीं हुआ तब भी 18 वर्ष से ऊपर के लोगों के लिए वैक्सीनेशन खोल दिया गया.
दूसरी लहर की तबाही झेलने के बाद भी अभी तक वैक्सीन इम्पोर्ट करने के आर्डर नहीं दिए गए. 2021 की शुरुआत में ही ढेरों वैज्ञानिकों ने दूसरी लहर की चेतावनी दी थी लेकिन उस पर सरकार ने ध्यान नहीं दिया.
स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन और ब्यूरोक्रेट्स ने जल्दबाजी में बिना किसी वैज्ञानिक आधार के कोरोना पर जीत का ऐलान कर दिया.सरकार ने जिस तरह पूर्ण अनलॉक किया और सब कुछ नॉर्मल होने का संदेश दिया गया, उससे जनता पूरी तरह लापरवाह हो गई. 2021 मार्च अप्रैल में कोरोना की दूसरी लहर जब सुनामी बन गई तब पता चला कि देश में न तो पर्याप्त ऑक्सीजन है और न रेमेडीसीवीर का स्टॉक. केंद्र सरकार ने 2020 में खुले हाथ ऑक्सीजन एक्सपोर्ट की लेकिन अपने देश के लिए कोई इंतजाम नहीं किये.
कोरोना की दूसरी लहर की चेतावनी के बावजूद कुम्भ का आयोजन करने की इजाजत दी गई. पांच राज्यों में चुनाव कराए गए. प्रधानमंत्री ने जनता को सचेत करने की बजाय खुद बड़ी बड़ी रैलियां कीं.सरकार अपने बनाये कोरोना प्रोटोकॉल को बार बार बदलती रही.कोरोना से निपटने, लोगों को जानकारी देने में स्वास्थ्य मंत्रालय, आईसीएमआर, नीति आयोग, टास्क फोर्स वगैरह तमाम ग्रुप्स अलग अलग बातें बोलते रहे हैं. यह आदत ग़ैर कोरोना काल में भी हर राजनीतिक दल में देखी जा सकती है. जब उसकी सरकार होती है तो वह ऐसा दृश्य पेश करता है मानों उसकी सरकार के कार्यकाल में देश सोने की चिड़िया हो गया. जब उसकी सरकार नहीं होती है तब उसे देश रसातल में जाते हुए दिखता व दिखाता है. यह देश का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है कि हर राजनीतिक दल की सरकार देश नहीं चलाती. वह केवल अपना एजेंडा चलाती है . (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं . यह लेखक के निजी विचार हैं.)