विचार,सिद्धांत नहीं राजनैतिक भविष्य का सवाल?

विचार,सिद्धांत नहीं राजनैतिक भविष्य का सवाल?
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 तनवीर जाफ़री
स्वर्गीय राजीव गांधी के प्रधानमंत्री काल में 1985 में भारतीय संसद ने 52वें संविधान संशोधन के द्वारा ‘दल-बदल विरोधी क़ानून’ पारित किया था. इस क़ानून को बनाने का असल मक़सद  यही था कि भारतीय राजनीति में व्याप्त ‘दल-बदल’ जैसी अवसरवादी व स्वार्थी राजनीति को समाप्त किया जा सके. इस क़ानून से पहले जो एक दो सांसद या विधायक अपने राजनैतिक स्वार्थवश दल बदल किया करते थे वे अब इस क़ानून के अनुसार अपनी सदस्यता से अयोग्य ठहराए जाएंगे. परन्तु इसी दल-बदल विरोधी  क़ानून के अंतर्गत यदि कम-से-कम दो-तिहाई विधायक विलय के पक्ष में हों तो किसी भी राजनीतिक दल को किसी दूसरे राजनीतिक दल में विलय करने की अनुमति दी गई है. ऐसे करने पर न तो दल-बदल रहे सदस्यों पर यह  क़ानून लागू होगा और न ही राजनीतिक दल पर. इस प्रकार के 'वृहद दलबदल' अर्थात दो-तिहाई सदस्यों के इधर उधर से न तो उपचुनाव की ज़रुरत होगी न ही देश पर उपचुनाव के ख़र्च जैसा अतिरिक्त बोझ पड़ेगा. परन्तु अफ़सोस यह कि नेताओं में दल बदल की प्रवृति शायद पहले से कम होने के बजाए और बढ़ गयी हैं.

इस तरह के दलबदल के बाद एक सवाल हमेशा ही आम लोगों के ज़हन में उठता है कि आख़िर इधर उधर आने जाने वाले नेता अपनी कोई राजनैतिक सोच या विचारधारा भी रखते हैं या नहीं ? यहाँ तक कि परस्पर धुर विरोधी विचारधारा के लोगों का एक दूसरे दलों में शामिल हो जाना और कभी फिर वापस पुनः अपने पहले के ही दल में चले जाना,ऐसे हद दर्जे के अवसरवादी नेताओं के प्रति आख़िर क्या राय क़ायम की जानी चाहिए? याद कीजिये गत वर्ष मार्च के महीने में जब ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया के समर्थक 22 कांग्रेस विधायक भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए थे और कांग्रेस की कमलनाथ सरकार गिर गई थी. कमलनाथ को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा था. और इन्हीं 22 कांग्रेस विधायकों के समर्थन से  23 मार्च 2020 को मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में भाजपा सरकार बन गयी थी. सीधे शब्दों में यूँ समझें कि 230 सदस्यों की मध्य प्रदेश विधान सभा की जनता ने कांग्रेस को 114 सीटों पर जीत दिला कर राज्य में कांग्रेस के नेतृत्व में एक धर्म निरपेक्ष सरकार चलाने के पक्ष में जनमत तो ज़रूर दिया था परन्तु मात्र 22 विधायकों की मौक़ा परस्त सोच ने राज्य की जनता के इरादों व विश्वास पर पानी फेर दिया. ज़ाहिर है चूंकि 114 में से 22 विधायकों का दलबदल करना चूँकि संख्या में दो तिहाई से कम है और  ‘दल-बदल विरोधी  क़ानून ’ के अंतर्गत मान्य नहीं लिहाज़ा इन सभी सीटों पर सरकार को उपचुनाव कराने पड़े.  इन दलबदलू मौक़ा परस्तों के चलते देश की जनता पर उपचुनावों के ख़र्च का भारी भरकम बोझ पड़ा.

यह सिलसिला और भी कई राज्यों में चलता रहता है. पिछले दिनों बंगाल में चुनाव पूर्व कितनी बड़ी संख्या में तृणमूल कांग्रेस के सांसद,विधायकों तथा दूसरे बड़े नेताओं ने तृणमूल कांग्रेस छोड़ भाजपा का दामन थामा. बड़ा आश्चर्य हुआ था उस समय कि जो भाजपा जिस तृणमूल कांग्रेस को भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी,सिंडिकेट चलाने वाली,मुस्लिम तुष्टिकरण करने,'बांग्लादेशी घुसपैठियों' को संरक्षण देने यहां तक कि जय श्री राम के नारों का विरोध करने वाली पार्टी बताया करती थी उसी भाजपा में शामिल होने तृणमूल कांग्रेस के अनेक प्रमुख नेता कुछ इस तरह से भाग रहे थे जैसे डूबते हुए जहाज़ से चूहों में भगदड़ मच जाती है. बहरहाल बंगाल में चुनाव संपन्न हुए,परिणाम वह नहीं आ सका जिसकी उम्मीद बंगाल से दूर दराज़ बैठे लोग बिकाऊ मीडिया के झूठे प्रोपेगण्डे की वजह से कर रहे थे. भाजपा व आर एस एस ने शायद इतने धन-बल से अब तक बंगाल के अतिरिक्त किसी भी राज्य का चुनाव नहीं लड़ा. और कोई भी धर्म-जाति का कार्ड ऐसा नहीं बचा जो बंगाल चुनाव में नहीं खेला गया. परन्तु ममता बनर्जी अपनी सीट हारने के बावजूद तृणमूल कांग्रेस को विधान सभा की कुल 292 सीटों में 213 सीटें जिताने में सफल रहीं जबकि 'अबकी बार दो सौ पार ' का दंभ भरने वाली भाजपा 77 सीटों पर ही सिमट कर रह गयी.  और ममता बनर्जी सत्ता की हैट्रिक बनाने में सफल रहीं . 

बंगाल विधानसभा चुनावों के फ़ौरन बाद राज्य में हिंसा का भी दुर्भाग्यपूर्ण दौर चला. यहां तक कि राज्यपाल व मुख्य मंत्री को स्वयं कई हिंसाग्रस्त क्षेत्रों का दौरा करना पड़ा. उस समय भी भाजपा ने  तृणमूल कांग्रेस को हिंसा भड़काने का सीधे तौर पर ज़िम्मेदार ठहराया. इसी अभूतपूर्व राजनैतिक उथल पुथल का सामना करने वाले राज्य से अब यह ख़बरें आनी शुरू हुई हैं कि बड़ी संख्या में भाजपाई विधायक व अन्य नेता तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो सकते हैं. इनमें अधिकांश नेता तृणमूल कांग्रेस में 'घर वापसी ' करेंगे. इसकी शुरुआत गत दिवस तब हुई जब भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष मुकुल रॉय ने अपने पुत्र व पूर्व विधायक शुभ्रांशु रॉय के साथ कोलकता स्थित तृणमूल भवन में ममता बनर्जी की उपस्थिति में चार वर्षों तक भाजपा में रहने के बाद 'घर वापसी ' की. यह वही मुकुल रॉय हैं जिन्हें भाजपा नारदा स्टिंग मामले में आरोपी बताती थी परन्तु भाजपा में शामिल होने के बाद इन्होंने गोया 'गंगा स्नान' कर राहत की सांस ली थी. ख़बरों के अनुसार विधान सभा में विपक्ष का नेता न बनाए जाने तथा उनके मुक़ाबले भाजपा में सुवेंदु अधिकारी को अधिक अहमियत दिए जाने जैसे मामलों से दुखी होकर मुकुल रॉय ने अपनी पुरानी पार्टी में वापसी का फ़ैसला किया.

क्या बंगाल व देश की जनता को यह पूछने का हक़ है कि मुकुल रॉय व उन जैसे वे तमाम नेता जो भविष्य में बड़ी संख्या में भाजपा छोड़ तृणमूल कांग्रेस में आने के इच्छुक हैं वे चुनाव पूर्व तथा चुनवोपरांत राज्य में होने वाली हिंसा में अपनी क्या भूमिका या मत रखते थे ? जिस समय भाजपा ममता को राम विरोधी व मुस्लिम हितैषी बता रही थी उस समय यही 'घर वापसी ' के इच्छुक नेता भाजपा के सुर से अपना सुर मिला रहे थे और राज्य में भाजपा की ध्रुवीकरण की मुहिम का हिस्सा थे ? आज आख़िर किस मुंह से यह लोग तृणमूल कांग्रेस में वापस आना चाह रहे हैं? जबकि ममता बनर्जी व तृणमूल कांग्रेस तो वही है जोकि भाजपा के आरोपों के अनुसार भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी,सिंडिकेट चलाने वाली,मुस्लिम तुष्टिकरण करने,'बांग्लादेशी घुसपैठियों' को संरक्षण देने तथा जय श्री राम के नारों का विरोध करने वाली पार्टी  है ?

पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के एक क़द्दावर कांग्रेस नेता स्वर्गीय जितेंद्र प्रसाद के पुत्र जतिन प्रसाद ने भाजपा की सदस्य्ता ग्रहण कर ली. इनकी भी क्या कोई सोच या विचारधारा है या उज्जवल राजनैतिक भविष्य ही मुख्य ध्येय है? देश की जनता ख़ासकर मतदाताओं को यह सोचना चाहिए कि जो नेता विचारों व सिद्धांतों की नहीं बल्कि जनता की राय जाने  बिना अपने उज्जवल राजनैतिक भविष्य की ख़ातिर दल बदल जैसे फ़ैसले करते हैं और धुर विरोधी विचारधारा व सोच रखने वाले दलों में आवागमन करते हैं ऐसे मौक़ापरस्त नेता वास्तव में वे जनता व देश के लिए कितने हितकारी व कितने भरोसे के लाएक़ हैं. (यह लेखक के निजी विचार हैं.)

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