नज़रिया: आतंकवाद के सहारे तुष्टिकरण की सियासत का फलसफा

अजय कुमार
उत्तर प्रदेश में आतंकवाद पर सियासत सियापा कोई नई बात नहीं है. यह सब तुष्टिकरण की राजनीति का फलसफा है जो समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांगे्रस जैसे कुछ दलों ने यह धारणा पाल रखी है कि आतंकवादियों के पक्ष मंे खड़े होकर प्रदेश के मुसलमानों का दिल जीता जा सकता है. यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि एक तरफ तो हमें बताया-पढ़ाया जाता है कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता है तो दूसरी ओर मुस्लिम वोट बैंक की सियासत करने वाले तमाम राजनेता अपने विवादास्पद बयानों से यह ढिंढोरा पीटने का कोई मौका नहीं छोड़ते हैं कि दरअसल आतंकवादी मुसलमान ही होते हैं. एक तरफ से उक्त दल आतंकवाद का ‘रंग’ बताकर एक पूरी कौम को ही कटघरे में खड़ा कर देते हैं, जबकि हकीकत यही है कि चंद सिरफिरे नेताओं और कटटरपंथियों के अलावा कोई दूसरा आतंकवादियों के पक्ष में खड़ा नहीं दिखाई देता है. इसमें खासकर मुलसमानांे की भी बड़ी आबादी है, जिसे इस बात का मलाल रहता है कि चंद दहशतगर्दाे के चलते इस्लाम और मुसलमान दोनों बदमान होते हैं. इसी लिए देश-प्रदेश में आतंकवाद के खिलाफ कुछ सियासतदारों के अलावा कभी कोई मुखर आवाज नहीं उठती है.खासकर समाजवादी पार्टी को आतंकवादियों के खिलाफ किसी तरह की पुलिसिया कार्रवाई कभी रास नहीं आती है. न जाने क्यों जब समाजवादी पार्टी आतंकवादियों के पक्ष में खड़ी होती है तो बसपा को अपना ‘गेम’ खराब होता दिखने लगता है.
बहरहाल, आतंकवाद निरोधक दस्ते की ओर से लखनऊ में अलकायदा के दो आतंकवादियों की गिरफ्तारी पर सपा नेता अखिलेश यादव ने आतंकियों की तरफदारी करके सियासी हलचल तो बढ़ा ही दी है. यह समय बताएगा कि उनके इस बयान का उन्हंे कितना फायदा या नुकसान उठाना पड़ेगा, लेकिन अच्छा होता कि अखिलेश यादव यह भी बता देते कि उनका पुलिस पर भरोसा नहीं है तो इसके पीछे आधार क्या है. क्योंकि पुलिस ने न केवल आतंकवादियों को पकड़ा है बल्कि भारी मात्रा में विस्फोटक सामग्री और हथियार भी बरामए किए हैं. संभवता अखिलेश गोलमाले शब्दों में ह कहना चाहते हैं कि उन्हें भरोसा उन पर है, जिन्हें आतंकी हमले की साजिश रचने के आरोप में गिरफ्तार किया गया अथवा जो उन्हें बेगुनाह बता रहे हैं?अखिलेश कुछ भी बोल सकते हैं,लेकिन अखिलेश को आईना दिखाने का काम आतंकवाद के आरोप में पकड़े गए मिनहाज के पिता सिराज ने किया. पहले तो मीडिया से बात करने से बच रहे सिराज कुछ भी नहीं बोले,लेकिन जब बोले तो दूध का दूध,पानी का पानी कर दिया. पिता सिराज सदमें में हैं कि उनका बेटा आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त था. ऐसा होना किसी भी बाप के लिए स्वभाविक भी है,लेकिन सिराज ने कहा कि आतंकवादी विरोधी दस्ते एटीएस की कार्रवाई को लेकर पूरी तरह से संतुष्ट हॅू.
क्या यह अजीब नहीं कि जब आतंकवाद के आरोप में पकड़े गए एक आरोपी मिनहाज के पिता एसटीएस की कार्रवाई पर संतोष जता रहे हैं तब अखिलेश यादव क्यों सियापा कर रहे हैं. वह दोबारा सता में आना चाहते हैं तो यह उनका और उनकी पार्टी का लोकतांत्रिक हक है, उन्हें इससे कोई रोक नहीं सकता है, परंतु सत्ता हासिल करने के लिए उन्हें प्रदेश और देश को गुमराह तो नहीं किया जाना चाहिए. अखिलेश को यूपी पुलिस पर भरोसा नहीं है तो वह यह भी साफ कर देते कि यदि उनकी सरकार बनेगी तो वह कानून व्यवस्था उत्तर प्रदेश पुलिस की जगह किससे दिखवायेगें? जब पुलिस पर भरोसा ही नहीं है तो फिर उन्हें अपनी पुलिस सुरक्षा सबसे पहले वापस कर देना चाहिए, लेकिन सियासत में तो ‘मीठा-मीठा हप, कड़वा-कड़वा थू’ की परिपाटी चलती है. अखिलेश को यह भी बताना चाहिए कि क्या पुलिस उसी समय तक भरोसेमंद थी, जब वह मुख्यमंत्री थे? क्या वह यह चाहते हैं कि पुलिस को आतंकियों को गिरफ्तार नहीं करना चाहिए या फिर उनसे पूछकर ही उनके खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए थी? पता नहीं वह जनता को क्या संदेश देना चाहते हैं, लेकिन उनका बयान गैर जिम्मेदारी की पराकाष्ठा है. समाजवादी पार्टी के प्रमुख हों या फिर अन्य कोई नेता यदि वह आतंकवादियों के साथ खड़ा होता है तो निश्चित ही उसका यह पाप देशद्रोह से कम नहीं है. अखिलेश को यदि लगता है कि योगी सरकार को हर समय आरोपों के कटघरें में खड़ा करके वह सत्ता में वापसी कर सकते हैं तो यह उनका भ्रम है,जितना समझदार अखिलेश यादव हैं उससे कम समझदार प्रदेश की जनता भी नहीं है. फिर अखिलेश तो यूटर्न भी लेने में माहिर हैं. यही अखिलेश थे जो चंद दिनों पूर्व भारत के वैज्ञानिकों द्वारा तैयार की गई कोविड वैक्सीन को बीजेपी की वैक्सीन बता कर मजाक उड़ाने और जनता को भड़काने का कम कर रहे थे,लेकिन चुपचाप जाकर वैक्सीन भी लगावा लेेते हैं.
खैर,अखिलेश यादव की तरह से बसपा सुप्रीमों मायावती ने बेशर्मी तो नहीं दिखाई,लेकिन आतंकवादियों के समर्थन में खड़ा दिखने का उन्होंने दूसरा रास्ता निकाला.आतंकवादियों की गिरफ्तारी पर माया ने अपनी ओर से तो कुछ नहंीं कहा, बल्कि इसके उलट सवाल यह खड़ा कर दिया कि इस तरह की कार्रवाई से जनता के मन में संदेह पैदा होता है. अतः सरकार कोई ऐसी कार्रवाई नहीं करे जिससे जनता में बेचैनी और बढ़े. बहरहाल, बसपा सुप्रीमों को यह भी स्पष्ट कर देना चाहिए था कि क्या चुनाव करीब हों तो पुलिस को आतंकियों की पकड़-धकड़ करने के बजाय हाथ पर हाथ रखकर बैठ जाना चाहिए और चुनाव खत्म होने का इंतजार करना चाहिए? क्या उन्होंने भी सत्ता में रहते ऐसा किया होगा ? यह सच है कि उत्तर प्रदेश में चुनाव करीब हैं, लेकिन ऐसी कल्पना करना कठिन है कि वोट बैंक की राजनीति के तहत नेता आतंकियों की पैरवी और पुलिस को हतोत्साहित करते दिखें. इस तरह की ओछी सियासत करने वाले मायावती और अखिलेश को नहीं भूलना चाहिए कि किसी को आतंकवाद के आरोप में गिरफ्तार करके अदालत से सजा दिलाना आसान प्रक्रिया नहीं होती है. बिना कोर्ट-कचहरी के यदि हमारे नेता किसी की बेगुनाही का ‘फैसला’ सुनाने लगेगें तो न्यायिक व्यवस्था की जरूरत ही क्या रह जाएगीं ? क्या आतंकवाद को धार्मिक रंग देकर उससे लड़ा जा सकता है? अखिलेश और मायावती के जैसे बयान सामने आए, उसके बाद मुस्लिम तुष्टीकरण की ताक में रहने वाले नेताओं की ओर से भी आतंकवादियों के पक्ष मंे प्रतिक्रिया आनी शुरू हो गई हैं. खासकर रिहाई मंच ने सवाल उठाना शुरू कर दिया है. मिनहाज की गिरफ्तारी के तुरंत बाद रिहाई मंच के मो0 शोएब ने एटीएस की कार्रवाई पर सवाल उठाते हुए कहा है कि 2022 के चुनाव आ रहे हैं और हमेशा देखा गया है कि चुनाव से पहले इस तरह की घटनाएं होती हैं,जिन लोगों की आरडीएक्स,एके-47 व हैंड गे्रनेड के साथ गिरफ्तारी दिखाई गई थी उनके खिलाफ पुलिस,एसटीएफ या एटीएम अदालत में सबूत नहीं दे सकी. रिहाई मंच गिरफ्तार आतंकियों को कानूनी सहायता प्रदान करने की भी बात कह रहा है, जो भी हो, इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि हमारे देश में नेताओं का एक वर्ग ऐसा है, जो हर मसले पर सबसे पहले यह देखता है कि उसके बयान से किसी समुदाय विशेष के तुष्टीकरण में मदद मिलेगी या नहीं? इसी लिए चाहें मुम्बई का 26/11 का आतंकवादी हमला हो या फिर दिल्ली का बटाला हाउस कांड, यूपी में हुए सीरियल बम ब्लास्ट कांड, अथवा पाकिस्तान के खिलाफ सर्जिकल स्टाइक सब पर राजनीति शुरू हो जाती है.
त्ुष्टिकरण की सियासत के चलते ही कभी लव जेहाद के समर्थन में गैर भाजपाई नेता उतर आते हैं तो कभी अयोध्या विवाद में एक पक्ष बन जाते थे,जबकि मामला कोर्ट में चल रहा था. 1984 के शाहबानों केस को कौन भूल सकता है जब एक मुस्लिम विधवा को मुआवजा देने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश को कांगे्रस की राजीव गांधी सरकार ने चरमपंथियों के दबाव में आकर नया कानून बना कर पलट दिया था,जिसके चलते शाहबानों को मुआवजा नहीं मिल पाया था. हाल ही में उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से जनसंख्या नीति जारी होने के बाद भी यही क्रम देखने को मिल रहा है. जनसख्या नीति के खिलाफ इस तरह जहर उगला जा रहा है मानों इसका मकसद मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाना है. आखिर इस निष्कर्ष पर कैसे पहुंचा गया? क्या यह जनसंख्या नीति केवल मुस्लिम समुदाय पर लागू होगी या फिर इस नीति के विरोधियों की ओर से यह मान लिया गया कि यही वह समुदाय है, जिसे परिवार नियोजन की कोई फिक्र नहीं? वास्तव में यही वह गैर जिम्मेदाराना और तुष्टीकरण की गंदी राजनीति है, जो तमाम गंभीर समस्याओं के समाधान में बाधा बनकर खड़ी होती है
लब्बोलुआब यह है कि आज के नेताओं के पास जमीन से जुड़े मुददे रह नहीं गए हैं. वर्षो बीत गए प्रदेश में कोई ऐसा बड़ा जन-आंदोलन नहीं खड़ा हो पाया है जिससे प्रदेश की जनता बढ़-चढ़कर भागीदारी कर सके. सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव का तो ‘जन्म’ ही आंदोलन से हुआ था. न जाने कितने आंदोलनों की उन्होंने अगुवाई की होगी,लेकिन उन्हीं के पुत्र अखिलेश यादव का आंदोलन से दूर-दूर का नाता नहीं लगता है.जबकि इस समय जनता से जुड़ी समस्याओं की भरमार है. मंहगाई चरम पर है. पेट्रोल-डीजल के दाम बेतहाशा बढ़ते जा रहे हैं. सड़कों का बुरा हाल है. अपराध के मामले भी बढ़ रहे हैं. (यह लेखक के निजी विचार हैं.)