OPINION: सपनों की ओर दौड़ लगाता देश
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संजय द्विवेदी
1947 के बाद स्वदेशी, स्वावलंबन, आत्मनिर्भरता, भारतीय भाषाओं और भारतीय जन के सम्मान का जो समय प्रारंभ होना था वह नहीं हो पाया. लोकसेवक, जनसेवक शासक बन बैठे और उनकी मानसिकता वही थी, जो विरासत में मिली थी. इसने देश के स्वाभिमान को जगने नहीं दिया.
निश्चित यह सब कुछ इतना आसान नहीं था. नौकरशाही की जड़ता, राजनीति के सीमित पांच साला लक्ष्य, समाज में फैली गैरबराबरी और असमानता, क्षेत्रीयता,जातीयता की भावनाओं में बंटा समाज लक्ष्यों में बाधक था और आज भी कमोबेश ये संकट बने हुए हैं. भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय मंच पर आगमन के साथ सारा कुछ बदल गया है. आम आदमी सरकारी प्रयासों के साथ देश के व्यापक लोकतंत्रीकरण में सहायक बना है. भारत सड़क, रेलवे, बंदरगाह और हवाई अड्डे जैसे बुनियादी ढांचे के निर्माण के साथ साफ्ट पावर में भी अग्रणी बना है. स्थान-स्थान पर भारतीय प्रतिभाओं को खोजकर उन्हें सम्मानित करने का क्रम भी जारी है जिससे भारत की आत्मा जाग रही है. आप पिछले कुछ सालों में पद्म सम्मानों की सूची का अवलोकन करें तो आपका मन गर्व से भर जाएगा और एक नए भारत को बनता हुआ देख पाएंगें. दिल्ली से निकल देश की संभावनाएं छोटे शहरों और गांवों तक ले जाने के व्यापक प्रयास सब तरफ दिखने लगे हैं. छोटे शहर अपनी संभावनाओं को तलाश रहे हैं, गांव संसाधनों का केंद्र बनने के लिए व्यग्र हैं. नीतिगत फैसलों में गति लाकर देश का चेहरा बदलने के ये प्रयास साधारण नहीं हैं. प्रधानमंत्री इस परिघटना को बहुत उम्मीद से देखते हैं. श्री नरेंद्र मोदी कहते हैं कि- ‘भारत ने आज जो कुछ हासिल किया है, वह हमारे लोकतंत्र की ताकत, हमारे संस्थानों की ताकत की वजह से संभव हो पाया है. दुनिया देख सकती है कि भारत में लोकतांत्रिक ढंग से चुनी हुयी सरकार निर्णायक फैसले ले रही है. हमने दुनिया को दिखा दिया है लोकतंत्र कितना फलदायी हो सकता है.”
परिर्वतन को रोका नहीं जा सकता. यह नैसर्गिक है. किंतु परिर्वतन या बदलाव की दिशा जरूर तय की जा सकती है. सकारात्मक दृष्टिकोण से किए गए काम हमेशा परिणाम देते हैं और उनसे समाज को दिशा मिलती है. बहुत पुरातन और गौरवशाली राष्ट्र होने के बाद भी हमें अपनी कमियों से लगातार आक्रमण, गुलामी और संघर्ष का समय देखना पड़ा. बावजूद इसके ‘चिति’ स्वतंत्र रही. राज और समाज की दूरी ने समाज के आत्मसम्मान और स्वाभिमान को चुकने नहीं दिया. अत्याचार और विदेशी शासकों के दमन के विरूद्ध भारत का संघर्ष जारी रहा. 1947 के बाद स्वदेशी, स्वावलंबन, आत्मनिर्भरता, भारतीय भाषाओं और भारतीय जन के सम्मान का जो समय प्रारंभ होना था वह नहीं हो पाया. लोकसेवक, जनसेवक शासक बन बैठे और उनकी मानसिकता वही थी, जो विरासत में मिली थी. इसने देश के स्वाभिमान को जगने नहीं दिया. लंबे समय के बाद अच्छे काम पर भरोसा करते हुए जनमानस का जागरण हुआ है. अपने वर्तमान नेतृत्व के प्रति समाज का असंदिग्ध विश्वास है और उनकी क्षमताओं पर नाज. आजादी के बाद हर सरकार और उसके प्रधान ने निश्चित ही कुछ जोड़ा है. देश ने प्रगति और विकास के नए सोपान तय किए हैं. किंतु भ्रष्टाचार, दिशाहीनता, राजनीतिक निर्णयों में हानि-लाभ के विचार ने उसके संपूर्ण लाभ से वंचित किया. सामान्य जन के विकास योजनाओं के एक रुपए में पचासी पैसे के डूब जाने की कहानियां हमने खूब सुनी हैं. तत्कालीन प्रधानमंत्री की विवशता भी प्रकट होती है कि वे चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि भ्रष्टाचार का घुन अंदर तक प्रवेश कर चुका है. डिजिटलीकरण ने इस पर न सिर्फ अंकुश लगाया है, वरन लोगों को राहत दी है. सुशासन के लक्ष्य इसी पारदर्शिता से पाए जा सकते हैं. 2015 से 2017 के बीच 50 करोड़ बैंक खाते खोले गए हैं. भारत आज यूरोप और अमेरीका की तुलना में 11 गुना ज्यादा डिजिटल पेमेंट करता है. आयुष्मान भारत ने 31 करोड़ भारतीयों के लिए मुफ्त कैंसर जांच की व्यवस्था सुनिश्चित की है. यह एक साधारण आंकड़ा भर नहीं है. नई व्यवस्था में स्वयं सहायता समूहों में लगभग 9 करोड़ महिलाओं को 32 अरब डालर (2.6 लाख करोड़ रूपए) की उधार सुविधा दी जा रही है. ऐसे अनेक उदाहरण हमें गर्व से भर देते हैं. इसी संदर्भ में गृहमंत्री अमित शाह कहते हैं- “2014 के पहले देश के 60 करोड़ लोग सपना नहीं देख सकते थे. मोदीजी ने उनके जीवन में उम्मीद जगाई है और उनमें महत्वाकांक्षाएं पैदा की हैं. भारत जब आजादी का शताब्दी उत्सव मना रहा होगा तो वह हर क्षेत्र में नंबर-1 होगा.”
उम्मीदें जगाता नया भारत-
नया भारत अपने सपनों में रंग भरने के लिए चल पड़ा है. भारत सरकार की विकास योजनाओं और उसके संकल्पों का चतुर्दिक असर दिखने लगा है. कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, अटक से कटक तक उत्साह से भरे हिंदुस्तानी दिखने लगे हैं. जाति, पंथ, भाषावाद, क्षेत्रीयता की बाधाओं को तोड़ता नया भारत बुलंदियों की ओर है. नीति आयोग के पूर्व सीईओ अमिताभ कांत की सुनें तो “2070 तक हम बाकी दुनिया को 20-30 प्रतिशत वर्कफोर्स उपलब्ध करवा सकते हैं और यह बड़ा मौका है.” ऐसे अनेक विचार भारत की संभावनों को बता रहे हैं. अपनी अनेक जटिल समस्याओं से जूझता, उनके समाधान खोजता भारत अपना पुर्नअविष्कार कर रहा है. जड़ों से जुड़े रहकर भी वह वैश्विक बनना चाहता है. उसकी सोच और यात्रा ग्लोबल नागरिक गढ़ने की है. यह वैश्चिक चेतना ही उसे समावेशी, सरोकारी, आत्मीय और लोकतांत्रिक बना रही है. लोगों का स्वीकार और उनके सुख का विस्तार भारत की संस्कृति रही है. वह अतिथि देवो भवः को मानता है और आंक्राताओं का प्रतिकार भी करना चाहता है. अपनी परंपरा से जुड़कर वैश्विक सुख, शांति और साफ्टपावर का केंद्र भी बनना चाहता है. हमारे प्रधानमंत्री इसीलिए भरोसे से यह कह पाते हैं कि “यह युद्ध का समय नहीं है.” यह समय देश की रचनात्मकता, विश्वसनीयता और क्षमता को प्रकट करने वाला है. यही समय भारत का भी है और भारतबोध का भी. आइए इन सपनों को पूरा करने के लिए भागीरथ प्रयत्नों में अपना भी योगदान सुनिश्चित करें. हमारे छोटे किंतु समन्वित प्रयासों से भारत मां फिर से जगद्गुरु के आसन पर आसीन होंगीं और अपने आशीष की हम सब पर वर्षा करेंगीं.
-(लेखक भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली के महानिदेशक हैं.)