Loksabha Election 2024: 2024 के लिए पकने लगी विपक्ष की खिचड़ी

-राजेश माहेश्वरी
विपक्ष 2021 में ही 2024 के आम चुनाव की तैयारियों में जुट गया है. विपक्ष की अगुवाई फिलवक्त कांग्रेस पार्टी कर रही है. वहीं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की भी राजनीतिक सक्रियता देखते ही बन रही है. बंगाल में जीत के बाद दिल्ली में पांच दिन रूककर ममता ने विपक्षी दलों के नेताओं से मेल-मुलाकात कर अगले आम चुनाव की तैयारियों को रोडमैप तैयार किया. ऐसा नहीं है कि देश में पहली बार विपक्षी एकता की मुहिम शुरू हुई है. इससे पहले भी विपक्ष की एकता और तीसरे मोर्चे गठन के प्रयास होते रहे हैं. लेकिन चुनाव आते-आते सभी राजनीतिक दल अपने नफे-नुकसान के हिसाब से चुनाव मैदान में उतर जाते हैं. लेकिन इस बार तीसरे मोर्चे की बजाय विपक्षी एकता की बात की जा रही है. इसलिए राजनीतिक हिसाब से इस बात और मुहिम का वनज बढ़ जाता है, लेकिन विभिन्न विचारधाराओं और व्यक्तिगत स्वार्थों में बंटे राजनीतिक दल एक छतरी के नीचे आ पाएंगे, ये बड़ा सवाल है?
बीते 20 अगस्त को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के आमंत्रण पर गत दिवस आभासी माध्यम के जरिये विपक्षी दलों की बैठक में 19 दलों के नेतागण हुए शामिल हुए. उनमें शरद पवार, ममता बैनर्जी, उद्धव ठाकरे और एम. के. स्टालिन ही प्रमुख कहे जा सकते हैं. हालाँकि जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री डा. फारुख अब्दुल्ला के अलावा सीपीएम नेता सीताराम येचुरी भी बैठक का हिस्सा बने लेकिन राष्ट्रीय राजनीति को दिशा देने वाले राज्य उ.प्र की प्रमुख विपक्षी पार्टियों में से न बसपा आई और न ही सपा.
दिल्ली के बाद पंजाब में बड़ी राजनीतिक ताकर बनकर उभर रही आम आदमी पार्टी ने जानकारी दी कि उसको बैठक का न्यौता ही नहीं दिया गया. बैठक में केंद्र सरकार के विरुद्ध विपक्षी लामबंदी पर सहमति बनने के साथ ही आगामी 20 से 30 सितम्बर तक पूरे देश में संयुक्त रूप से आन्दोलन किया जाएगा. बैठक का असली उद्देश्य 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए विपक्षी एकता की बुनियाद रखना बताया गया. बीते दिनों ममता बैनर्जी ने दिल्ली यात्रा के दौरान सोनिया गंाधी और शरद पवार सहित अन्य विपक्षी दलों से भेंट करते हुए भाजपा विरोधी मोर्चा बनाने की पहल की थी. उनके पहले शरद पवार भी एक बैठक कर चुके थे किन्तु उसमें कांग्रेस मौजूद नहीं थी.
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देश की मतदाताओं को अपने पक्ष में लाने के लिए विपक्ष पूरी तरह से एजेंडा विहीन नजर आता है. भारत में 80 से 85 फीसदी तेल आयात किया जाता है. क्या विपक्ष के सत्ता में आने पर भारत में तेल के कुएं खोजे जाएंगे? अगर विपक्ष पेट्रोल-डीजल पर टैक्स घटा भी देती है, तो सरकारी योजनाओं के लिए धन कहां से आएगा? मोदी सरकार वैसे ही पेट्रोल-डीजल के बढ़े हुए दामों को यूपीए सरकार के दौरान जारी किए गए ऑयल बॉन्ड का नतीजा बताती है.
वहीं विपक्षी दलों में आपसी मतभेद और मनभेद भी किसी से छिपे नहीं है. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने हाल ही में महिला कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सुष्मिता देव को अपनी पार्टी में शामिल कर लिया जबकि पूर्व राष्ट्रपति स्व.प्रणव मुखर्जी के पुत्र अभिजीत पहले ही तृणमूल का दामन थाम चुके थे. इसी तरह शरद पवार महाराष्ट्र में कांग्रेस को शायद ही पनपने देंगे. जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस का गठबंधन पहले भी होता रहा है लेकिन उसकी हैसियत जूनियर भागीदार की ही है.
राष्ट्रीय से क्षेत्रीय पार्टी में तब्दील होते जा रहे वामपंथी दलों का वैचारिक और मैदानी असर भी अब पहले जैसा नहीं रहा. सोनिया गांधी की बैठक में शरीक हुईं शेष विपक्षी पार्टियों में से एक-दो को छोड़कर बाकी कांग्रेस की सहायक बनने की बजाय बोझ बन जाएं तो आश्चर्य नहीं होगा. तेलंगाना से टी.आर.एस, आंध्र से वाई.एस.आर कांग्रेस और उड़ीसा से बीजू जनता दल उक्त बैठक में आये नहीं अथवा उनको बुलाया नहीं गया ये स्पष्ट नहीं है. तेलुगु देशम के चन्द्र बाबू नायडू भी कांग्रेस की संगत का दंड भोग चुके हैं. भले ही तमिलनाडु की सत्तारूढ़ पार्टी द्रमुक कांग्रेस के साथ है लेकिन वह भी कब पलटी मार जाए ये कहा नहीं जा सकता.
कर्नाटक से जनता दल (एस) भले आ गयी लेकिन अब देवगौड़ा परिवार का प्रभाव ढलान पर है. इस तरह देखें तो दो-चार नाम छोड़कर एक भी ऐसा नेता या दल नहीं है जिसके साथ आने से सोनिया गांधी 2004 वाला करिश्मा दोहरा सकें जब अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार को अप्रत्याशित रूप से पराजय का सामना करना पड़ा. तब भाजपा के पास अपने बलबूते सरकार बनाने लायक ताकत नहीं होती थी लेकिन 2014 और 2019 में उसने खुद ही बहुमत हासिल कर एक मिथक तोड़ दिया. अटल जी के पराभव के उपरान्त भाजपा ने तो नरेंद्र मोदी के तौर पर वैकल्पिक चेहरा देश के सामने रखा वहीं अपने संगठन में भी युवाओं को महत्व देते हुए अगली पीढ़ी के नेताओं को तैयार करने की प्रक्रिया भी शुरू कर दी किन्तु कांग्रेस सोनिया जी से बढ़कर पहले राहुल और प्रियंका पर आकर रुकी और फिर वापिस उन्हीं के पास लौट आई.
सोनिया गांधी भी ये बखूबी जानती हैं कि शरद पवार और ममता बैनर्जी, अखिलेश यादव, मायावती और तेजस्वी यादव जैसे नेता कांग्रेस को मजबूत नहीं होने देंगे. जहां तक राहुल गांधी का सवाल है तो आज विपक्ष की राजनीति में एम.के. स्टालिन, अखिलेश और तेजस्वी यादव के अलावा अरविन्द केजरीवाल जैसे नेता युवा वर्ग को ज्यादा आकर्षित कर पा रहे हैं.
वास्तव में नरेंद्र मोदी के खिलाफ मजबूत विपक्ष बनाने की तैयारियां भले ही शुरू हो चुकी हों. लेकिन, इस विपक्ष का चेहरा कौन होगा, सबसे ज्यादा बहस इसी बात पर होनी है. भाजपा के पास नरेंद्र मोदी के तौर पर निर्विवाद और ताकतवर चेहरा है. लेकिन, विपक्ष में नेतृत्व को लेकर अभी से ही खींचतान दिखने लगी है. ये खींचतान 2024 तक खत्म होती भी नहीं दिखती है. खिचड़ी विपक्ष में हर नेता खुद को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताएगा. विपक्ष का सबसे बड़ा दल कांग्रेस राहुल गांधी को स्थापित करने के लिए कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेगा. इस स्थिति में विपक्ष के सामने देशभर में सर्वस्वीकार्य नेता चुनने की बड़ी चुनौती है. अभी 2024 के आम चुनाव में लगभग तीन साल का समय शेष है. तब तक राजनीति कई करवटें ले चुकी होगी. फिलवक्त विपक्ष 2024 में गैर भाजपाई सरकार के सपने देख रहा है. -लेखक राज्य मुख्यालय पर मान्यता प्राप्त स्वतंत्र पत्रकार हैं. यह उनके निजी विचार हैं.