'फैक्ट' और 'फिक्शन' एक ही घाट पर पी रहे हैं पानी
प्रो. संजय द्विवेदी
भारत में इस समय 1 लाख से ज्यादा समाचार पत्र और पत्रिकाएं प्रकाशित होती हैं, अलग-अलग भाषाओं में हर रोज 17 हजार से ज्यादा अखबारों का प्रकाशन होता है और इनकी 10 करोड़ प्रतियां हर रोज छपती हैं. भारत में 24 घंटे न्यूज़ दिखाने वाले चैनलों की संख्या 400 से ज्यादा है. 56 करोड़ यूजर्स के साथ भारत सोशल मीडिया के मामले में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा बाजार है. इस मामले में चीन पहले नंबर पर है. यानी कभी अखबारों के जरिए, कभी न्यूज़ चैनलों के जरिए, तो कभी सोशल मीडिया के जरिए भारत के लोग हर समय सूचनाओं से घिरे रहते हैं और इन्हीं सूचनाओं के आधार पर आप यह तय करते हैं कि देश किस दिशा में जा रहा है. लेकिन सूचनाओं के अंबार के बीच आज सबसे बड़ी चुनौती है 'फेक न्यूज़'.
Twitter के उपभोक्ताओं की तादाद भी बढ़ कर तीन करोड़ से ज्यादा हो गई है. इन तीनों के लिए भारत सबसे बड़ा बाजार है और इन्हीं तीनों माध्यमों से फेक न्यूज़ का सबसे ज्यादा ज्यादा प्रचार हो रहा है. फेक न्यूज़ कोई नई चीज नहीं है. गुमराह करने के लिए गलत सूचनाएं फैलाने की रणनीति बहुत पुरानी है, जो समय के साथ साइकोलॉजिकल ऑपरेशंस में बदल गई है. यह एक तरह का माइंड गेम है, जिसमें दुश्मन के दिमाग और उसकी लीडरशिप को निशाना बनाया जाता है. हालांकि, सारी फेक न्यूज़ सोच-समझकर नहीं फैलाई जातीं, ना ही वे साइंटिफिक होती हैं, अचानक कई ऐसी झूठी खबरें आ जाती हैं, जिनके असर का गुमान तक नहीं होता. इनका मकसद भ्रम फैलाना, विरोध को बढ़ावा देना, कुछ वर्गों के खिलाफ नफरत भड़काना, राजनीतिक बदला या निजी दुश्मनी हो सकता है. मिलिट्री ऑपरेशंस को लेकर भी ऐसी कई फेक न्यूज़ आती रहती हैं, जिनसे राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा हो सकता है. सोशल मीडिया पर फेक न्यूज़ के प्रसार के लिए वीडियो फॉर्मेट का सबसे अधिक सहारा लिया जाता है. छोटे क्लिप बनाकर व्हाट्सऐप के जरिये फेक न्यूज़ को आसानी से सर्कुलेट किया जा सकता है.
फेक न्यूज़ के लिए व्हाट्सऐप सबसे बदनाम भी है. इस पर वीडियो मैसेज पोस्ट करते वक्त अक्सर लिखा जाता है कि जैसे मिला, वैसे ही आगे बढ़ा दिया यानी ‘फॉरवर्डेड एज रिसीव्ड’. इससे पोस्ट डालने वाले का अपराधबोध कम होता है, लेकिन उसके ऐसा करने से फेक न्यूज़ की आग तेजी से फैलती है. भारत के खिलाफ दुष्प्रचार की पाकिस्तान की रणनीति का सबूत एक हालिया फेक न्यूज़ है. दो मिनट के एक वीडियो से भारतीय मुसलमानों को गुमराह करने की कोशिश की गई. इसमें बताया गया कि 1965 के भारत-पाकिस्तान युद्ध से पहले भारतीय सेना में एक मुस्लिम रेजिमेंट थी, जिसने पाकिस्तान से युद्ध करने से इनकार कर दिया था. वीडियो में दावा किया गया कि इस रेजिमेंट को बाद में भंग कर दिया गया और उसके बाद भारत की तरफ से किसी भी मुस्लिम को बॉर्डर पर लड़ने की इजाजत नहीं दी गई है. इस फेक वीडियो के साथ 2010 में पाकिस्तानी मीडिया का एक आर्टिकल भी दिखता है, जिसमें भारतीय सेना में मुसलमानों की कम संख्या पर सवाल खड़ा किया गया है.
इसमें कहा गया है कि इसे गलत साबित करने वाले आंकड़े कभी पेश नहीं किए गए. राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए फेक न्यूज़ इसी तरह से खतरा पैदा करती है. सोशल मीडिया के इस दौर में 'फैक्ट' और 'फिक्शन' एक ही घाट पर पानी पीते हैं. इसे सोशल मीडिया का दूसरा अवतार कह सकते हैं, जिसे तकनीकी भाषा में सोशल मीडिया ‘टू पॉइंट ओ’ (2.O) कहा जा सकता है. अमेरिका के मशहूर लेखक निकोलस कार ने अपनी किताब ‘द शैलोज’ में लिखा है कि इंटरनेट के इस्तेमाल के कारण हम अपने दिमाग का प्रयोग बहुत कम करने लगे हैं, क्योंकि हर सामग्री इंटरनेट पर उपलब्ध है. इस वजह से तार्किक विश्लेषण करने की हमारी क्षमता भी घट रही है और हम चीजों पर आसानी से विश्वास भी करने लगे हैं. आप देखिए कि जब किसी सुनियोजित अभियान के तहत एक के बाद एक फेक न्यूज़ हमें भेजी जाती है, तो एकाध बार अनदेखा करने के बाद आखिरकार हम उन्हें सच मानने ही लगते हैं. मीडिया कंपनी बजफीड की तरफ से फेसबुक के छह बड़े पेजों की एक हजार पोस्ट का सर्वे किया गया. इस सर्वे में यह पता चला कि जिन पेजों पर सच्ची खबरों का अनुपात सबसे कम था, उन्हें सबसे ज्यादा लाइक, शेयर और कमेंट प्राप्त हुए थे. इन पेजों पर 38 फीसदी खबरें या तो सच और झूठ का मिश्रण थीं या फिर पूरी तरह झूठ थीं.
इसलिए हमें बेहद सावधान रहने की आवश्यकता है. संकट का समय हमेशा से ही ऐसा दौर माना जाता रहा है, जब अफवाहों और षड्यंत्र के सिद्धांतों का बोलबाला होता है. लोगों के पास पुख्ता जानकारियां कम होती हैं और भय एवं आशंकाएं बहुत ज्यादा. ऐसे में वे कई तथ्यहीन चीजों पर विश्वास करने के लिए तैयार हो जाते हैं. और यह सब हमें कोरोना महामारी के दौरान देखने को मिला है. इस दौर में अकेला कोरोना ही लोगों को नहीं डरा रहा है, बल्कि फेक न्यूज़ भी लोगों को परेशान कर रही है. लॉकडाउन के दौरान लोग घरों में बंद थे और वे अपना काफी समय इंटरनेट की विभिन्न वेबसाइटों, खासकर सोशल मीडिया पर व्यतीत कर रहे थे. इस संदर्भ में अक्टूबर में आई एक रिपोर्ट हमें यह बताती है कि लॉकडाउन के बाद से देश के लोग अब सोशल मीडिया पर 87 फीसदी अधिक समय बिता रहे हैं. रिपोर्ट के अनुसार, पहले लोग सोशल मीडिया पर प्रतिदिन औसतन 150 मिनट का समय बिताते थे, लेकिन अब यह समय बढ़कर 280 मिनट प्रतिदिन हो गया है. इसमें से लोग ज्यादातर समय फेसबुक, व्हाट्सऐप और ट्विटर पर बिताते हैं.
फेक न्यूज़ पर मलेशिया, फिलीपींस और थाइलैंड की तरह सख्त नियम बनाने की आवश्यकता है. मलेशिया के कानून के मुताबिक फेक न्यूज़ की वजह से अगर मलेशिया या मलेशियाई नागरिकों को नुकसान होता है, तो इसे फैलाने वाले पर करीब 1 लाख 23 हजार अमेरिकी डॉलर यानी लगभग 90 लाख रुपये का जुर्माना और छह साल की सजा हो सकती है. फिलीपींस में गलत जानकारी फैलानों वालों को 20 साल तक की कैद की सजा का प्रावधान करने की तैयारी चल रही है. थाइलैंड में साइबर सिक्योरिटी लॉ कार्य करता है, जिसके तहत गलत सूचना फैलाने पर 7 साल तक की कैद की सजा हो सकती है. याद रखिए सच में झूठ की मिलावट अगर नमक के बराबर भी होती है, तो वो सच नहीं रहता, उसका स्वाद किरकिरा हो जाता है. (यह लेखक के निजी विचार हैं. लेखक महानिदेशक, भारतीय जन संचार संस्थान)