बिहार चुनाव 2025: बदलाव की लहर या भरोसे की परंपरा? जनता किसे देगी जनादेश?
राजनीतिक दृष्टि से देखें तो इस बार बिहार की सियासत दो चेहरों के इर्द-गिर्द घूम रही है. एक ओर तेजस्वी यादव हैं, जो बदलाव और नई पीढ़ी की आकांक्षाओं का प्रतीक बनकर उभरे हैं. वह बेरोज़गार युवाओं, किसानों और मध्यमवर्गीय परिवारों के बीच उम्मीद की किरण के रूप में देखे जा रहे हैं. दूसरी ओर हैं नीतीश कुमार, जो अनुभवी, व्यवहारिक और प्रशासनिक दृढ़ता के प्रतीक माने जाते हैं. उनके समर्थक कहते हैं कि बिहार ने जो स्थिरता और कानून-व्यवस्था पिछले दो दशकों में पाई है, वह नीतीश के नेतृत्व में संभव हुआ. लेकिन विपक्षी दलों का तर्क है कि विकास की गति थम चुकी है और बिहार को अब एक नई दिशा चाहिए. यही द्वंद्व इस चुनाव का सबसे बड़ा सवाल है कि क्या जनता जोश पर दांव लगाएगी या अनुभव पर भरोसा करेगी?
बिहार की राजनीति की जड़ें लंबे समय तक जातीय समीकरणों में उलझी रहीं. मगर इस बार हवा कुछ बदली-बदली लगती है. अब गांवों की चाय की दुकानों पर जाति की जगह रोजगार की चर्चा है. युवा कह रहा है जात से क्या मिलेगा साहब नौकरी चाहिए.” किसान बोल रहे हैं “हमें न वादा चाहिए न बयान, बस फसल का सही दाम चाहिए.” यही संकेत हैं कि जनता अब विकास के नाम पर वोट देने का मन बना रही है. उसे सड़क, पुल, डैम, फैक्ट्री, मेट्रो और रोजगार के नए अवसर चाहिए . अभी तक जो तस्वीर सामने आई, वह बताती है कि जनता अब केवल भाषण नहीं सुनना चाहती बल्कि नतीजे देखना चाहती है. युवाओं ने बेरोजगारी, पलायन और शिक्षा के अवसरों की कमी को सबसे बड़ा मुद्दा बताया. किसान वर्ग ने फसलों की लागत और लाभ के बीच बढ़ती खाई, और नुकसान पर मुआवजा न मिलने की शिकायत की. वहीं कुछ वर्ग ऐसे भी मिले जो मानते हैं कि मौजूदा सरकार की नीयत ठीक है, लेकिन कामकाज की रफ्तार को तेज़ करने की जरूरत है. यह साफ़ झलकता है कि जनता अब व्यवस्था परिवर्तन चाहती है, केवल चेहरा बदलने से बात नहीं बनेगी.
प्रशांत किशोर की जनसुराज यात्रा ने इस चुनाव में एक अलग बहस तो खड़ी की है, लेकिन ज़मीनी स्तर पर उसका प्रभाव अभी सीमित नजर आता है. कांग्रेस की भूमिका एक बार फिर सीमित है, जबकि वामदलों की आवाज़ नारों से आगे नहीं बढ़ पा रही. ऐसे में मुख्य मुकाबला दो ध्रुवों एनडीए और महागठबंधन के बीच सिमट गया है.
बिहार की राजनीति में असली समस्या सत्ता परिवर्तन नहीं बल्कि व्यवस्था परिवर्तन की रही है. सरकारें आती-जाती रहीं, मगर अफसरशाही और भ्रष्टाचार की जड़ें जस की तस रहीं. योजनाएँ बनती हैं, लेकिन फाइलों में दफन हो जाती हैं. जनता को यह समझना होगा कि नेता बदलने से व्यवस्था नहीं बदलती. बदलाव तभी आएगा जब जनता सिस्टम से जवाब मांगेगी, और प्रशासन को जवाबदेह बनाएगी.
आंकड़ों की बात करें तो इस बार लगभग 7 करोड़ 43 लाख से अधिक मतदाता मतदान के पात्र होंगे. इनमें 46 प्रतिशत युवा मतदाता हैं, जो निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं. चुनाव आयोग के अनुसार, इस बार करीब 51 लाख नाम मतदाता सूची से हटाए गए हैं, जो लगभग 6 प्रतिशत की गिरावट है. सर्वेक्षणों में एनडीए और महागठबंधन के बीच महज 1.6 प्रतिशत का अंतर बताया गया है, जिससे यह साफ है कि मुकाबला इस बार बेहद कांटे का है और किसी भी दिशा में झुक सकता है.
बिहार का मतदाता इस बार मौन जरूर है, लेकिन बेखबर नहीं. चाय की दुकानों से लेकर मोबाइल स्क्रीन तक हर जगह राजनीतिक बहस जारी है. यह मौन किसी डर का नहीं बल्कि मंथन का संकेत है. जनता सोच रही है कि क्या उसे नए चेहरों की उम्मीदों पर भरोसा करना चाहिए या फिर अनुभव के आधार पर स्थिरता को एक और मौका देना चाहिए.
यह चुनाव केवल यह तय नहीं करेगा कि अगला मुख्यमंत्री कौन बनेगा, बल्कि यह यह भी तय करेगा कि बिहार किस दिशा में आगे बढ़ेगा. क्या यह चुनाव बदलाव की लहर को जन्म देगा या भरोसे की परंपरा को कायम रखेगा? जनता का हर वोट इस बार एक सवाल है, और हर मतदाता उस सवाल का जवाब अपने मतपत्र पर लिखने जा रहा है.
बिहार का यह जनादेश केवल सत्ता की अदला-बदली नहीं बल्कि व्यवस्था की परीक्षा है. अब यह जनता पर निर्भर करता है कि वह इस बार सिर्फ सरकार बदलेगी या भविष्य की दिशा भी तय करेगी. बदलाव की चाह और भरोसे की तलाश, दोनों इस बार बिहार के मतदाताओं के दिल में साथ-साथ धड़क रहे हैं और शायद यही इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया की सबसे बड़ी सुंदरता है.
सौरभ वीपी वर्मा – भारतीय बस्ती ,संपादकीय डेस्क-पटना
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