आजादी की समर गाथा में अमर हो गई बस्ती के 'महुआ डाबर' की शहादत
- बस्ती जिले में छह अंग्रेज सैन्य अफसरों की हत्या कर चर्चा में आए थे क्रांतिकारी - मौत का बदला लेने के लिए अंग्रेजों ने पूरे कस्बे को कर दिया था आग के हवाले

महुआ डाबर (बस्ती) : अंग्रेज सरकार का अवध इलाके में अधिकाधिक लगान वसूलना मकसद था. ब्रिटिश हुकूमत की इस कुनीति ने किसानों और कारोबारियों को पूरी तरह से तबाह कर दिया था. कंपनीराज के शोषण के कारण ही 1857 में अवध में जबरदस्त जनविद्रोह हुआ जिसमें समाज के हर तबके ने हिस्सा लिया. महुआ डाबर बस्ती जिले का एक कस्बा था जहां 1830 में मुर्शिदाबाद में अंग्रेजों के अत्याचारों से तंग आकर रेशम के कारीगर आकर बस गए थे. यह एक बहुत ही संपन्न कस्बा था जिसमें दो मंजिला मकानों की अच्छी खासी तादाद थी और शिक्षित वर्ग की भी ठीक-ठाक उपस्थिति भी. अपनी मेहनत और लगन की बदौलत महुआ डाबर ने खूब तरक्की कर ली थी. मनोरमा नदी के किनारे महुआ डाबर की बसावट से नावों से कारोबार होना बहुत आसान हो गया था.
क्रांतिवीर पिरई खां की अगुवाई में उनके इंकलाबी साथी देश पर मर मिटने पर आमादा हो गए. 10 जून,1857 को अंग्रेजी सेना के लेफ्टिनेंट लिंडसे, लेफ्टिनेंट थॉमस, लेफ्टिनेंट इंग्लिश, लेफ्टिनेंट रिची, सार्जेन्ट एडवर्ड, लेफ्टिनेंट कॉकल व सार्जेन्ट बुशर फैजाबाद (अयोध्या) से बिहार के दानापुर (पटना) जा रहे थे. इधर पिरई खां के नेतृत्व में उनके गुरिल्ला क्रांतिकारी साथियों ने अंग्रेज़ी सेना के कुख्यात अफसरों की घेराबंदी करके तब तक मारा जब तक उनकी मौत नहीं हो गयी. अंग्रेजी सेना के छह अफसरों के मौत के बाद सार्जेन्ट बुशर घायल अवस्था में किसी तरह से अपनी जान बचाकर भाग निकला और अंग्रेजी हुकूमत के उच्च अधिकारियों को सारी घटना की जानकारी दी.

अपने छह सैन्य अफसरों की मौत से बौखलाई अंग्रेजी सेना ने 20 जून,1857 को बस्ती के तत्कालीन मजिस्ट्रेट पेपे विलियम्स ने घुड़सवार फौजियों की मदद से पांच हजार की आबादी वाले महुआ डाबर गांव को घेरकर जलाकर राख कर दिया. पूरे कस्बे को तहस नहस करने के बाद 'गैरचिरागी' घोषित कर दिया. यहां पर अंग्रेजों के चंगुल में आए निवासियों के सिर कलम कर दिए गए. इनके शवों के टुकड़े-टुकड़े करके दूर ले जाकर फेंक दिया गया. इतना ही नहीं अंग्रेज अफसरों की हत्या के अपराध में जननायक पिरई खां का भेद जानने के लिए गुलाम खान, गुलजार खान पठान, नेहाल खान पठान, घीसा खान पठान और बदलू खान पठान आदि क्रांतिकारियों को 18 फरवरी 1858 सरेआम फांसी दे दी गई. महुआ डाबर गांव के अस्तित्व को मिटाने के लिए पेपे विलियम्स को ब्रिटिश सरकार ने सम्मानित भी किया था.
Advertisement
महुआ डाबर की वीरानी देख ऐसा लगता था कि यहां कभी कोई चहल पहल थी ही नहीं. भले ही यह घटना भारत के स्वतंत्रता संग्राम की एक अप्रतिम घटना रही हो जो कि आज भी प्रेरणा देती है. आजाद भारत में तमाम प्रयासों के बावजूद महुआ डाबर के क्रांतिवीरों को बिसरा दिया गया. पुरातत्व विभाग की तरफ से यहां दो बार खुदाई हो चुकी है. आज भी महुआ डाबर पहचान को तरस रहा है. वहीं क्रांतिकारी पिरई खां के नाम से स्मारक का लोग आज भी इंतजार कर रहे हैं.
भगत सिंह के भांजे लिख रहे इतिहास
देश की आजादी का हीरक वर्ष शुरु हो गया है. शहीद-ए-आजम भगत सिंह के भांजे प्रोफेसर जगमोहन सिंह महुआ डाबर पर दस्तावेजों के हवाले से पुस्तक लिख रहे हैं. क्रांतिवीर पिरई खां स्मारक समिति वर्षों से विभिन्न आयोजनो के जरिये महुआ डाबर के गौरवशाली विरासत को नई पीढ़ी से परिचित कराने की अलख जगाती रही है.