पुस्तक समीक्षा: अवधी में अनमोल कृति है ‘गायेन, जस देखेन’
दिनेश चंद्र पांडेय
जाने माने साहित्यकार,लेखक एवं गीतकार सियाराम मिश्र की ‘‘गायेन जस देखेन’’ अवधी की ऐसी कृति है जो दृश्य काव्य का अनुपम उदाहरण स्वीकार्य है. भारतेन्दु जी के तर्ज पर ‘‘ निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति कै मूल’’ को स्वयं मिश्रा जी ने इस प्रकार स्वीकारा है. ‘‘ अपनी बोली में जितनी सहज अभिव्यक्ति की जा सकती है उतनी खड़ी बोली में नहीं’’. बड़ी ही तत्परता से मिश्र जी कहते हैं-‘‘यदि व्यक्ति हृदय से सरल नहीं है, उसका बाहर भीतर एक नही है वह चाहे विद्वान, धनवान या नेता अधिकारी भले ही हो जाय किन्तु कवि नही हो सकता.’’ अपनी भाषा और बोली में सहज अभिव्यक्ति के लोभ में अवधी में सार्थक कविताये लिखी है. जो देखा वही गाया अपना तो केवल बोली है और कुछ नही.
अवध में अवधी का विस्तार- अवध में 19 जिले स्वीकारे गये हैं और मिश्रा जी का जन्म गोला गोकर्णनाथ के ग्राम घरघनियां में 1942 में हुआ था. यह अवधी का परम्परागत क्षेत्र तो है किन्तु यहां की अवधी पर कन्नौजी का प्रभाव है. मिश्रा जी ने स्वीकारा कि समूचे अवधी क्षेत्र में ‘‘गायन जस देखेन’’ और ‘‘तुतलाय गुलाबन कै कलिका’’सर्वमान्य रुप से पढ़ी,समझी और स्वीकारी जाय. इसलिये ठेठ कन्नौजी के स्थान पर रुढ अवधी के शब्दांे का चयन अपने आप में महत्वपूर्ण है. सबसे तथ्यपूर्ण बात तो यह कि मिश्रा जी की पत्नी श्रीमती विजय लक्ष्मी मिश्रा अग्रज डा. ष्याम सुन्दर मिश्र ने भी इस अवधी गीत संग्रह को उत्कृष्ट बनाने में रुचि लिया और शीर्षक चयन को अंतिम रुप दिया. अग्रज श्याम सुन्दर मिश्र ने तो काव्य संग्रह का प्राणतत्व ही थाम लिया और कन्नौजी के प्रभाव पर आपत्ति जताया. उनके सुझाव पर यथा सम्भव कन्नौजी प्रभावित शब्दों को बदलने का प्रयास किया गया. इसके बावजूद मिश्रा जी स्वीकार करते है और पाठको से आगह करते हैं कि यदि कन्नौजी का प्रभाव दृृश्टिगोचर हो तो इसे क्षेत्रीय संस्कार के रुप में स्वीकार कर नजरंदाज किया जाना चाहिये. पहले संस्करण के बाद उनके पुत्र रमन मिश्रा ने दूसरा संस्करण प्रकाशित कराया जो अपने आप में ‘‘गायन जस देखेन’ को नयी दिशा की ओर ले जाता है. रमन जी का यह कहना सार्थक प्रयास है कि पिता की काव्य साधना और तपश्चर्या उनकी प्रगति का कारक बना. रमन जी के बस्ती में सेवारत होने पर जाने माने कवि डा.राम कृष्ण लाल जगमग एवं गीतकार विनोद कुमार उपाध्याय का सानिध्य में दूसरे संस्करण को नया स्वरुप दे सका. अवधी की इस अमूल्य निधि को ‘भारत गौरव’ तथा अनेक संस्थाओं से सम्मान मिला.
127 अवधी दृश्य काव्य एक से बढ़ कर एक-‘गायेन जस देखेन’ में ज्वलंत विषयों पर एक से बढ़ कर एक दृष्य काव्य संकलित है जिसकी समीक्षा आसान नही है. नही भरा और कुछ और लिखने को बाध्य होना पड़ा. पुनश्च यह कहने में संकोच नही है कि ‘गायन जेस देखेन’ के बारे में बहुत कुछ कहना शेष रह गया है. ‘‘ सियाराम मिश्र और उनके काव्य ’’ पर राजस्थान विश्वविद्यालय ने डा. अर्चवाना डीडवाना को पीएचडी की उपाधि प्रदान किया है जो अपने आप में महत्वपूर्ण है. सियाराम मिश्र के काव्य पर डा. केशव राम मिश्र तथा कई अन्य समीक्षको द्वारा निरन्तर लिखा जा रहा है किन्तु अवधी के इस गीतकाव्य का कोई ओर छोर नही हैं. अपने जीवन के पचास वर्षो तक दूरदर्शन अैेर आकाशवाणी से वार्ताएं तथा काव्य पाठ,मंचों पर काठमांडू से लेकर कन्या कुमारी तक काव्यपाठ पत्र पत्रिकाओं में प्रकाषन उ.प्र के सूचना विभाग द्वारा प्रकाशित ‘‘ उत्तर प्रदेश’’ में सौ निबंधों का धारावाहिक प्रकाशन ने सियाराम मिश्रा को बहुआयामी व्यक्तित्व का स्वामी बना दिया. इसके बाद भी श्री मिश्र कहते हैं- मैं कभी अध्ययनषील नही रहा. जो कुछ बन पड़ा वह मां का प्रसाद ही है. उनकी साहित्यिक उपलब्धियां अपने आप में अनूठी है जो अध्ययनषील ही कर सकता हे फिर भी स्वयं को अध्ययनशील ना मानना उनका बड़प्पन है. तुलसी दास ने भी तो कभी स्वयं को कवि नही माना ओरकहा- कविना होहुं नहि चतुर कहावहुं. मति अनुरुप राम गुन गावहुं.
मंगलाचरण का पहला गीत ही औरो से अलग है. जहां भक्त आराध्य के दर से बिना प्रसाद पाये वापस जाने को तैयार नही होता वहीं मिश्र जी मां की उपासना अपने अलग एंग से करते है-‘‘जौ ना मिली ममता अबकी,तुमरे समुहें अब रोइब नाहीं. ठाढ़ी रहौ चहे पानी लिहे,तुमरे कहे ते मुंह धोइब नाही.’’ यह मां के सम्मुख पुत्र की जिद है कि तू पानी लिये खड़ी रहेगी लेकिन तुम्हारे कहने से मुंह भी नही धोऊंगा. कवि यहां तक कहने मे संकोच नही करता कि इस बार मानुष जनम लेकर मां तुझे देख लिया अब मानुष जन्म लूंगा ही नही. यथा-‘‘ भूखहि पेट खेलौनन खेलत, कौनिउ आस संजोइब नाही.’’ और तो और ‘‘देहौ ना जो नरता बनिबा पवि,भूलिहूं मानुश होइब नाही’. फिर अंत में कवि मा से कहता है-‘‘ लाज बचाइबे खातिर जौ, डग दुइ घरिकै चलि आइहौ मैया. साचु हइ पूत कपूत भवा, तुम काहे कुमाता कहाइहौ मइया’.
निस्संदेह ऐसा मंगलाचरण अन्यत्र दुर्लभ है.
आज के राजनीतिक वातावरण पर मिश्र जी वैसे ही गाये जैसा उन्होने देखा.
धरम हइ नेतन कै हथियार का सजीव चित्रण- ‘‘ दुनिया भरि कै मन्दिर महजिद,कब छड़िहैं गुरुद्वारा जह जिद,मठाधीष बेचंइ ईसुर कां,फैलावइं व्योपार. धरम हइ नेतन कै हथियार. आज के नेता और राजनीति पर जैसा देखा वैसे गाया. गीतो में अवधी भाश बोली को यथार्थ से झुकने नही दिया. अवधी को ऐसा संजोया कि भाषा अपने आप प्रस्फुटित हो रही है.
किसान और किसानी का अवधी में ऐसा चित्रण कि जैसे साल भर चले किसान आन्दोलन ओर उसके परिणाम को मिश्र जी ने अपनी आंखों देखा हो. ‘‘ चेतु रे भारत केर किसान’’ में मिश्र जी का यथार्थ चित्रण अनूठा है. यथा - ‘‘नेता तिकड़म ताल भजाइन,ऊंच मचान बइठि हुरिआइन,तोहिकइ जानि बैलबा जोतिनि,क्षुधा बांटि खाइन पकवान. चेतु रे भारत केर किसान’’. वासतव में गायन जेस देखेन काषीर्शक सार्थक हो जाता है. पनी कविता ‘‘भगवानइ देस चलाइ रहा’’ में गाते हैं-‘‘ भीतर-भीतर जल कै लाइन, सीबरकी लाइनसे मिलि गइ,घर की टोंटी से मल निकला,रहतूति गंदगी ते हिलि गइ. जब आगे थेरी दूरि चलेन, औरउ विकास कछु देखि परा, कूरा कके ढेर खग्वोइ रहे, दुइ नौनिहाल कटरा बछरा.. यह लम्बी यर्थाथ गायन वैसे ही है जैसा देखा गया. यानि द्ष्य यथार्थ का अनुपम उदाहरण. ‘ हम बसंत के फूल बनी’ ‘दिया टिमटिमाय लाग’, बिनु पइसा ज्ञानी उल्लू हइ’,इमानदारी कइसै निबही,आवा परधानी कै चुनाव, गावन कै नेता,तितुली आई,बरखा रानी जैसे विशय का यथार्थ प्रकृति चित्रण और ओ ओटर भइया के साथ ही दोहो और कुंडलियों का अनुपम संकलन मन को मोह लेता है.
सच तो यह है कि एक एक कितनी गीतों को गिनायें सब के सब एक से बढ़ कर एक है और ‘‘गायन जेस देखेन’’ शीर्षक को चरितार्थ करती है. अवधी भाषा के शब्दों को इस प्रकार संजोया गया है कि ठेठ अवधी उभर कर सामने आयी है और कन्नौजी का दूर दूर तक प्रभाव नही दिखता. कहना तो यह पड़ेगा कि यह संक्षिप्त समीक्षा ‘‘गायेन जेस देखन’’को आत्मसाात नही कर पाती. मिश्र जी की एके एक कविता अलग से समीक्षा अभिप्रेत है.
(लेखक दैनिक भारतीय बस्ती के मुख्य सम्पादक हैं) मो.9450567450