अखिलेश बनाम योगी: यूपी की सियासत में जातीय विमर्श और नेतृत्व की चुनौती

अखिलेश बनाम योगी: यूपी की सियासत में जातीय विमर्श और नेतृत्व की चुनौती
Akhilesh vs Yogi: Caste debate and leadership challenge in UP politics

उत्तर प्रदेश की राजनीति में दो चेहरे ऐसे हैं जो हमेशा चर्चा में रहते हैं — एक ओर हैं समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव, और दूसरी ओर हैं वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ। दोनों के बीच राजनीतिक टकराव तो लंबे समय से चलता आ रहा है, लेकिन अब ये टकराव जातीय राजनीति और नेतृत्व शैली को लेकर एक नए स्तर पर पहुंच गया है।

अखिलेश यादव पर अक्सर भारतीय जनता पार्टी के नेता आरोप लगाते रहे हैं कि वो यादव समाज के हितों को ज्यादा तवज्जो देते हैं और अपनी राजनीति को एक जाति तक सीमित रखते हैं। वहीं दूसरी ओर अखिलेश यादव भी बराबरी से पलटवार करते हैं और योगी आदित्यनाथ पर 'ठाकुरवाद' को बढ़ावा देने का आरोप लगाते हैं। हाल ही में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में अखिलेश यादव ने आरोप लगाया कि यूपी में पुलिस चौकियों और थानों में ठाकुर जाति के लोगों को ही थानाध्यक्ष और सीओ के पदों पर बैठाया जा रहा है। उनका यह भी कहना था कि सरकार पीडीए यानी पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक वर्ग को दरकिनार कर रही है।

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इस पूरी बहस को और हवा तब मिली जब डिप्टी सीएम बृजेश पाठक और अखिलेश यादव के बीच सोशल मीडिया पर बहस छिड़ गई। डीएनए वाले बयान को लेकर शुरू हुआ यह मामला अब पार्टी की आंतरिक राजनीति और नेतृत्व पर सवाल खड़े करने लगा है। अखिलेश यादव ने एक ट्वीट में इशारों ही इशारों में बृजेश पाठक को यह कह दिया कि अगर भविष्य में आपको कभी जरूरत पड़ी, तो हमारे दरवाजे खुले हैं। वहीं बृजेश पाठक बार-बार यह दोहराते रहे कि वो अखिलेश यादव की पार्टी के डीएनए की बात कर रहे थे, न कि उनके व्यक्तिगत डीएनए की।

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बात यहीं तक नहीं रुकी। बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष भूपेंद्र चौधरी ने बृजेश पाठक के समर्थन में ट्वीट कर दिया और कहा कि डीएनए पर हो रहा हमला असल में ब्राह्मण समाज पर हमला है। इस बयान के बाद बीजेपी के अंदर ब्राह्मण बनाम ठाकुर जैसा एक नैरेटिव उभरने लगा है। खास बात यह रही कि योगी आदित्यनाथ ने इस पूरे विवाद पर कोई टिप्पणी नहीं की। न सोशल मीडिया पर कुछ लिखा और न ही किसी मंच से कुछ कहा। यही नहीं, पहले भी जब ब्राह्मण समाज से जुड़े किसी नेता के साथ कोई विवाद हुआ है, तब भी योगी आदित्यनाथ ने चुप्पी ही साधी है।

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उदाहरण के तौर पर, जब बनारस वाले मिश्रा जी पर करणी सेना ने मुकदमा दर्ज करवाया और उन्हें जेल जाना पड़ा, उस वक्त भी योगी आदित्यनाथ ने कोई बयान नहीं दिया। वहीं अखिलेश यादव ने उस मुद्दे को जोर-शोर से उठाया और ब्राह्मणों को साधने की कोशिश की, जिसमें वे काफी हद तक सफल भी हुए। इसी तरह जब मुजफ्फरनगर से सांसद संजीव बालियान का मुद्दा उठा, तब भी योगी आदित्यनाथ चुप ही रहे। नंदकिशोर गुर्जर के मामले में भी ऐसा ही देखने को मिला।

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यह सब मिलाकर एक बड़ी राजनीतिक तस्वीर खींचता है, जिसमें ऐसा दिख रहा है कि योगी आदित्यनाथ कहीं न कहीं अपनी ही पार्टी में अलग-थलग पड़ते जा रहे हैं। जब-जब पार्टी के अंदर जातीय तनाव या असंतोष की बात सामने आती है, योगी आदित्यनाथ उस पर बोलने से बचते नजर आते हैं। दूसरी ओर पार्टी के अन्य नेता जैसे कि भूपेंद्र चौधरी, केशव प्रसाद मौर्य या फिर बृजेश पाठक खुलकर अपनी बात रखते हैं और समर्थन जताते हैं।

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इस पूरे घटनाक्रम में अखिलेश यादव लगातार सक्रिय दिख रहे हैं। वे न सिर्फ जातीय मुद्दों को उठा रहे हैं, बल्कि भाजपा के अंदर के अंतर्विरोधों को भी उजागर करने की कोशिश कर रहे हैं। "हाता नहीं है, भाता नहीं" जैसे नारों से लेकर डीएनए विवाद और ब्राह्मण नेताओं के उत्पीड़न के आरोपों तक, अखिलेश यादव ने हर मौके को भुनाने की कोशिश की है।

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2027 के विधानसभा चुनाव में इन सभी मुद्दों का कितना असर होगा, यह तो वक्त ही बताएगा। लेकिन अभी की स्थिति यही इशारा कर रही है कि अखिलेश यादव जातीय समीकरणों को ध्यान में रखते हुए अपना जनाधार बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं, जबकि योगी आदित्यनाथ की छवि एक सख्त लेकिन चयनित बोलने वाले नेता की बनती जा रही है। खासकर ब्राह्मण समाज को लेकर उनकी चुप्पी और ठाकुर नेतृत्व की छवि पर उठते सवाल आने वाले चुनाव में बीजेपी को नुकसान भी पहुंचा सकते हैं।

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इस समय उत्तर प्रदेश की राजनीति जाति, छवि और आंतरिक समीकरणों के बेहद नाजुक मोड़ पर खड़ी है। अखिलेश यादव इसका फायदा उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे, वहीं योगी आदित्यनाथ के सामने अब चुनौती सिर्फ विपक्ष से नहीं, बल्कि अपनी ही पार्टी के भीतर के नाराज वर्गों से भी है।

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