ट्रिब्यूनलों पर टकराव

दरअसल, देश में न्यायिक प्रक्रिया की जटिलता को सरल बनाने और अदालतों में मुकदमों का बोझ कम करने के लिये अर्द्ध-न्यायिक संस्थाओं के रूप में न्यायाधिकरणों का ढांचा बनाया गया था। जिसके कई सकारात्मक परिणाम भी मिले। लेकिन विडंबना ही है कि संसाधनों की कमी और रिक्त पदों पर नियुक्तियां ने होने से इनका कामकाज बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। यह महज सरकारी लापरवाही ही नहीं है बल्कि राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी भी है। तभी शीर्ष अदालत बार-बार सख्त टिप्पणी करती रही है, जिसमें पीठासीन अधिकारी, न्यायिक व तकनीकी विशेषज्ञों के रिक्त पदों से उत्पन्न व्यवधान मुख्य मुद्दा रहा है। जाहिरा बात है कि सरकार की उदासीनता के चलते लोगों व संबंधित पक्षों का व्यवस्था से विश्वास कम होता है। लेकिन इसके बावजूद केंद्र सरकार अदालत के आग्रह को गंभीरता से लेती नजर नहीं आई। यही वजह है कि पहले भी अदालत सख्त टिप्पणी करते हुए कह चुकी है कि लगता है केंद्र सरकार अर्द्ध-न्यायिक संस्थाओं को कमजोर बना रही है। अदालत ने कहा कि वह केंद्र से टकराव नहीं चाहती, लेकिन सरकार नियुक्तियां करके न्यायाधिकरणों के काम को गति दे। विडंबना यही है कि इन सख्त व असहज करने वाली टिप्पणियों के बावजूद परिणाम वही ढाक के तीन पात हैं। सवाल यही है कि क्यों केंद्र सरकार विषय की जटिलता को गंभीरता से नहीं ले रही है। यह सर्वविदित है कि ये अर्द्ध-न्यायिक संस्थाएं पर्यावरण, टैक्स, सेवा, वाणिज्यिक कानून व प्रशासनिक मामलों का निस्तारण करती हैं। देश में करीब उन्नीस न्यायाधिकरण सक्रिय हैं, जिनका मकसद यही होता है कि विषय विशेषज्ञों व न्यायिक अधिकारियों की सहायता से शीघ्र व सहज न्याय उपलब्ध कराया जा सके। बताया जाता है कि कई महत्वपूर्ण ट्रिब्यूनलों में ढाई सौ से अधिक पद रिक्त हैं, जिससे इनसे शीघ्र न्याय की उम्मीद करना बेमानी है। उम्मीद की जानी चाहिए कि शीर्ष अदालत की असाधारण सख्ती के बाद सरकार नियुक्तियों के मामले में तेदिखायेगी। कोर्ट की नाराजगी ट्रिब्यूनल रिफॉर्म्स एक्ट को लेकर भी है।
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