मानवता का अपराधी है तालिबान

तनवीर जाफ़री
जब से अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने 11 सितंबर 2021 तक अमेरिकी सैनिकों की अफगानिस्तान से पूरी तरह से वापसी की घोषणा की थी तभी से तालिबानी लड़ाकों के हौसले पूरी तरह से बुलंद हो चुके हैं . बल्कि यूँ कहें कि अमेरिका ने अफगानिस्तान छोड़ने की घोषणा ही इसी लिये की थी क्योंकि वह तालिबानों द्वारा पुनः संगठित होने तथा नाटो सैनिकों,अफगानिस्तानी सरकारी योजनाओं,हितों व नागरिकों पर उसके द्वारा लगातार किये जा रहे हमलों से घबरा चुका था. वैसे भी चूँकि अफगानिस्तान, इराक कुवैत जैसा कोई तेल उत्पादक देश भी नहीं था जहाँ और लंबे समय तक रहकर अमेरिकी सैनिकों को कुर्बान किया जाता. गौर तलब है कि अमेरिका में 9 ध्11 दृ 2001 को हुए विश्व के अब तक के सबसे बड़े आतंकी हमले के बाद तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश (द्वितीय ) ने अपने नाटो सहयोगी देशों के साथ मिलकर अफगानिस्तान की तत्कालीन सत्तारूढ़ तालिबानी सरकार को अपदस्थ करने के उद्देश्य से हमला किया था.
निर्वाचित उदारवादी व प्रगतिशील सरकार के अंतर्गत नई अफगानी सेना का गठन किया गया तथा तालिबानों से लड़ने के लिये उन्हें विशेष प्रशिक्षण भी दिया गया. परन्तु नाटो देशों की अफगानिस्तान से वापसी की भनक मिलते ही मृत प्राय हो चुके तालिबानों ने स्वयं को बहुत तेजी से पुनर्संगठित करना शुरू किया. और अमेरिका के जाते जाते भी कई बड़े हमले कर दिये.
अभी गत 5 जुलाई को जिस अंदाज से कथित रूप से बिना अफगानी सेना को सूचित किये अमेरिकी सेना ने बगराम एयर बेस को खाली कर चुपके से प्रातः 3 बजे अफगानिस्तान से वापसी की राह पकड़ी उससे तालिबानों के हौसले और भी बुलंद हो गये. और उसी दिन से तालिबानी लड़ाके अपनी पूरी सामर्थ्य के साथ अफगानिस्तान की सत्ता पर बलपूर्वक काबिज होने की दिशा में आगे बढ़ते जा रहे हैं. किसी भी समय काबुल पर भी तालिबानी नियंत्रण के समाचार मिल सकते हैं.
तालिबानों को लेकर यह स्पष्ट है कि यह सोच मानव ही नहीं बल्कि मानवता की भी दुश्मन है. उदारवादिता या प्रगतिशीलता का इस विचारधारा से दूर तक कोई वास्ता नहीं है. शिक्षा विशेषकर लड़कियों की शिक्षा के यह प्रबल विरोधी हैं. इन्हीं सरफिरों ने मलाला यूसुफजई पर जानलेवा हमला कर अफगानी लड़कियों को शिक्षा हासिल करने से रोकने का सन्देश दिया था. इन्हीं ने सैकड़ों स्कूल जला दिये या ध्वस्त कर डाले. कथित रूप से इस्लाम की प्रतिनिधि सोच रखने वालों का शिक्षा विरोध ही गैर इस्लामी है क्योंकि पैगंबर हजरत मोहम्मद से लेकर हजरत अली व सभी खलीफाओं व इमामों ने उम्मत-ए-इस्लामिया को शिक्षित होने का सन्देश दिया है.
हजरत मुहम्मद के हवाले से एक हदीस यह भी है कि उन्होंने फरमाया कि -‘शिक्षा हासिल करने लिए तुम्हें जितनी भी दूर क्यों न जाना पड़े जरूर जाओ चाहे चीन ही क्यों न जाना पड़े ‘. ऐसे में तालिबानों का स्वयं को इस्लाम व शरिया का प्रतिनिधि बताना और साथ ही शिक्षा का विरोध करना व लड़कियों व महिलाओं पर हमले करना,बेगुनाह लोगों को सरेआम सजायें देना,दहशत फैलाना आदि मानवता विरोधी बातें तालिबानी सोच व फिक्र तो हो सकती हैं, इस्लामिक सोच व फिक्र कतई नहीं.
रहा सवाल तालिबानों के सशक्तिकरण का तो इसमें भी पाकिस्तान व अमेरिसहित सोवियत रूस का की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही है. दो दशक पूर्व के शुरूआती दौर में पाकिस्तान ने ही तालिबानों को न केवल संरक्षण दिया था बल्कि तालिबानी प्रवक्ता पाकिस्तान में बैठकर मीडिया के माध्यम से पूरी दुनिया को तालिबानी मंतव्य से अवगत कराता रहता था. धीरे धीरे तालिबान ने पाकिस्तान में अपने ही हमखयाल कट्टरपंथियों का इतना विस्तार कर लिया कि पाकिस्तानी सत्ता पर भी उसकी नजरें जा टिकीं. पाकिस्तान द्वारा तालिबानों की शक्ल में अपनी ही आस्तीन में सांप पालने का ही परिणाम है कि आज डगमगाती अफगान सरकार व अफगानी सेना को स्पष्ट तौर पर यह कहना पड़ रहा है कि ‘तालिबानों के सशक्तिकरण के पीछे पाकिस्तान का हाथ है’. इतना ही नहीं बल्कि अफगान सरकार का यह भी आरोप है कि पाकिस्तान तालिबानों की मदद के लिये न केवल लड़ाके भेज रहा है बल्कि कथित तौर पर पाकिस्तानी वायु सेना भी तालिबानों की सहायता कर रही है.
रहा सवाल तालिबानों के शस्त्रीकरण का तो जब मई 1988 से लेकर फरवरी 1989 मध्य 9 माह के अंतराल में तत्कालीन सोवियत संघ की सेना ने अफगानिस्तान से वापसी की थी उस समय वह अपने पीछे लाखों की तादाद में सैन्य सामग्री अफगानिस्तान में ही छोड़ गयी थी. इसे वहां के कबीलाई गिरोहों ने अपने नियंत्रण में ले लिया था. ठीक उसी तरह जैसे गत 5 जुलाई को बगराम एयर बेस खाली करते समय लगभग 35 लाख अदद सैकड़ों वस्तुयें बरगाम हवाई अड्डे पर ही छोड़ कर अमेरिका रात के अँधेरे में भाग निकला. इन सामग्रियों में भी जहाँ अनेक छोटी बड़ी तमाम वस्तुएं हैं वहीं युद्ध में काम आने वाले हजारों वाहन,टैंक,तोपें व बख्तरबंद गाड़ियां भी शामिल हैं. जाहिर है यह सभी सोवियत व अमेरिकी सैन्य सामग्रियां तालिबानों के नियंत्रण में हैं और उन्हीं के काम आ रही हैं.
इससे यह निष्कर्ष भी निकाला जा सकता है कि यदि तालिबानों को सोवियत संघ व अमेरिकी हथियारों का सहारा न होता तो निहत्थे तालिबानों की इतनी ताकत नहीं थी कि वे नाटो सैनिकों का मुकाबला कर सकते. दूसरी तरफ तालिबानी उभार के दिनों यदि पाकिस्तान का समर्थंन व संरक्षण इन तालिबानों को न मिला होता और आज भी लगातार न मिल रहा होता तो भी तालिबानों की इतनी हौसला अफजाई न हुई होती. बहरहाल आज संयुक्त राष्ट्र संघ सहित पूरी दुनिया तालिबानों के तांडव तथा उनके बढ़ते खतरों को मूकदर्शक बनकर देख रही है.
उधर कथित इस्लामी साम्राजयवाद के विस्तार का सपना देखने वाले तालिबान की विश्व की दूसरी विस्तारवादी शक्ति चीन के साथ चल रही एक नई जुगलबंदी के भी समाचार हैं. इन सब के बीच अफगानिस्तान में मानवता के अपराधी तालिबानों द्वारा एक बार फिर रक्तरंजित इतिहास लिखा जा रहा है. यदि शांतिप्रिय जगत संयुक्त राष्ट्र संघ के नेतृत्व में मानवता के प्रति इस बढ़ते खतरे से शीघ्र नहीं निपटता तो पूरी दुनिया को इसके गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं. (यह लेखक के निजी विचार हैं.)