UP Politics: जब राजनाथ सरकार के ऐसे ही फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने लगा दी थी रोक

UP Politics: जब राजनाथ सरकार के ऐसे ही फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने लगा दी थी रोक
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अजय कुमार,लखनऊ
सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की बैंच ने अपने एतिहासिक फैसले में अनुसूचित जातियों को मिलने वाले आरक्षण प्रक्रिया मे बड़ा बदलाव करते हुए अनुसूचित जातियों में अति पिछड़ी अनुसूचति जातियों को चिन्हित करके उन्हें फायदा पहुंचाने के लिये कोटा में कोटा का जो आदेश पारित किया है. वह हिन्दुस्तान में लम्बे समय से चल रही आरक्षण की सियासत में एक मील का पत्थर साबित हो सकता है.अभी इस पर बीजेपी को छोड़कर किसी भी दल के बड़े नेता की प्रतिक्रिया सामने नहीं आई है,फिलहाल सिर्फ बीजेपी ही अनुसूचित जातियों को कोटे में कोटा देने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले से गद्गद है और उसके शिक्षा मंत्री धमेन्द्र प्रधान द्वारा इसेे सत्य की जीत बताया गया है. सबसे खास बात यह है कि पिछड़ों को मिलने वाले आरक्षण मेें जैसे क्रिमी लेयर को बाहर रखा जाता था, वैसे ही अब एससी/एसटी को मिलने वाले आरक्षण में भी क्रिमी लेयर लागू होगी.

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बहरहाल, यूपी में ऐसा ही प्रयास 23 साल पूर्व  2001 में उत्तर प्रदेश की तत्कालीन भाजपा सरकार में मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने भी किया था,जिस पर राजनाथ सिंह सरकार में ही राज्य मंत्री और शिकोहाबाद से विधायक अशोक यादव अपनी ही सरकार के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट चले गये थे और तब सुप्रीम कोर्ट ने उनके(राजनाथ सरकार) फैसले पर रोक लगा दी थी जिसे अब उसने कानून बना दिया है. अब राजनाथ सिंह मौजूदा केंद्र सरकार में गृहमंत्री हैं. राजनाथ सरकार ने अन्य पिछड़ी जाति और अनुसूचित जाति के समूहों को उप समूहों बांटकर तय आरक्षित कोटे में विभाजन का प्रयास किया था. राजनाथ सरकार ने जो समूह बनाए थे वे आय आधारित क्रीमी लेयर या नॉन क्रीमी लेयर जैसे नहीं ‌थे, बल्कि कई जातियों को आरक्षण के दायरे से ही बाहर करने का प्रयास किया गया था. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने राजनाथ सरकार की कोशिशों पर पानी फेर दिया था, और उनके प्रस्ताव को रद्द कर दिया गया.

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उस समय उत्तर प्रदेश की राजनाथ सिंह सरकार ने पिछड़ी जातियों के 27 फीसदी कोटे में यादव, अहिर और यदुव‌ंशियों का कोटा 5 फीसदी तय किया था, जबकि अनुसूचित जातियों और जनजातियों के 21 फीसदी कोटे में जाटव, चमार और धुसिया जातियों का कोटा 10 फीसदी तय किया ‌गया था. अनुसूचित जनजातियों का कोटा घटा कर दो से एक फीसदी कर दिया गया था, ताकि प्रदेश में कुल कोटा 50 फीसदी तक ही बना रहे. राजनाथ सरकार के फैसले का राजन‌ीतिक दलों समेत जाति समूहों ने भी कड़ा ‌विरोध किया. सुप्रीम कोर्ट उस फैसले को रद्द कर चुका है, हालांकि राजनाथ सिंह की निजी वेबसाइट पर ये एक उपलब्धि के रूप में दर्ज है. बता दें जून, 2001 में राजनाथ सिंह एक समिति बनाई थी, जिसे उन्होंने ‘सामाजिक न्याय समिति’ नाम दिया था. यूपी सरकार के तत्कालीन संसदीय कार्य मंत्री हुकुम सिंह को इसका अध्यक्ष बनाया गया था, स्वास्थ्य मंत्री रमापति शास्त्री और विधान परिषद सदस्य दयाराम पाल सदस्य थे.  समिति को ये पता करने जिम्‍मेदारी दी गई थी कि आरक्षण का लाभ उन्हें मिल पा रहा है या नहीं, जिन्हें इनकी आवश्यकता है. समिति को आरक्षण नीति में बदलाव की सिफारिशें देने का निर्देश भी दिया गया था. भाजपा सरकार ने ये फैसला ‘आरक्षण न‌ीतियों की गड़बड़ियां’ दूर करने के लिए किया था.

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सामाजिक न्याय समिति ने 60 दिनों में अपनी रिपोर्ट सौंप दी. भाजपा सरकार ने उसके बाद एक सामाजिक न्याय (30 जुलाई से 6 अगस्त, 2001) सप्ताह मनाया, जिसमें समिति के सुझावों पर राय मांगी गई ‌थी. राजनाथ सरकार ने उस समय सरकार नौकरियों में जातियों के कुल प्रतिनिधित्व का आकलन करने के लिए एक सर्वेक्षण भी कराया था. उस सर्वे के बाद राजनाथ सरकार ने ये नतीजा निकाला था कि आरक्षण अधिकांश लाभ ‌पिछड़ी जातियों में यादवों को और अनुसूचित जातियों में जाटव, चमार और धुसिया को ही मिल रहा है. इन्हीं नतीजों के बाद यादवों और जाटवों को आरक्षण सी‌मित कर दिया गया था.

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दरअसल,हाल में आरक्षण में कोटे में कोटा  पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला उस समय आया जब सात जजों की संविधान पीठ ईवी चिन्नैया बनाम आंध्र प्रदेश मामले में 2004 के उसके फैसले पर पुनर्विचार की जरूरत है या नहीं,पर विचार कर रह थी, जिसमें माना गया था कि अनुसूचित जातियों के बीच किसी तरह का उप-विभाजन नहीं हो सकता. ताजा फैसला उन राज्यों के लिए बेहद महत्वपूर्ण साबित होगा जो प्रमुख अनुसूचित जातियों की तुलना में आरक्षण के बावजूद को आरक्षण का व्यापक लाभ देना चाहते हैं. कोर्ट के इस तथ्य पर मुहर लगाने के बाद कि ऐतिहासिक और अनुभवजन्य साक्ष्य यही बताते  हैं कि अनुसूचित जातियां एक समरूप वर्ग नहीं हो सकतीं, राज्यों को आरक्षण पर अपने हिसाब से कानून बनाने का मौका मिल सकेगा. उप-वर्गीकरण रणनीति का पंजाब में वाल्मीकि और महजबी सिखों, आंध्र प्रदेश में मडिगा के अलावा बिहार में पासवान, यूपी में जाटव और तमिलनाडु में अरूंधतिर समुदाय पर सीधा असर पडेगा. इस मामले में शीर्ष कोर्ट की पीठ ने  8 फरवरी 2024 को अपना फैसला सुरक्षित रखा था. उस समय अदालत ने कहा कि उप-वर्गीकरण की अनुमति न देने से ऐसी स्थितियां उत्पन्न होंगी, जिसमें इस वर्ग के सम्पन्न लोग ही सारे लाभ हड़प लेंगे.

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बता दें इससे पहले, 2004 में पांच न्यायाधीशें की पीठ ने फैसला दिया था कि यह अधिसूचित करने का अधिकार सिर्फ राष्ट्रपति को ही है कि संविधान के अनुच्छेद 341 के तहत किस समुदाय को आरक्षण का लाभ मिल सकता है. राज्यों को इसमें किसी भी तरह के संशोधन का अधिकार नहीं है. तब पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने आंध्र प्रदेश सरकार की तरफ से वर्ष 2000 में लाए गए इसी तरह के एक कानून को रद्द कर दिया. ई.वी. चिन्नैया मामले में शीर्ष कोर्ट ने आंध्र प्रदेश अनुसूचित जाति (आरक्षण का युक्तिकरण) अधिनियम, 2000 को समानता के अधिकार का उल्लंघन करार देते हुए रद्द कर दिया था.

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सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय संविधान पीठ ने जहां छह.एक के बहुमत से एससी.एसटी आरक्षण में कोटे के भीतर कोटे को संविधान सम्मत बताया वहीं चार न्यायाधीशों ने इन वर्गों के आरक्षण में उसी तरह क्रीमी लेयर की व्यवस्था लागू करने की भी आवश्यकता जताई जैसी ओबीसी आरक्षण में है सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय संविधान पीठ ने जहां छह.एक के बहुमत से एससी.एसटी आरक्षण में कोटे के भीतर कोटे को संविधानसम्मत बतायाए वहीं चार न्यायाधीशों ने इन वर्गों के आरक्षण में उसी तरह क्रीमी लेयर की व्यवस्था लागू बात अभी आये सुप्रीम कोर्ट के फैसले की कि जाये तो सुप्रीम कोर्ट की सात सदस्यीय संविधान पीठ ने जहां छह-एक के बहुमत से एससी-एसटी आरक्षण में कोटे के भीतर कोटे को संविधान सम्मत बताया, वहीं चार न्यायाधीशों ने इन वर्गों के आरक्षण में उसी तरह क्रीमी लेयर की व्यवस्था लागू करने की भी आवश्यकता जताई, जैसी ओबीसी आरक्षण में है. सच यह है कि ओबीसी समाज की तरह एससी-एसटी समुदाय में भी कई जातियों की आर्थिक-सामाजिक स्थिति न केवल कहीं कमजोर है, बल्कि उन्हें अपने ही वर्ग की अन्य जातियों से भेदभाव का भी सामना करना पड़ता है. यह एक ऐसी सच्चाई है, जिससे कोई इनकार नहीं कर सकता. यह भी एक तथ्य है कि एससी-एसटी समुदाय में कई जातियां ऐसी हैं, जिन्हें आरक्षण का न के बराबर लाभ मिला है. ऐसा इसलिए हुआ है, क्योंकि आरक्षण का अधिक लाभ इन वर्गों की अपेक्षाकृत समर्थ जातियां उठाती हैं. यही स्थिति ओबीसी में है. कई अति पिछड़ी जातियों तक आरक्षण का लाभ नहीं पहुंचा है.

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सुप्रीम कोर्ट ने एससी-एसटी आरक्षण में उपवर्गीकरण करने का अधिकार राज्य सरकारों को भी दे दिया है. वैसे सुप्रीम कोर्ट ने इस अधिकार का दुरुपयोग होने की भी आशंका जताई है, क्योंकि सत्तारूढ़ राजनीतिक दल वोट बैंक बनाने के लालच में एससी-एसटी जातियों का मनमाना उपवर्गीकरण कर सकते हैं. ऐसे में यह जरूरी है कि राजनीतिक दलों यह बात अच्छी तरह से समझ लें कि आरक्षण सामाजिक न्याय का जरिया है, न कि वोट बैंक की राजनीति का हथियार. एससी-एसटी समुदाय को दिए जाने वाले आरक्षण में बंटवारा किया जाना इसलिए समय की मांग है, क्योंकि आइएएस-आइपीएस अधिकारियों के बच्चों के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि उनकी स्थिति गांव में रहने वाले भूमिहीन-निर्धन लोगों के बच्चों जैसी है. अच्छा होगा कि एससी-एसटी आरक्षण का उप -वर्गीकरण करने के साथ ही उसमें क्रीमी लेयर का सिद्धांत लागू किया जाए. आरक्षित वर्गों में जो भी अपेक्षाकृत सक्षम और संपन्न हैं, उन्हें आरक्षण का लाभ दिया जाना सामाजिक न्याय की मूल भावना के खिलाफ तो है ही, वंचित-निर्धन लोगों के साथ किया जाने वाला अन्याय भी है. आरक्षण प्रदान करते समय यह देखा ही जाना चाहिए कि उसका लाभ पाने वाला पात्र है या नहीं?

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