नज़रिया: जलती रहे लंका-बजता रहे डंका

देश में 'ग़रीबों ' के मसीहा जनता के टैक्स के अरबों रूपये अपना 'डंका बजवाने' पर ख़र्च करते हैं

नज़रिया: जलती रहे लंका-बजता रहे डंका
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निर्मल रानी
अक्टूबर 2016 में समाजवादी पार्टी सरकार के कार्यकाल में उत्तर प्रदेश में तत्कालीन विपक्षी भारतीय जनता पार्टी को अखिलेश यादव की मुखर आलोचना का अवसर उस समय मिला था जब उत्तर प्रदेश में नए बनने वाले राशन कार्ड पर अखिलेश यादव की फ़ोटो प्रकाशित की गयी थी. उस समय विपक्ष का आरोप था कि अखिलेश यादव व उनकी समजवादी पार्टी ऐसा कर अनैतिक काम कर रही है तथा यह सरकारी ख़र्च पर चुनाव प्रचार करने का तरीक़ा है. जबकि अखिलेश यादव की इसपर यह सफ़ाई थी कि जब हम ग़रीबों के लिए काम करते हैं तो सरकार अपनी कारगुज़ारियों का प्रचार आख़िर क्यों न करे ? महाराष्ट्र सहित और भी कई राज्यों में लोकप्रियता हासिल करने के लिए इस तरह के कथकण्डे अपनाए जाते रहे हैं. वैसे भी आप किसी भी राज्य में चले जाएं तो आम तौर पर राज्य परिवहन निगम की बसों पर,ज़िलों,शहरों व क़स्बों के मुख्यालय,सचिवालय तथा ख़ास ख़ास चौक चौराहों पर सरकारी योजनाओं का बखान करने वाले अनेकानेक बड़े बड़े फ़्लेक्स राज्यों के मुख्य मंत्री का हाथ हिलाकर जनता का अभिवादन करते या हाथ जोड़े हुए आदम क़द चित्र के साथ ज़रूर मिल जाएंगे.

 पूरे देश में 'ग़रीबों ' के यह स्वयंभू मसीहा जनता के टैक्स के अरबों  रूपये अपना 'डंका बजवाने' पर ख़र्च करते हैं. इसे दूसरे शब्दों में  'छवि निर्माण ' व्यय भी कह सकते हैं. यदि तथाकथित जनहितैषी इन्हीं राज नेताओं को मिलने वाली हर तरह की सब्सिडी,इनकी सुरक्षा पर होने वाले ख़र्च इनके यातायात ख़र्च तथा विभिन्न तरीक़ों से किये जाने वाले प्रचार पर होने वाले असीमित ख़र्च पर नियंत्रण हो जाए तो यक़ीन कीजिये कि देश के हर ज़िले में हर महीने एक अस्पताल व एक स्कूल अथवा कॉलेज की स्थापना हो सकती है. किसी भी सरकारी योजना का श्रेय लेकर व उसका ढिंढोरा पीट कर यह लोग ऐसा जताते हैं जैसे विभिन्न योजनाओं के माध्यम से यह जनता का ही पैसा जनता पर नहीं ख़र्च कर रहे बल्कि अपनी पुश्तैनी जायदाद से या अपनी पार्टी फ़ंड से ख़र्च कर रहे हों. 

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 गत सात वर्षों से तो पेट्रोल पंप पर विशाल फ़्लेक्स लगाए जाने का प्रचार का एक नया चलन चल पड़ा है. इसमें हमारे 'यशस्वी प्रधानमंत्री' की फ़ोटो के साथ किसी न किसी  योजना का ज़िक्र किया जाता है. आश्चर्य की बात तो यह है कि पेट्रोल पंप पर प्रधानमंत्री की हंसती हुई फ़ोटो के साथ यह विज्ञापन उस दौर में भी लगे हुए हैं जबकि पेट्रोल व डीज़ल की क़ीमतें मंहगाई में कीर्तिमान स्थापित कर चुकी हैं. देश के अनेक शहरों में सौ रूपये प्रति लीटर से अधिक पेट्रोल की क़ीमत पहुंच चुकी है. उसके बावजूद सरकार उसी पेट्रोल पंप पर मंहगे से मंहगा तेल भराते हुए तेल उपभोक्ता से इसी विशालकाय विज्ञापन बोर्ड के माध्यम से अपनी व प्रधानमंत्री के अभिमूल्यन की उम्मीद रखती है ? पेट्रोल पंप पर विज्ञापन लगाए जाने की अवधारणा इसके पहले किसी भी प्रधानमंत्री या उसके प्रचार तंत्र के दिमाग़ में नहीं आई.

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बहरहाल ,श्रेय लेने व यशस्वी बनने के लिए के नए नए विचार नेताओं के दिमाग़ में आ रहे हैं और उनकी कोशिश है कि उनके विरुद्ध लाख कुशासन के ढोल क्यों न पीटे जा रहे हों,जनता बेरोज़गारी व मंहगाई से कितनी ही त्रस्त क्यों न हो,अस्पताल से लेकर शमशान तक क़तारें ही क़तारें क्यों न नज़र आएं परन्तु इन सब के बावजूद उनकी छवि धूमिल नहीं होनी चाहिए. इसीलिये सत्ता का यह भरसक प्रयास रहता है कि झूठ-सच के माध्यम से चाहे उच्च कोटि के 'छवि निर्माण प्रबंधन' के द्वारा या अपने पक्ष में विशिष्ट लोगों के  बयान दिलवाकर अथवा स्वतंत्र,बेबाक व निष्पक्ष मीडिया से आँखें चुराकर अथवा अपनी कठपुतली मीडिया से अपनी पूर्व निर्धारित प्रश्नावली पर आधारित साक्षात्कार कराकर झूठी वाहवाही लूटने की कोशिश की जाती रही है. इसी तरह का एक 'ढिंढोरा विवाद' कोरोनकाल में भी खड़ा हो गया है. अपनी शोहरत का ढिंढोरा पिटवाने में महारत रखने वाले अब तक के सबसे 'कुशल ' प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भले ही कोरोना संकट से जूझ पाने में असफल रहने को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ,स्वयं अपनी पार्टी के नेताओं से लेकर विपक्ष यहाँ तक कि विदेशी मीडिया के भी निशाने पर भले ही हों परन्तु वे इस संकट काल में भी आपदा में अवसर ढूंढ लेने में नहीं हिचकिचाए.

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कोविड टीकाकरण इसकी उपलब्धता व इसके राज्य्वार वितरण को लेकर सरकार की आलोचना हो रही हो परन्तु 'यशस्वी प्रधानमंत्री ' ने टीकाकरण के दोनों डोज़ पूर्ण होने पर दिए जाने वाले प्रमाणपत्र में अपनी फ़ोटो प्रकाशित करने का अवसर नहीं गंवाया. पश्चिम बंगाल चुनाव के समय तृणमूल कांग्रेस ने इसकी शिकायत भी की थी और इसे भाजपा द्वारा चुनाव प्रभावित करने का तरीक़ा बताया था. उसके बाद कई विपक्षी नेताओं ने भी इस बात पर सवाल खड़े किये कि यदि प्रधानमंत्री वैक्सीनेशन मुहिम का श्रेय लेना चाहते हैं तो कोरोना से निपटने में 'सिस्टम की नाकामियों  ' की ज़िम्मेदारी कौन लेगा? अस्पताल,ऑक्सीजन,बेड दवा की उनुप्लब्धता के चलते हुई लाखों लोगों की मौत की ज़िम्मेदारी कौन लेगा ?

 और आख़िरकार बात यहां तक आ पहुंची कि बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री व वर्तमान समय में भाजपा जेडीयू सरकार के सहयोगी जीतन राम मांझी ने तो साफ़ तौर पर कह दिया कि यदि मोदी जी को वैक्सीन प्रमाणपत्र पर अपनी तस्वीर लगाने का इतना ही शौक़ है तो कोविड के कारण होने वाली  मौतों के मृत्यु प्रमाण पत्रों पर भी उनका चित्र लगाया जाना चाहिए. हालाँकि उन्होंने यह भी कहा कि यदि ज़रूरी हो तो वैक्सीन सर्टिफ़िकेट पर देश की संवैधानिक संस्थाओं के मुखिया होने के नाते राष्ट्रपति  उनके साथ प्रधानमंत्री तथा राज्य के स्थानीय मुख्यमंत्री की तस्वीर एक साथ हो सकती है. बहरहाल 'शोहरत ' का डंका बजने का यह वायरस कोरोना प्रमाण पत्र पर छपने वाले चित्र रुपी राजनैतिक वायरस की तरह अब छत्तीसगढ़,पंजाब व झारखण्ड जैसे कई राज्यों में पहुँचने का समाचार है.

परन्तु प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चित्र वैक्सीन सर्टिफ़िकेट  पर सबसे पहले छापने वाली भाजपा  छत्तीसगढ़,पंजाब व झारखण्ड राज्यों द्वारा उनके मुख्यमंत्रियों का चित्र छापने का यह कहकर विरोध कर रही है कि 'यह राज्य सरकारों की प्रचार की भूख है'. उधर इन राज्यों का उत्तर है कि जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी टीकाकरण के बहाने अपना प्रचार कर सकते हैं, ऐसे में यदि अन्य राज्य उन्हीं का अनुसरण करते हैं तो इसमें क्या ग़लत है.ऐसा लगता है कि इस भयानक कोरोना काल में जबकि देश ऐसे भयावह दौर से गुज़रा कि भुक्तभोगी तो दूर,लोगों की परेशानियों को केवल मीडिया के माध्यम से देखने व सुनने वाला एक बड़ा संवेदनशील वर्ग भी अवसादग्रस्त हो गया. परन्तु हमारे राजनेताओं ने इस भयावह काल में भी अपनी पीठ थपथपाने या एक दूसरे पर दोषारोपण करने में कोई कसर बाक़ी नहीं छोड़ी. सत्ता सहित हर दलों की  लगभग यही नीति दिखाई दी कि भले ही जलती रहे लंका-पर बजता रहे उनका डंका.

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