मंहगाई की मार -निर्दयी सरकार -जनता लाचार

तनवीर जाफ़री
सरकार के भरोसेमंद केंद्रीय रेल एवं वाणिज्य मंत्री के हवाले से गत दिनों एक बयान देश के समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ जिसके अनुसार बीती अप्रैल-जून 2021 की तिमाही के दौरान देश ने निर्यात के क्षेत्र में इतिहास का सबसे बड़ा कीर्तिमान स्थापित किया है. मंत्री जी के अनुसार देश ने गत तीन महीनों में 95 बिलियन डॉलर का निर्यात किया है. उन्होंने यह भी फ़रमाया कि इस वर्ष में सरकार 400 बिलियन डॉलर के लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास करेगी. यह वह सरकारी आंकड़े हैं जिसका लाभ ज़मीनी स्तर पर देश की जनता को पहुँचता हुआ दिखाई नहीं देता.
काश इसी तरह कोई केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल की ही तरह मुस्कुराता हुआ देश की जनता को यह भी बताता कि देश को 'अच्छे दिन ' का दुःस्वप्न दिखाने वाली वर्तमान सरकार के दौर में रोज़मर्रा की ज़रूरतों की चीज़ों की बढ़ती मंहगाई के आंकड़े क्या कह रहे हैं ?देश में पेट्रोल,डीज़ल और गैस की आसमान छूती क़ीमतों के आंकड़े क्या बता रहे हैं ? और इन आंकड़ों के अनुसार देश में बेरोज़गारी की स्थिति कहाँ से कहाँ पहुँच गयी है ? डॉलर के मुक़ाबले भारतीय रुपया किन आंकड़ों को छू रहा है ? देश के लोगों के लिए 'निर्यात में ऐतिहासिक बढ़ोतरी' के आंकड़े इतनी अहमियत नहीं रखते जितनी मंहगाई,बेरोज़गारी से जुड़े वह आंकड़े जो जनजीवन पर सीधा प्रभाव डालते हैं .
नवंबर से लेकर जून तक यानी आठ महीने में सरकार ने घरेलू रसोई गैस की क़ीमत में 350/-रूपये की बढ़ोतरी कर डाली. गत 1 जुलाई को तो रसोई गैस में 25 /-प्रति सिलिंडर का इज़ाफ़ा इकट्ठे ही कर दिया गया. इसी तरह डीज़ल व पेट्रोल के दाम सौ रुपये प्रति लीटर के कहीं क़रीब हैं तो कहीं पार कर चुके हैं. कुकिंग ऑयल 225 -275 के बीच बिक रहा है. दूध महंगा हो गया. गोया एक ओर तो महंगाई की मार आए दिन तेज़ से तेज़तर होती जा रही है तो दूसरी ओर बेरोज़गारी भी अपने चरम पर है.
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क्या अच्छे दिन,जन कल्याण,राम राज और सु राज जैसे सपने दिखाने वाली सरकार के ज़िम्मेदारों को इस बात का भी ज्ञान है कि उनकी इन ग़ैर ज़िम्मेदाराना नीतियों व उसके चलते होने वाली अनियंत्रित मंहगाई व बेरोज़गारी का प्रभाव देश की जनता पर क्या पड़ रहा है ? जिन आम लोगों को दो वक़्त की रोटी नसीब नहीं हो रही वह अपने बच्चों की फ़ीस कहाँ से दें ?आज देश के लाखों लोग अपने बच्चों के नाम स्कूल से कटवा चुके हैं क्योंकि वे फ़ीस दे पाने की स्थिति में नहीं हैं. उधर ऑनलाइन शिक्षा प्रणाली ने भी स्मार्ट फ़ोन ख़रीदने व उसे प्रत्येक माह रिचार्ज करने का नया ख़र्च अभिभावकों पर डाल दिया है.
ज़रा सोचिये स्कूल की फ़ीस भरने से लाचार अभिभावक स्मार्ट मोबाईल फ़ोन व उसे चार्ज करने के पैसे कहां से जुटाएगा ? इस ऑनलाइन शिक्षा व्यवस्था ने भी मोबाईल निर्माताओं व नेटवर्क सेवा उपलब्ध कराने वाली कंपनियों अर्थात उद्योगपतियों के लिए तो व्यवसाय में अवसर उपलब्ध कराए हैं. जबकि इससे बचने का प्रत्येक ग़रीब व निम्न मध्यम वर्गीय अभिभावक के पास केवल एक ही उपाय है कि वह अपने बच्चे का नाम ही स्कूल से कटवा दे और खेलने-पढ़ने की उम्र में उसे भी रेहड़ी-रिक्शा चलाने या मज़दूरी करने के रस्ते पर लगा दे. आज तमाम मासूम बच्चे अपनी पढ़ाई छोड़ गलियों में फल सब्ज़ियां बेचते दिखाई दे रहे हैं. यानी लाखों लोगों के सपने चकनाचूर हो रहे हैं परन्तु सरकार अपनी नाकामियों पर पर्दा डालने में ही व्यस्त है.
बेरोज़गारी व मंहगाई का सीधा प्रभाव बाज़ार पर भी देखा जा रहा है. पीयूष गोयल भले ही 400 बिलियन डॉलर के लक्ष्य को प्राप्त करने का सपना दिखाएं परन्तु स्थानीय बाज़ारों में दुकानदारों की हालत ऐसी है कि रोज़ाना कहीं न कहीं से किसी न किसी शोरूम या दुकान के बंद होने की ख़बरें आती रहती हैं. लोगों से अपनी बैंक किश्तें नहीं दी जा रही हैं. लोग अपने सेल्स मैन कम कर रहे हैं. ग्राहक की जेब ख़ाली होने की वजह से बाज़ारों की रौनक़ ग़ायब है. लोगों ने उधार लेकर अपनी ज़रूरतें पूरी करनी शुरू कर दी हैं. परन्तु इसकी भी एक सीमा है कोई उधार भी कब तक लेगा और जब वापसी की कोई आस ही नहीं तो कोई उधार देगा भी तो कब तक ? और इसी बेरोज़गारी व मंहगाई ने देश की ग़रीब असहाय मजबूर जनता को इतना लाचार कर दिया है कि देश के कई इलाक़ों से अब तो आत्म हत्याओं की ख़बरें भी आनी शुरू हो चुकी हैं.
अगर देश में मंहगाई व बेरोज़गारी की वजह से लोग अपनी जान देने पर आमादा हो जाएं,फ़ीस के अभाव में लोग अपने बच्चों को स्कूल भेजना बंद कर अपने उस नौनिहाल से मज़दूरी कराने लगें जिसके उज्जवल भविष्य के सपने ग़रीब मां बाप ने संजोये थे,लोग भूखे रहने को मजबूर हो जाएं,अपने पेट की ख़ुराक अधूरी करने पर मजबूर हो जाएं और इन सब के बावजूद सरकार जनता से 'गर्व' की अनुभूति करने की उम्मीद पाले इससे बड़ी त्रासदी इस देश व यहाँ की जनता के लिए और हो भी क्या सकती है. उम्मीद की जानी चाहिए कि आगामी चुनावों में जनता सरकार के इन नुमाइंदों से 'अच्छे दिनों ' के सपनों का हिसाब ज़रूर मांगेगी. कहना ग़लत नहीं होगा कि आज देश पर मंहगाई की चौतरफ़ा मार है तो दूसरी ओर निर्दयी सरकार है परन्तु इन सब के बीच जनता तो बस लाचार है. (यह लेखक के निजी विचार हैं.)