India America Relation: नई ऊंचाइयों पर भारत-अमेरिका के रिश्ते

-डॉ. आशीष वशिष्
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका की राजकीय यात्रा कुश्लतापूर्वक संपन्न हो गई. पीएम मोदी की इस यात्रा पर दुनियाभर की निगाहें टिकी हुई थी. अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन और प्रधानमंत्री मोदी के साझा बयान और सहमति-पत्रों पर हस्ताक्षर से यह स्पष्ट है कि इस यात्रा से भारत और अमेरिका के उद्योग व व्यापारिक रिश्तों को नये आयाम मिले हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तीन दिवसीय अमेरिकी यात्रा कई मायनों में खास रही. जबर्दस्त स्वागत से लेकर राष्ट्रपति जो बाइडन और टॉप अमेरिकी कंपनियों के सीईओ द्वारा गर्मजोशी से मुलाकात की खबरों ने सुर्खियां बटोरीं. हालांकि पीएम मोदी की यात्रा का क्या परिणाम निकला और यह कितना सफल हुआ इस पर मीडिया की अलग-अलग राय है. कोई इसे भारत-अमेरिकी रिश्तों के नई ऊंचाई पर जाने की शुरुआत बता रहा है तो किसी का कहना है कि इस दौरे से मोदी ने अपनी विदेश नीति की स्पष्ट झलक पेश की है.
इस यात्रा को इस नजरिये से भी कामयाब माना जा सकता है कि जनरल इलेक्ट्रिक तथा हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स लिमिटेड के मध्य भारत में एफ 414 जेट इंजन निर्माण को लेकर समझौता अंजाम तक पहुंचा है. अमेरिका से हुए समझौतों के बाद लड़ाकू विमान के इंजन एफ-414, विनाशक ड्रोन, सेमीकंडक्टर, घातक मिसाइल, तोप, राइफल आदि अस्त्रों और रक्षा उपकरणों का उत्पादन अब भारत में होगा. हमारी कंपनियां उत्पादन करेंगी. इन इंजनों का इस्तेमाल स्वदेशी व महत्वाकांक्षी तेजस युद्धक विमानों में किया जा सकेगा.
वहीं चीन व पाक सीमा की चैकसी के लिये उन्नत किस्म के ड्रोन हासिल करने के लिये जनरल एटॉमिक्स के साथ करार पर हस्ताक्षर हुए हैं. अमरीका ने प्रौद्योगिकी साझा करने के करारों पर भी दस्तखत किए हैं. इसरो-नासा संयुक्त अंतरिक्ष मिशन के जरिए अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन तक जाएंगे. मानव को अंतरिक्ष में ले जाने की रणनीति पर भी दोनों संगठन विमर्श करेंगे.
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माइक्रोन कंपनी 22,500 करोड़ रुपए की लागत से प्लांट लगाएगी और सेमीकंडक्टर असेंबली पर 6500 करोड़ रुपए का निवेश करेगी. सेमीकंडक्टर से ही जुड़ी एक और विख्यात कंपनी देश में 60,000 इंजीनियरों को प्रशिक्षित करेगी और फिर रोजगार देगी. कमोबेश अब हमें सेमीकंडक्टर चिप्स के लिए चीन, सिंगापुर पर आश्रित नहीं रहना पड़ेगा. 5-जी और 6-जी प्रौद्योगिकी में भी अमरीकी सहयोग और क्वांटम समन्वय करार भी किया गया है. जिस अमरीका ने 1999 में कारगिल युद्ध के दौरान भारत को जीपीएफ डाटा देने से इंकार कर दिया था, वही अमरीका आज भारत के साथ विविध स्तर की साझेदारी के करार करने को उतावला है. जाहिर है कि भारत बहुत बदला है. वैसे अमरीकी राष्ट्रपति तब भी और आज भी डेमोक्रेटिक पार्टी के रहे हैं.
निस्संदेह, मिसाइल ले जाने में सक्षम इन ड्रोन से चीन से लगती सीमा की सुरक्षा चुनौतियों का मुकाबला किया जा सकेगा. इसके अलावा अन्य महत्वपूर्ण समझौता सेमीकंडक्टर संयोजन व टेस्टिंग सुविधा को लेकर होना है, जिसमें अमेरिकी कंपनी सवा आठ सौ मिलियन डॉलर का निवेश करेगी. निस्संदेह, ये समझौते दोनों देशों के आर्थिक संबंधों को नये आयाम देंगे. साथ ही भारत आत्मनिर्भरता की तरफ बढ़ेगा और रोजगार के तमाम नये अवसर सृजित किये जा सकेंगे.
प्रधानमंत्री से अमेरिका यात्रा के दौरान बड़ी संख्या में अमेरिकी कारोबारियों, दुनिया की कई नामी कंपनियों के सीईओ की मुलाकात बताती है कि अमेरिका भारत को बड़े व्यापारिक साझेदार के रूप में देखता है. आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ इस यात्रा को दोनों देशों के संबंधों की यात्रा का मील का पत्थर बता रहे हैं. जिससे तकनीकी साझेदारी को नये आयाम मिलेंगे. इलेक्ट्रिक वाहनों के सबसे बड़े निर्माता टेस्ला के मालिक एलन मस्क ने भी अपनी अकड़ त्यागकर भारत में कारखाना लगाने की इच्छा व्यक्त कर दी.
सेना के लिए अत्याधुनिक ड्रोन भी अमेरिका देने राजी हो गया. अनेक अमेरिकी उद्योगपति भारत में अपनी इकाई लगाने आतुर हैं. एलन मस्क का ये कहना बेहद महत्वपूर्ण है कि भारत व्यवसाय हेतु सर्वथा उपयुक्त देश है. इस सबसे चीन को सबसे ज्यादा परेशानी हो रही है. दक्षिण एशिया में अमेरिका, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया के संगठन क्वाड से बीजिंग वैसे ही परेशान है.
भारत की आर्थिक वजनदारी बढने से चीन को विश्व बाजार में अपनी हिस्सेदारी घटने का डर लग रहा है. उसकी आर्थिक विकास दर भी गिरावट की ओर है. कोरोना संकट ने उसकी विश्वसनीयता में जो कमी की उससे वह उबर नहीं पा रहा. श्री मोदी की अमेरिका यात्रा से पाकिस्तान भी भन्नाया हुआ है क्योंकि उसके लाख गिड़गिड़ाने के बाद भी अमेरिका उसकी आर्थिक बदहाली दूर करने राजी नहीं हुआ और भारत के साथ रक्षा सौदे करने जा रहा है.
दोनों देशों को एक-दूसरे की जरूरत का पता इस बात से चलता है कि पिछले एक दशक में दोनों देशों का व्यापार दुगना और चीन से ज्यादा हो गया है. जो न केवल दोनों देशों बल्कि वैश्विक आर्थिकी के भी अनुकूल है. दरअसल, अमेरिकी मदद से दोस्त से दानव बन अमेरिका को चुनौती दे रहे चीन का विकल्प अमेरिका भारत के रूप में देखता है. यही वजह है कि कुछ मतभेदों के बावजूद अमेरिका भारत को एक भरोसेमंद पार्टनर के रूप में देखता है.
टेस्ला इलेक्ट्रिक वाहनों का कारखाना लगाने की एलन मस्क की रजामंदी भी इस बात का प्रमाण है कि हम अपनी शर्तों पर काम करने के लिए दिग्गज बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को बाध्य कर सकते हैं. उल्लेखनीय है भारत आगामी दस सालों में इलेक्ट्रिक वाहनों का सबसे बड़ा बाजार होने जा रहा है. अमेरिकी कांग्रेस को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने ए. आई (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस) को अमेरिका और इंडिया बताकर जो संदेश दिया वह भविष्य की ओर इशारा है. उन्होंने अमेरिकी सांसदों को भारत के सामने स्पष्ट कर दिया कि जल्द ही हम दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने जा रहे हैं. पूरी यात्रा में वे जिस तरह से पेश आए और जिस प्रकार अमेरिकी सरकार ने उन्हें महत्व दिया वह भारत के बढ़ते आत्मविश्वास और सम्मान का प्रमाण है.
वर्तमान वैश्विक हालात में एक साथ रूस और अमेरिका के साथ दोस्ताना बनाए रखने के अलावा भारत ने सउदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात जैसे मुस्लिम देशों के साथ ही इजरायल से प्रगाढ़ रिश्ते बनाए रखकर जिस कूटनीतिक कुशलता का परिचय दिया वह उसके विश्व शक्ति बनने का संकेत है. अन्यथा अमेरिका यूक्रेन संकट पर भारत द्वारा अपनाई गई तटस्थता को अपना विरोध मानकर उसके साथ असहयोग करने से बाज नहीं आता. जी-20 देशों की अध्यक्षता कर रहे भारत को ताकतवर देशों के उन समूहों में भी विशेष तौर पर बुलाया जाने लगा है जिनका वह औपचारिक तौर पर सदस्य नहीं है.
प्रधानमंत्री मोदी की मौजूदा अमेरिका यात्रा का बखान राष्ट्रपति बाइडेन द्वारा की गई मेजबानी के लिए नहीं अपितु इस दौरान हुए विभिन्न आर्थिक, सैन्य और रणनीतिक समझौतों के लिए किया जाना चाहिए. अमेरिका दौरे के साथ मोदी ने इस बात की झलक दी है कि आने वाले वक्त में अमेरिका के साथ भारत के रिश्ते कैसे होंगे. साथ ही उन्होंने यह भी संकेत दिया है कि अमेरिका के साथ रिश्तों को नए सिरे से गढ़ना भारत की विदेश नीति का अहम हिस्सा है. भारत विश्व राजनीति में अहम भूमिका निभा रहा है और वैश्विक अर्थव्यवस्था में भी योगदान दे रहा है. अब भारत का समय आ गया है. भारत एक बड़ी भूमिका का हकदार है. अंतरराष्ट्रीय संस्थानों को बदलती दुनिया के हिसाब से खुद को ढालना चाहिए, ताकि ये दुनिया के कम-प्रभावशाली देशों का भी प्रतिनिधित्व कर सकें.