Dainik Jagran अपने भीतर झांके, स्थानीय अखबारों पर सवाल उठाना बंद करें

नियमों को ताक पर रखकर स्थानीय समाचार पत्रों से विज्ञापन छीने जा रहे

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समाज में गरीब, मध्यम वर्ग, अमीर हर युग में रहे हैं और रहेंगे, सबकी अपनी-अपनी उपयोगिता और आवश्यकता है. यही तीनों वर्ग किसी देश, प्रदेश के प्रगति का आधार बनते हैं. यही बात समाचार पत्रों पर भी लागू होती है, यह सर्व विदित है देश को आजाद कराने में लघु समाचार पत्रोें का सर्वाधिक योगदान रहा है. हिकीज बंगाल गजट से उदंत मार्तण्ड होते हुये आजादी के बाद से ही अनेक बड़े व्यापारियों ने अखबार निकालना शुरू किया. इसके बावजूद छोटे और स्थानीय समाचार पत्रों की भूमिका इसलिये महत्वपूर्ण बनी हई है क्योंकि वे अपने अंचलों की मुखर आवाज बने हुये हैं.

यह और बात है कि नियमों को ताक पर रखकर स्थानीय समाचार पत्रों से विज्ञापन के अवसर लगातार छीने जा रहे हैं. दैनिक जागरण के 11 जून 2022 के अंक में ‘संदिग्ध मंशा’ शीर्षक से एक सम्पादकीय प्रकाशित किया गया है जिसमें इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले को आधार बनाते हुये  कहा गया है कि कम प्रसार वाले समाचार पत्रों में भर्ती विज्ञापन प्रकाशित कराना उस पद के उम्मीदवारों के साथ अन्याय है. इस सम्बन्ध में यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि शासन स्तर पर विज्ञापन प्रकाशन के जो नियम बनाये गये हैं उसके अनुसार एक स्थानीय, एक मण्डलीय और एक राज्य स्तरीय समाचार पत्रों में विज्ञापन प्रकाशित कराये जाने चाहिये. यदि विद्यालय के प्रबन्ध तंत्र ने नियमों का पालन किया होता तो हाईकोर्ट का ऐसा निर्णय नहीं आता. 

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 दैनिक जागरण के सम्पादकीय में एक तरह से स्थानीय समाचार पत्रों की भूमिका को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की गई है जो दुर्भाग्यपूर्ण और चिन्ताजक है. सम्पादकीय लिखने वाले साथी को यदि दैनिक जागरण के संस्थापक स्वर्गीय पूर्णचन्द गुप्ता के संघर्षो का भान होता तो शायद वे इस प्रकार की भाषा का प्रयोग न करते. 1942 में जब झांसी से दैनिक जागरण की शुरूआत हुई उस समय उत्तर प्रदेश में आज सबसे बड़ा समाचार पत्र था. झांसी से कानपुर, लखनऊ, गोरखपुर होते हुये आज  दैनिक जागरण का 11 राज्यों में प्रकाशन हो रहा है तो इसके पीछे स्वर्गीय पूर्णचन्द गुप्ता की सोच और संघर्षों का ही परिणाम है.

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दैनिक जागरण भी अधिकांश स्थानों पर स्थानीय समाचार पत्र है. जिन राज्यों से उसका प्रकाशन नहीं होता वहां अन्य समाचार पत्रों में प्रकाशित विज्ञापनों को क्या अवैध मान लिया जाय ? सच तो ये है कि यदि स्थानीय, मण्डल और राज्य स्तरीय समाचार पत्रों मंें नियमानुसार विज्ञापनों का प्रकाशन हो तो समस्या ही नहीं है. विसंगति यह कि बहु प्रसार के नाम पर स्थानीय समाचार पत्रों का लगातार हक छीना जा रहा है. यदि विभागीय अधिकारियों को बताया जाय कि विज्ञापन स्थानीय समाचार पत्रों सहित तीन समाचार पत्रों में प्रकाशित किये जाने का विधान है तो नियमों का पालन भी होगा और ठेकेदारों, प्रबंधकों की कुत्सित मंशा भी सफल नहीं होगी.

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 दैनिक जागरण के सम्पादकीय की भाषा और स्वर ऐसा है मानो स्थानीय समाचार पत्रों की कोई उपयोगिता ही न हो. इस आधार पर क्या दैनिक जागरण के स्थापना काल में प्रकाशित विज्ञापनों को इस आधार पर खारिज कर दिया जाय कि उसकी प्रसार संख्या उस समय कम थी.  पुराने पत्रकार और सम्पादक बताते हैं कि स्वर्गीय पूर्णचन्द गुप्ता जब कहीं यात्रा पर होते और किसी समाचार पत्र का कार्यालय पड़ता वहां जरूर जाते और संवाद बनाते. ऐसा लगता है कि सम्पादकीय लिखने वाले साथी को यह आभास नहीं है कि अनेक राज्यों में दैनिक जागरण का प्रसार तो छोड़िये, प्रकाशन तक नहीं है. विदेशों की भांति अनेक प्रमुख कहे जाने वाले भारत के समाचार पत्रों के पास कागज बनाने का कोई कारखाना नहीं है और कागज  के लिये वे आयात पर निर्भर है. अहंकार की भाषा ठीक नहीं.

स्थानीय समाचार पत्रों की उपयोगिता को खारिज कर जागरण खुद को बड़ा बनने की भूल न करे. समय-काल परिस्थिति कब किसे कहां ले जाकर खड़ा करे क्या पता.  डिजिटल मीडिया के दौर में अब प्रसार संख्या का स्वरूप बदल चुका है. अच्छा हो कि विज्ञापन नीति का पालन हो और स्थानीय समाचार पत्रों को संदिग्ध बनाने की जगह दैनिक जागरण के जिम्मेदार अपने भीतर भी झांके. विज्ञापन यदि केवल बहु प्रसारित समाचार पत्र में प्रकाशित हुआ हो तो उसे भी अवैध माना जाय और स्थानीय समाचार पत्रोें में विज्ञापनों का प्रकाशन अनिर्वाय रूप से सुनिश्चित कराया जाय.

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