
Weather In India: मौसम के बदलते मिज़ाज को समझिए
-डाॅ. आशीष वशिष्ठ
देश में पिछले कुछ दिनों से मौसम परिवर्तनशील बना रहा है. इससे कई राज्यों में बारिश की गतिविधियां देखने को मिल रही हैं. वर्ष 2022 की तरह ही इस साल भी सर्दियों ने भारत से जल्द विदाई ले ली है. देश के कई राज्यों मार्च के खत्म और अप्रैल के शुरू होते ही गर्मी का प्रकोप देखने को मिला था. एक सप्ताह की चिलचिलाती गर्मी के बाद मौसम ने ऐसी करवट ली कि कूलर और एसी को बंद करना पड़ा था. मई में भी मौसम लगातार अपने तेवर दिखा रहा है. इस वर्ष हालात ये हो गए हैं कि साल 1901 के बाद भारत ने 2023 में सबसे गर्म फरवरी का सामना किया. फरवरी में औसत तापमान 29.54 डिग्री सेल्सियस था. ऐसे में अहम प्रश्न यह है कि मौसम में ये बदलाव क्यों हो रहा है? क्या यह बदलाव आने वाली किसी बड़ी समस्या का संकेत तो नहीं.
भारत ही नहीं, ग्लोबल वार्मिंग का असर अब दुनिया के कई देशों में स्पष्ट नजर आने लगा है. इसी वजह से पिछले एक दशक में भारी बर्फबारी, सूखा, बाढ़, गरमी के मौसम में ठंड जैसी घटनाएं बढ़ी हैं. है. ऐसा भी नहीं है कि एकाध बार किसी निम्न दबाव के चलते ऐसा हुआ. मौसम के मिजाज में यह बदलाव इस साल बार-बार देखने को मिल रहा है. मौसम वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि आने वाले गर्मी के मौसम में हीटवेव पिछले सालों के मुकाबले ज्यादा परेशान करेगी. बढ़ती गर्मी के चलते फसलों के नुकसान का खतरा भी मंडरा रहा है. वैज्ञानिकों के अनुसार, मौजूदा मौसम की स्थिति के लिए ग्लोबल वार्मिंग जिम्मेदार है. वैश्विक औसत तापमान में निरंतर वृद्धि पश्चिमी विक्षोभ जैसी बड़ी मौसम संबंधी घटनाओं की गतिशीलता को प्रभावित कर रही है.
वर्ष 2017 के मार्च महीने में ही गर्मी ने अपना रौद्र रूप दिखाया था. मार्च के आखिरी तीन दिनों में तापमान इतना बढ़ गया था कि लगता है पारा अपने पिछले रिकार्ड तोड़ने पर आमादा है. हरियाणा, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड और राजस्थान, ओडिशा, गुजरात, महाराष्ट्र नौ राज्य ऐसे हैं, जहां गर्मी का पारा 40-42 डिग्री को पार कर गया था. महाराष्ट्र के कुछ इलाकों में पारा 46 डिग्री तक दर्ज किया गया है. हालांकि सर्दी की ठंडक फरवरी के मध्य तक समाप्त होने लगती है, लेकिन ठंडक का एहसास आधे मार्च तक महसूस होता रहा है. मार्च में तापमान औसतन 34-35 डिग्री तक ही रहता है, लेकिन इस बार स्थितियां बेहद गर्म हैं.
उस वक्त अमरीका में राष्ट्रपति ट्रंप ने जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के जिस अंतरराष्ट्रीय प्रस्ताव को रद्द किया था, उसे फ्रांस की राजधानी पेरिस में पारित किया गया था. इस मुद्दे पर चिंतित विमर्श में भारत भी शामिल हुआ था. बुनियादी चिंता यह है कि बेमौसम बरसात, बेमौसम बर्फबारी और ओले, बेमौसम सर्दी और गर्मी के जो प्रभाव देखे जा रहे हैं, वे जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग के ही असर हैं. आशंकाएं जताई जा रही हैं कि बहुत जल्दी तापमान 50 डिग्री तक पहुंच सकता है और कमोबेश महानगरों में फ्लैट की जिंदगी जीना दूभर हो सकता है.
ये किसी सामान्य घटना के आसार नहीं हैं. मौसम विज्ञानी भी परेशान हैं. उनका सोचना है कि क्या अब गर्मी लंबी चला करेगी? दरअसल हमने पेड़ काटे, जंगल बर्बाद कर उजाड़ दिए, घरों में आंगन नदारद है, बल्कि हरियाली भी नगण्य है. जीवन में एयरकंडीशनर का प्रवेश ऐसे हो चुका है मानो शरीर के लिए प्राण हो! वाहनों और घरों में, बेशक, एयरकंडीशनर से ठंडक पैदा होती है. लेकिन ये उपकरण बाहर की ओर जो भीषण गर्मी छोड़ते हैं, उनसे इनसान नहीं प्रभावित होता है, पर्यावरण छलनी होता है और वह ‘गैस चैंबर’ बनता जाता है. ग्रीन हाउस के असर बढ़ रहे हैं. अब तो पहाड़ी इलाकों में भी गर्मी बढ़ने लगी है. नतीजतन एसी, कूलर लगाए जाने लगे हैं. पंखा तो आम प्रचलन में रहा है.
विश्व मौसम विज्ञान संगठन यानी डब्ल्यूएमओ के जलवायु परिवर्तन के पूर्वानुमान डराने वाले हैं. संगठन के अनुसार आने वाले पांच वर्ष अब तक के सबसे गर्म वर्ष साबित होने वाले हैं. जिसके लिये दुनिया के तमाम देशों को तैयार रहना होगा. जाहिर है इससे पूरी दुनिया को भीषण गर्मी, विनाशकारी बाढ़ और सूखे जैसी मौसमी घटनाओं के परिणामों के लिये तैयार रहना होगा. खासकर विकासशील देशों के लिये यह बड़ी चुनौती होगी क्योंकि उन्हें अपनी बड़ी आबादी को इस संकट से सुरक्षा प्रदान करनी होगी. इससे कृषि व अन्य रोजगार के साधन ही बाधित नहीं होंगे बल्कि कई देशों की खाद्य सुरक्षा शृंखला के खतरे में पड़ जाने की आशंका बलवती हुई है.
निस्संदेह, घातक मौसमी घटनाओं के परिणामों से बचने के लिये विकसित व विकासशील देशों को कमर कसनी होगी. दरअसल, पूर्व औद्योगिक युग के स्तर पर 1.5 डिग्री सेल्सियस की खतरनाक वृद्धि से आगे तापमान बढ़ने से अल नीनो प्रभाव के चलते तमाम विनाशकारी परिणाम सामने आ सकते हैं. दरअसल, मानव की अंतहीन लिप्सा के चलते पैदा हुई ग्रीन हाउस गैसों द्वारा उत्सर्जित गर्मी इस संकट में इजाफा ही करने वाली है. जिससे दुनिया के पर्यावरण के व्यापक विनाश की आशंका पैदा हो रही है. हालांकि, विश्व मौसम विज्ञान संगठन की यह टिप्पणी कुछ राहत देती है कि यह वैश्विक तापमान वृद्धि अस्थायी है. लेकिन संगठन इसके बावजूद चेतावनी देता है कि पूरी दुनिया में ग्लोबल वार्मिंग एक हकीकत बन चुकी है. मगर यह भी एक हकीकत है कि जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में हुए सम्मेलनों में किये गये वायदों का सम्मान करने के लिये विकसित राष्ट्र अपने दायित्वों से विमुख बने हुए हैं. निश्चित रूप से जब तक विकसित देश तापमान नियंत्रण की दिशा में ईमानदार पहल नहीं करते पूरी दुनिया एक भयावह आपदा की दिशा में अग्रसर ही रहेगी.
आंकड़ों के आलोक में बात करें तो 1983, 87, 88, 89 और 91 आदि वर्ष सबसे गर्म रहे हैं. शायद अब 2023 इस सूची में शीर्ष पर होगा, लेकिन सवाल है कि यदि तापमान 50 डिग्री तक पहुंच गया, तो मनुष्य कहां और कैसे रहेगा? माना जा सकता है कि भीषण गर्मी और लू के दौरान ऐसा करना संभव नहीं दिखता, लेकिन एसी के स्थान पर कूलर का इस्तेमाल कम हानिकारक होता है और ठंडक भी खूब मिलती है. क्यों न इसी बदलाव के साथ शुरुआत की जाए? आश्चर्य तो यह कि मौसम की विकरालता को हम नजरअंदाज करके बढ़ रहे हैं, जबकि कहीं किसी कोने में खड़ी प्रकृति हमें धिक्कारती है.
यह अल-नीनो का प्रभाव हो या कार्बन उत्सर्जन की हदें अत्यधिक लांघ दी गई हों अथवा पेड़-जंगल गंजे किए जा रहे हों, लेकिन यह आशंकित मौसम किसी प्रलय से कम नहीं है. अब प्रयास हमें ही करने हैं. अभी जागृत और सक्रिय नहीं होंगे, तो हमारी हरकतों के नतीजे आने वाली पीढियों को झेलने पड़ेंगे. लिहाजा अपने ही स्तर पर वृक्षारोपण के आंदोलन छेड़ने पड़ेंगे. सरकारें भी अपनी ओर से ऐसे प्रयास करती रही हैं, लेकिन हमें सरकारों का ही मुखापेक्षी नहीं बनना है. आपदाएं हमारे सामने हैं, संकट हमारे अस्तित्व तक पर है, लिहाजा कोशिशें भी हमें ही करनी पड़ेंगी. शहर और महानगर हम छोड़ नहीं सकते, क्योंकि वहीं काम-धंधे हैं, लेकिन अपने घर, आंगन, आस-पड़ोस और जीवन को ऐसा ढाल सकते हैं कि गर्म गैसों का उत्सर्जन न्यूनतम हो सके. राहत की बात यह है कि अत्याधुनिक तकनीकों की वजह से ऐसी मौसमी घटनाओं का सही पूर्वानुमान लगाना काफी हद तक संभव हो रहा है. इससे जान-माल के नुकसान को कम करना संभव हो सका है. लेकिन मौसम के चक्र में होने वाले इस बदलाव पर अंकुश लगाने में विज्ञान के भी हाथ बंधे हैं.
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