योगी सरकार क्यों नहीं कराना चाहती जातीयगणना?, जाने वजह

योगी सरकार क्यों नहीं कराना चाहती जातीयगणना?, जाने वजह
Yogi Government

यूपी विधानपरिषद में सोमवार को सपा ने प्रदेश में जातिवार गणना कराए जाने का मुद्दा जोर.शोर से उठाया। सपा सदस्यों ने कहा कि दूसरे राज्यों में यह गणना कराई जा रही है। सरकार महाकुंभ में स्नान कराने वाले 66 करोड़ श्रद्धालुओं की गिनती कर सकती है तो फिर जातिवार गणना करने में क्या कठिनाई है। जिसकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी भागीदारी का नारा भी विपक्ष ने लगाया। इस मुद्दे पर सपा सदस्यों ने अपना विरोध जताते हुए सदन से बहिर्गमन कर दिया।

ये चाहते हैं देश में गांधी.प्रदेश में यादव परिवार राज करे

भाजपा उत्तर भारत के कई राज्यों में प्रभावी ओबीसी की तुलना में निचले ओबीसी को लुभाने में अधिक सफल रही। इसलिए भाजपा ने भले ही ओबीसी पर अपनी पहुंच बनाकर चुनावी फायदा ले लिया हो। लेकिन इनके बीच उसका समर्थन उतना मजबूत नहीं, जितना कि उच्च वर्ग और उच्च जातियों के बीच है। जातीय गणना के आंकड़े जारी करने वाला पहला और इकलौता राज्य बिहार है। इसने 2 अक्टूबर, 2023 को ये आंकड़े जारी किए थे। कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने 2014-15 में जाति आधारित जनगणना कराने का फैसला किया। यूपी में जातिगत जनगणना को लेकर बहस थमती नहीं दिख रही है। बजट सत्र के दौरान विधान परिषद में इस पर जमकर नोकझोंक हुई। सपा ने जातिगत जनगणना की मांग उठाई। बिहार का उदाहरण दिया। आखिर भाजपा जातिगत जनगणना क्यों नहीं कराना चाहती ? उसे किस बात का डर है? जातिगत जनगणना से सपा को क्या फायदा होगा? जातियों को इससे क्या फायदा मिलेगा?  भाजपा ने इस मांग को खारिज कर दिया। कहा- जनगणना करने का विषय भारत सरकार के पास है ये राज्य का मामला ही नहीं है। इस पर सपा ने वॉकआउट किया। इसे असंवैधानिक बताया गया तो नाम बदलकर सामाजिक एवं आर्थिक सर्वे कर दिया। इस पर 150 करोड़ रुपए खर्च हुए। 2017 के अंत में कंठराज समिति ने रिपोर्ट सरकार को सौंपी। सर्वे की रिपोर्ट को सिद्धारमैया सरकार ने सार्वजनिक नहीं किया। इसके बाद आई सरकारों ने भी इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया। समिति ने प्रदेश की 79 अन्य पिछड़ी जातियों की आबादी 7.56 करोड़ होने का अनुमान लगाया था। यह आकलन ग्रामीण क्षेत्रों में रखे जाने वाले परिवार रजिस्टरों के आधार पर किया गया था। दलितों की गणना तो समय-समय पर होती रहती है। प्रदेश के स्तर पर अगर पिछड़ों की संख्या 85ः है और स्वर्ण 15ः हैं और इस अनुपात में शासन में गवर्नेस में भागीदारी नहीं है तो समाजवादी पार्टी का यह आरोप पुख्ता होता है। इससे जिसकी स्थिति कमजोर है, उसके लिए योजनाएं बनाई जा सकती हैं। क्योंकि समाजवादी पार्टी इनका प्रतिनिधित्व करने की बात कर रही है। इसकी मांग उठा रही है, इसलिए सपा को इसमें फायदा नजर आ रहा है। सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज (सीएसडीएस) के संजय कुमार के मुताबिक, भाजपा को जातिगत गणना से कतराने का मुख्य कारण एक डर है। अगर जातिगत गणना हो जाती है, तो क्षेत्रीय राजनीतिक दलों को केंद्र सरकार की नौकरियां और शिक्षण संस्थाओं में कोटे में बदलाव के लिए सरकार पर दबाव बनाने का मुद्दा मिल जाएगा। बहुत हद तक संभव है कि ओबीसी की संख्या उन्हें केंद्र की नौकरियों में मिल रहे मौजूदा आरक्षण से कहीं अधिक हो सकती है। यह मंडल-2 जैसी स्थिति पैदा कर सकती है और भाजपा को चुनौती देने का एजेंडा तलाश रहीं क्षेत्रीय पार्टियों को नया जीवन भी। यह डर भी है कि व्ठब् की संख्या भानुमती का पिटारा खोल सकती है, जिसे संभालना मुश्किल हो जाएगा। सपा यह बताने की कोशिश कर रही है कि अगर जातिवार आंकड़े पता चल जाएं, तो हर जाति का मॉडल सोशल स्टेटस पता लग जाएगा। इससे पता चल सकेगा कि राज्य में किस जाति की कितनी आबादी है। अभी सभी जातियां अपनी आबादी बढ़ा-चढ़ाकर बताती हैं। सरकारी और प्राइवेट नौकरी या व्यापार में किनकी कितनी हिस्सेदारी है? जमीन-जायदाद में किसकी कितनी हिस्सेदारी है? किस वर्ग में शिक्षा का क्या स्तर है? किस जाति के कितने लोग दूसरे राज्य या विदेश में रहते हैं? यह सब पता चल सकेगा। इसी आधार पर सरकार योजनाएं बनाने में मदद मिल सकती है। आरक्षण इसी आधार पर घट या बढ़ सकता है।

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जातिवार जनगणना के सवालों पर केशव मौर्य का जवाब

देश में सबसे पहले अंग्रेजों ने 1881 में जनगणना की शुरुआत की थी। इसमें जातियों की भी गिनती कराई गई थी। साल 1891, 1901, 1911, 1921, 1931 और 1941 में जातिवार जनगणना हुई थी। लेकिन, 1941 के जाति के आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए थे। यह पहली बार नहीं है, जब यूपी में जातिगत जनगणना की मांग उठी हो। 2001 में भी विपक्ष जातिगत जनगणना की मांग कर चुका है। बीच-बीच में यह मांग सपा और कांग्रेस उठाती रही। कांग्रेस नेता राहुल गांधी लोकसभा चुनाव में इस मुद्दे को उठा चुके हैं। साल 1931 की जनगणना के बाद ओबीसी की जनसंख्या का कोई प्रामाणिक जातिवार आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। हालांकि, राजनाथ सिंह सरकार के कार्यकाल में साल 2001 में तत्कालीन संसदीय कार्यमंत्री हुकुम सिंह की अध्यक्षता में बनी सामाजिक न्याय समिति की रिपोर्ट तैयार हुई थी। रिपोर्ट के अनुसार, प्रदेश की पिछड़ी जातियों में सर्वाधिक 19.4ः हिस्सेदारी यादवों की हैं। दूसरे पायदान पर कुर्मी और पटेल हैं, जिनकी ओबीसी में 7.4ः हिस्सेदारी है। ओबीसी की कुल संख्या में निषाद, मल्लाह और केवट 4.3ः, भर और राजभर 2.4ः, लोध 4.8ः और जाट 3.6ः थे। यह मानते हुए कि नगरीय क्षेत्रों की आबादी राज्य की कुल जनसंख्या का 20.78ः है। साल 2001 में यूपी में ओबीसी की संख्या राज्य की 16.61 करोड़ की कुल आबादी के 50ः से ज्यादा रही होगी। जातिगत जनगणना कराने का अधिकार सिर्फ केंद्र सरकार के पास है। लेकिन, कुछ राज्यों ने जातीय गणना और आर्थिक सर्वेक्षण के नाम पर जातियों की गणना कराई है। एक साल पहले बिहार सरकार के जातीय गणना के आंकड़ों में अत्यंत पिछड़ा वर्ग 36ः, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) 27ः हैं। सबसे ज्यादा 14.26ः यादव हैं। ब्राह्मण 3.65ः, राजपूत (ठाकुर) 3.45ः हैं। सबसे कम संख्या 0.60ः कायस्थों की है। मनमोहन सरकार ने 2011 में सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना कराने का फैसला किया। डेटा 2013 तक जुटाया गया। इसे प्रोसेस करके फाइनल रिपोर्ट तैयार होती, तब तक सत्ता बदल गई। फिर 2014 में केंद्र में मोदी सरकार आ गई। 2016 में जातियों को छोड़कर बाकी डेटा मोदी सरकार ने जारी कर दिया। चूंकि कमेटी के अन्य सदस्यों का नाम तय नहीं हुआ, लिहाजा कभी मीटिंग ही नहीं हुई। इसीलिए जनगणना में जुटाए जातियों के आंकड़े जस के तस पड़े हैं। यानी जारी ही नहीं हुए। राष्ट्रीय स्तर पर 1931 की अंतिम जातिगत जनगणना में जातियों की कुल संख्या 4,147 थी।-2011 में 46 लाख विभिन्न जातियां दर्ज हुई हैं। चूंकि देश में इतनी जातियां होना नामुमकिन हैं। सरकार ने कहा है कि पूरा डेटा-सेट खामियों से भरा हुआ है। इस वजह से रिजर्वेशन और पॉलिसी डिसीजन में इस डेटा का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। हकीकत में वोटर ही बड़ी संख्या में क्षेत्रीय दलों के प्रमुख समर्थक बन गए। पिछले कुछ चुनावों से यूपी से लेकर दूसरे राज्यों में व्ठब् वोटरों में भाजपा की लोकप्रियता बढ़ी है। माना जाता है, भाजपा को इस तरह की जनगणना से डर यह है कि इससे अगड़ी जातियों के उसके वोटर नाराज हो सकते हैं। इसके अलावा भाजपा का परंपरागत हिंदू वोट बैंक इससे बिखर सकता है। इसे लेकर वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं- पिछड़ों की हकमारी को लेकर भाजपा पर सवाल उठते रहते हैं। सरकार पर सबसे बड़ा आरोप है कि पिछड़ों की जनगणना नहीं कराना चाहती। यूपी के पूर्व मुख्य सचिव आलोक रंजन कहते हैं- सपा जिस च्क्। (पिछड़ा, दलित, आदिवासी) की बात करती है, उसके लिए जातिवार जनगणना का मुद्दा सूट करता है। 

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