योगी सरकार क्यों नहीं कराना चाहती जातीयगणना?, जाने वजह
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यूपी विधानपरिषद में सोमवार को सपा ने प्रदेश में जातिवार गणना कराए जाने का मुद्दा जोर.शोर से उठाया। सपा सदस्यों ने कहा कि दूसरे राज्यों में यह गणना कराई जा रही है। सरकार महाकुंभ में स्नान कराने वाले 66 करोड़ श्रद्धालुओं की गिनती कर सकती है तो फिर जातिवार गणना करने में क्या कठिनाई है। जिसकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी भागीदारी का नारा भी विपक्ष ने लगाया। इस मुद्दे पर सपा सदस्यों ने अपना विरोध जताते हुए सदन से बहिर्गमन कर दिया।
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जातिवार जनगणना के सवालों पर केशव मौर्य का जवाब
देश में सबसे पहले अंग्रेजों ने 1881 में जनगणना की शुरुआत की थी। इसमें जातियों की भी गिनती कराई गई थी। साल 1891, 1901, 1911, 1921, 1931 और 1941 में जातिवार जनगणना हुई थी। लेकिन, 1941 के जाति के आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए थे। यह पहली बार नहीं है, जब यूपी में जातिगत जनगणना की मांग उठी हो। 2001 में भी विपक्ष जातिगत जनगणना की मांग कर चुका है। बीच-बीच में यह मांग सपा और कांग्रेस उठाती रही। कांग्रेस नेता राहुल गांधी लोकसभा चुनाव में इस मुद्दे को उठा चुके हैं। साल 1931 की जनगणना के बाद ओबीसी की जनसंख्या का कोई प्रामाणिक जातिवार आंकड़ा उपलब्ध नहीं है। हालांकि, राजनाथ सिंह सरकार के कार्यकाल में साल 2001 में तत्कालीन संसदीय कार्यमंत्री हुकुम सिंह की अध्यक्षता में बनी सामाजिक न्याय समिति की रिपोर्ट तैयार हुई थी। रिपोर्ट के अनुसार, प्रदेश की पिछड़ी जातियों में सर्वाधिक 19.4ः हिस्सेदारी यादवों की हैं। दूसरे पायदान पर कुर्मी और पटेल हैं, जिनकी ओबीसी में 7.4ः हिस्सेदारी है। ओबीसी की कुल संख्या में निषाद, मल्लाह और केवट 4.3ः, भर और राजभर 2.4ः, लोध 4.8ः और जाट 3.6ः थे। यह मानते हुए कि नगरीय क्षेत्रों की आबादी राज्य की कुल जनसंख्या का 20.78ः है। साल 2001 में यूपी में ओबीसी की संख्या राज्य की 16.61 करोड़ की कुल आबादी के 50ः से ज्यादा रही होगी। जातिगत जनगणना कराने का अधिकार सिर्फ केंद्र सरकार के पास है। लेकिन, कुछ राज्यों ने जातीय गणना और आर्थिक सर्वेक्षण के नाम पर जातियों की गणना कराई है। एक साल पहले बिहार सरकार के जातीय गणना के आंकड़ों में अत्यंत पिछड़ा वर्ग 36ः, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) 27ः हैं। सबसे ज्यादा 14.26ः यादव हैं। ब्राह्मण 3.65ः, राजपूत (ठाकुर) 3.45ः हैं। सबसे कम संख्या 0.60ः कायस्थों की है। मनमोहन सरकार ने 2011 में सामाजिक-आर्थिक जाति जनगणना कराने का फैसला किया। डेटा 2013 तक जुटाया गया। इसे प्रोसेस करके फाइनल रिपोर्ट तैयार होती, तब तक सत्ता बदल गई। फिर 2014 में केंद्र में मोदी सरकार आ गई। 2016 में जातियों को छोड़कर बाकी डेटा मोदी सरकार ने जारी कर दिया। चूंकि कमेटी के अन्य सदस्यों का नाम तय नहीं हुआ, लिहाजा कभी मीटिंग ही नहीं हुई। इसीलिए जनगणना में जुटाए जातियों के आंकड़े जस के तस पड़े हैं। यानी जारी ही नहीं हुए। राष्ट्रीय स्तर पर 1931 की अंतिम जातिगत जनगणना में जातियों की कुल संख्या 4,147 थी।-2011 में 46 लाख विभिन्न जातियां दर्ज हुई हैं। चूंकि देश में इतनी जातियां होना नामुमकिन हैं। सरकार ने कहा है कि पूरा डेटा-सेट खामियों से भरा हुआ है। इस वजह से रिजर्वेशन और पॉलिसी डिसीजन में इस डेटा का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। हकीकत में वोटर ही बड़ी संख्या में क्षेत्रीय दलों के प्रमुख समर्थक बन गए। पिछले कुछ चुनावों से यूपी से लेकर दूसरे राज्यों में व्ठब् वोटरों में भाजपा की लोकप्रियता बढ़ी है। माना जाता है, भाजपा को इस तरह की जनगणना से डर यह है कि इससे अगड़ी जातियों के उसके वोटर नाराज हो सकते हैं। इसके अलावा भाजपा का परंपरागत हिंदू वोट बैंक इससे बिखर सकता है। इसे लेकर वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ कलहंस कहते हैं- पिछड़ों की हकमारी को लेकर भाजपा पर सवाल उठते रहते हैं। सरकार पर सबसे बड़ा आरोप है कि पिछड़ों की जनगणना नहीं कराना चाहती। यूपी के पूर्व मुख्य सचिव आलोक रंजन कहते हैं- सपा जिस च्क्। (पिछड़ा, दलित, आदिवासी) की बात करती है, उसके लिए जातिवार जनगणना का मुद्दा सूट करता है।