गांधी जयंती पर विशेष: सत्य केवल शब्दों ही नहीं बल्कि विचारों की भी सत्यता

गांधी जयंती पर विशेष: सत्य केवल शब्दों ही नहीं बल्कि विचारों की भी सत्यता
Mahatma Gandhi

 बैजनाथ मिश्र. 
वाणी सत्य से ही प्रतिष्ठित होती है यह सब सत्य में प्रतिष्ठित है. इसलिए विद्वान सत्य को ही सबसे ऊँचा बताते हैं. सत्य से बढ़कर कोई धर्म नहीं और झूठ से बढ़कर कोई पाप नहीं. वस्तुतः सत्य ही धर्म का मूल है. प्रकृति के नियमों में ही सत्य का प्रकाश होता है. 

गांधी का मानना है कि जो हमारी आत्मा कहे वही सत्य है लेकिन प्रश्न पैदा होता है कि सभी व्यक्तियों की अन्तरात्मा की आवाज सत्य हो सकती है? गांधी जी इस प्रश्न के उत्तर में कहते हैं कि विभिन्न परिस्थितियों में रहते हुए लोगों की अन्तरात्मा की आवाज एक-दूसरे से भिन्न हो पर वह सत्य है- चरम सत्य नहीं. इस प्रकार एक सत्य दूसरे के लिए असत्य हो सकता है. यदि चरम एवं ईश्वरीय सत्य का ज्ञान प्राप्त करना है तो व्यक्ति को सत्य का प्रयोग करना होगा.

गांधी जी ने कहा, सत्य केवल शब्दों की सत्यता ही नहीं बल्कि विचारों की सत्यता भी है और हमारी अवधारणा का सापेक्षिक सत्य ही नहीं है बल्कि निरपेक्ष सत्य भी है, जो ईश्वर ही है. गांधी जी सत्य को निरपेक्ष सत्य के रूप में ग्रहण करते हैं. सत्य को ईश्वर का पर्यायवाची मानते हैं, इसी सत्य के प्रति निष्ठा है. हमारे अस्तित्व का एकमात्र औचित्य हमारी समस्त गतिविधि सत्य पर केन्द्रित होनी चाहिए. सत्य ही हमारे जीवन का प्राण तत्व होना चाहिए. क्योंकि सत्य के बिना व्यक्ति अपने जीवन के वास्तविक लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता, यह जरूर हो सकता है कि उसे सफलता मिल जाये लेकिन आन्तरिक शान्ति प्राप्त नहीं होगी.

गांधी जी ने कहा, मैं सत्य का एक विनम्र शोधक हूँ. इसी जन्म में मैं आत्म साक्षात्कार के लिए, मोक्ष प्राप्त करने के लिए आतुर हूँ. करोड़ों गूंगी जनता के हृदय में बसे ईश्वर के सिवाय मैं और किसी ईश्वर को नहीं जानता. लोग अपने अन्दर ईश्वर को पहचानते नहीं. मैं पहचानता हूँ. इन लाखों करोड़ों लोगों की सेवा के द्वारा मैं सत्य रूपी परमेश्वर की पूजा करता हूँ.

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गांधी जी सत्य को ईश्वर और ईश्वर को सत्य के रूप में मानते हैं. सत्य हमेशा हितकर और आनन्दयुक्त है. इसमें शोक या अहित के लिए कोई स्थान नहीं है. सत्य से चित् और आनन्द का अनिवार्य संबंध है. चित् का आशय ज्ञान है. इसलिए सत्य का सुख-आनन्द भी शाश्वत होता है.

सत्य का क्षेत्र केवल सत्य बोलने तक ही सीमित नहीं है. गांधी जी ने सत्य के क्षेत्र का विस्तार किया. वे वाणी के सत्य को ही सत्य नहीं मानते, अपितु उनके सत्य के विचार और आचार का सत्य भी सम्मिलित है. गांधी जी ने कहा पृथ्वी सत्य के बल पर टिकी हुई असत् असत्य के माने है- "नहीं" - सत्-सत्य जहाँ आसत् अथवा अस्तित्व ही नहीं है और जो सत् अर्थात् है. उसका नाश कौन कर सकता है. बस इसी में सत्याग्रह का समस्त शास्त्र समाविष्ट है.

सत्य स्वभाव से ही प्रकाशमय है जैसे ही अविद्यारूपी आवरण हट जायेगा वैसे ही सत्य रूपी सूर्य प्रकाशित हो उठेगा. इसलिए सत्यान्वेषण के लिए आत्म-विश्लेषण और आत्मशुद्धि आवश्यक है.

गांधी जी का विचार था कि सत्य निष्ठा पर अडिग रहने के लिए आपेक्षित शक्ति उन्हें अपनी नैतिक शुद्धता तथा काम-क्रोध आदि भयंकर शत्रुओं को अपने से दूर रखने से मिली. इससे दृष्टि और निर्णय दूषित नहीं हो सके. यही कारण था कि वे अन्य राजनीतिज्ञों की अपेक्षा अपनी समस्याओं के आधारभूत सत्य को उन्होंने अच्छी तरह देखा और समझा. इसके साथ-साथ अपनी खामियों-भूलों को भी महसूस करते थे और निःसंकोच रूप से अपनी प्रतिष्ठा की परवाह नहीं करते हुए सार्वजनिक रूप से स्वीकार कर लेते थे.

मनुस्मृति में कहा गया है- "सत्य बोलना भी एक बड़ी कला है जो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में नित्य एवं अविराम साधना से ही संभव है जो व्यक्ति अपनी वाणी पर संयम नहीं रख सकता वह सत्यव्रत का पालन नहीं कर सकता. गांधी जी ने कहा- अनुभव ने मुझे सिखाया है कि सत्य के पुजारी के लिए मौन उसके आध्यात्मिक अनुशासन का एक अंग है जाने-अनजाने बढ़ा-चढ़ाकर कहने की सत्य को दबा देने की या कम-ज्यादा कर देने की वृत्ति मनुष्य की स्वाभाविक कमजोरी है और मौन इस पर विजय पाने के लिए जरूरी है.

गांधी जी ने कहा कि सत्य का परिवेश बहुत व्यापक है, उसमें केवल व्यक्ति ही नहीं बल्कि समस्त समाज और राष्ट्र का भी समावेश है. सम्पूर्ण सत्य (मन, वचन, कर्म का सत्य) का पालन धर्म, राजनीति, अर्थनीति, परिवार सबमें होना चाहिए, व्यक्ति और समाज का कोई पक्ष सत्य से विरक्त न हो. राजनीति में असत्य को आधार माना जाता है लेकिन गांधी जी ने अपने आचरण से सिद्ध कर दिया कि राजनीति में सत्य का पालन पूर्णतः संभव है.

गांधी जी विश्वबंधु संभवतः इसलिए हुए कि उन्होंने सत्य के वैयक्तिक जीवन दर्शन को सामाजिक जीवन व दर्शन में परिणित किया और किसी सीमा तक अपने जैसे व्यक्तित्व की पौध खड़ी कर दी.

गांधी जी का मानना है कि सच्ची विजय सत्य की ही होती है. पर सत्य की विजय सरलता से और आप ही आप देखने में आ जाये तो सत्य की जो कीमत आज है वह न रहे.

 गांधी जी ने माना सत्य ही परमात्मा है. वह हमेशा मौजूद है और हरेक जीव में काम कर रहा है. सत्य और ईश्वर पर्यायवाची शब्दों के रूप में भी व्यक्त किये जा सकते हैं. सत्य शब्द का प्रचलित अर्थ ईश्वर नहीं, गांधी जी ने अनेक स्थलों पर कहा कि संसार अपरिवर्तनीय और अटल नियमों से संचालित है- ये नियम सत्य हैं अतः यही कहा जा सकता है कि जो अपरिवर्तनीय है. वही सत्य है. गांधी जी ने अपनी आत्मकथा की प्रस्तावना में वेदांत की भाषा का प्रयोग करते हुए कहा कि "वही एक सत्य है और दूसरा मिथ्या." उनका यह विश्वास दिनोदिन बढ़ता ही गया कि इस दुनिया में एक ही सत्य है. इसके अलावा और कुछ नहीं. इसलिए परमेश्वर सत्य है ऐसा कहने के बदले सत्य ही परमेश्वर है यह कहना ज्यादा सही है. प्रायः गांधी जी के लिए तो सत्य और परमेश्वर पर्यायवाची शब्द दिखते हैं. इसलिए "ईश्वर के नाम पर कहना और शपथपूर्वक कहना."

सभी को देखते हुए गांधी जी ने सत्य की व्यापक परिभाषा दी और "ईश्वर को सत्य का पर्यायवाची मान लिया." ईश्वर ही सत्य है के सिद्धान्त में आस्था रखने वाले, गांधी जी ने सत्य ही ईश्वर है, के सिद्धान्त को मानना और उसका प्रचार-प्रसार किया जब देखा कि ईश्वर को नकारने वाले तो बहुत है. परन्तु सत्य को नकारने वाला पैदा नहीं हुआ. सत्य ही वास्तविकता का द्योतक है.

 

गांधीजी ने अहिंसा को सत्य को चरितार्थ करने का साधन माना. उनके अनुसार निरंतर अहिंसा का पालन करने का मतलब अन्त में सत्य को प्राप्त करना है किन्तु हिंसा के साथ ऐसी कोई बात नहीं है. इसलिए अहिंसा में मेरी अधिक आस्था है, सत्य स्वाभाविक रूप से मिला लेकिन अहिंसा को मैंने एक संघर्ष के बाद पाया है. अहिंसा के माने हैं प्रेम, त्याग. अहिंसा मरने की कला सिखाती है मारने की नहीं, यही कारण है कि दुनिया की कोई भी शक्ति अहिंसा का मुकाबला नहीं कर सकती. गांधी जी ने देखा कि निजी जीवन में अहिंसा और बाहरी जीवन में हिंसा ये दो चीजें साथ-साथ नहीं चल सकती. इसलिए उन्होंने जीवन के हर क्षेत्र में अहिंसा का पालन का आग्रह किया.

उन्होंने कहा- "हम लोगों के दिल में इस झूठी मान्यता ने घर कर लिया है कि अहिंसा व्यक्तिगत रूप से ही विकसित की जा सकती है और वह व्यक्ति तक ही सीमित है."

वास्तव में ऐसी बात नहीं, अहिंसा सामाजिक धर्म है और वह सामाजिक, धर्म के रूप में विकसित की जा सकती है. सामान्य भाषा में हिंसा किसी प्राणी का प्राण हरण या उसे किसी प्रकार का कष्ट देना ही है क्योंकि हमारा जीवन ही किसी न किसी रूप में हिंसा पर आधारित है. अहिंसा और सत्य के समन्वय से तुम संसार को झुका सकते हो, अहिंसा सर्वोच्च प्रकार की सक्रिय शक्ति है. यह आत्मबल या यों कहें यह हमारे अन्दर देवत्व का फल है. अपूर्ण मनुष्य उस समस्त सारतत्व को ग्रहण नहीं कर सकता, वह उसकी सम्पूर्ण जीत को तो क्या उसके सूक्ष्म को भी सहन नहीं कर सकता और जब यह जीत क्रियाशील हो जाती है तो आश्चर्यजनक कार्य करती है.

आज 2 अक्टूबर को  राष्ट्रपिता गांधी के साथ ही राष्ट्र भक्त पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री का भी जन्मदिन है . पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री महात्मा गांधी के राजनीतिक दर्शन से बहुत प्रभावित थे. एक बार उन्होंने कहा-कठिन परिश्रम प्रार्थना करने जैसा है. उनकी पुत्री की मृत्यु ,बेटे की बीमारी, गरीबी जैसी कोई भी चुनौती या परीक्षा  उन्हें पूर्णतः समर्पित ही कर चुने देश सेवा के पथ से विचलित नही कर सकी. यहाँ तक कि जब शास्त्री जी केंद्रीय मंत्री और बाद में प्रधानमंत्री बन गए तब भी उनके मन मे राजसी जीवन जीने तथा ठाटबाट से रहने के प्रति आकर्षण नही पनप पाया. विरोध प्रदर्शन करने वालो को तितर बितर करने के लिए लाठी चार्ज के बदले पानी की धारा के उपयोग का विचार भी शास्त्री का ही था. राष्ट्र व आम जनता के लिए की गई शास्त्री जी की सेवाओं को देखते हुए कहा जा सकता है कि देश ने भी उन्हें इसका भरपूर प्रतिफल दिया.आज सत्य के उपासक राष्ट्र संत गांधी तथा सादगी के पर्याय शास्त्री को उनके जन्म जयंती के अवसर पर शत शत नमन करता हूँ.

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