Ram Mandir News: संबंध मूल्य को स्थापित करते हैं मर्यादा के श्रीराम
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सौरभ मालवीय
सनातन धर्म के अनुयायी श्रीराम को भगवान मानते हैं तथा उनकी पूजा-अर्चना करते हैं. वह भगवान विष्णु के अवतार माने जाते हैं, जिन्होंने लंका नरेश रावण एवं अन्य राक्षसों का संहार करके मानव जाति को उनके अत्याचारों से मुक्त करवाने के लिए अयोध्या के राजा दशरथ के यहां राम के रूप में जन्म लिया था.
इसके इतर राम ने स्वयं को एक जननायक के रूप में स्थापित किया. उनका संपूर्ण जीवन इस बात का प्रमाण है कि उन्होंने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मर्यादा के नूतन आयाम स्थापित किए. इसीलिए उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है. उन्होंने अपने संपूर्ण जीवन में कभी मर्यादा का उल्लंघन नहीं किया, इसलिए भी उन्हें मर्यादा पुरुषोत्तम कहा जाता है.
श्रीराम एक आदर्श पुत्र थे. उन्होंने अपने पिता राजा दशरथ के वचन का पालन किया. उन्होंने राजा दशरथ द्वारा अपनी पत्नी कैकेयी को दिए वचन को पूर्ण करने के लिए राजपाट त्याग कर चौदह वर्ष का वनवास सहर्ष स्वीकार कर लिया. उन्होंने अपनी माता के वचन का सहृदय से पालन करके यह सिद्ध कर दिया कि उनके लिए पिता के वचन और माता की प्रसन्नता से बढ़कर कुछ भी नहीं है. उन्होंने वैभवशाली जीवन का त्याग करके वन में जीवन व्यतीत करना उचित समझा. उन्होंने अपने पिता की मनोव्यथा एवं उनकी विवशता को अनुभव किया तथा बिना किसी अंतर्द्वन्द्व के वनवास जाने का निर्णय ले लिया. यह निर्णय कोई सरल कार्य नहीं था. आज के युग में कोई अपनी एक इंच भूमि भी अपने भाई को नहीं देना चाहता. भूमि और संपत्ति को लेकर भाइयों के मध्य रक्तपात हो जाता है. ऐसे में त्रेता युग में जन्मे श्रीराम परिवार मूल्य बोध के लिए एक आदर्श स्थापित करते हैं.
’आदर्श भाई’
श्रीराम एक आदर्श भाई भी थे. उनके लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के प्रति अथाह प्रेम, त्याग एवं समर्पण के कारण उन्हें आदर्श भाई माना जाता है. उन्होंने अपनी माता कैकेयी के आदेश पर अपना राज्य अपने छोटे भाई भरत को सौंप दिया और स्वयं अपनी पत्नी सीता और छोटे भाई लक्ष्मण के साथ वनवास के लिए प्रस्थान कर गए.
रामचरित मानस में भक्त शिरोमणि तुलसीदास कहते हैं-
सजि बन साजु समाजु सबु बनिता बंधु समेत.
बंदि बिप्र गुर चरन प्रभु चले करि सबहि अचेत..
अर्थात वन के लिए आवश्यक वस्तुओं को साथ लेकर श्रीराम पत्नी सीता और भाई लक्ष्मण सहित ब्राह्मण एवं गुरु के चरणों की वंदना करके सबको अचेत करके चले गए.
’सद्भाव का संदेश’
श्रीराम ने समाज के प्रत्येक वर्ग को आपस में जोड़कर रखने का संदेश दिया. उन्होंने प्रेम एवं भाईचारे का संदेश दिया. निषादों के राजा निषादराज श्रीराम के अभिन्न मित्र थे. वह ऋंगवेरपुर के राजा थे. उनका नाम गुह्यराज था. वह श्रीराम के बाल सखा थे. उन्होंने एक ही गुरुकुल में रहकर शिक्षा प्राप्त की थी. आदिवासी समाज के लोग आज भी निषादराज की पूजा करते हैं. उन्होंने वनवास काल में श्रीराम, सीता एवं लक्ष्मण को गंगा नदी पार करवाई थी.
’संपूर्ण प्राणियों से प्रेम’
श्रीराम मनुष्यों से ही नहीं, अपितु पशु-पक्षियों से भी हृदय से प्रेम करते थे. पशु-पक्षियों ने भी समय-समय पर उनकी सहायता की. इनकी सहायता से ही उन्हें सीता के हरण के बारे में जानकारी प्राप्त हुई. श्रीराम का गिलहरी से संबंधित एक अत्यंत रोचक प्रसंग है.
जिस समय श्रीराम की सेना रामसेतु के निर्माण के कार्य में व्यस्त थी, उस समय लक्ष्मण ने उन्हें गिलहरी को निहारते हुए देखा. इस बारे में पूछने पर श्रीराम ने बताया कि एक गिलहरी बार-बार समुद्र के तट पर जाती है तथा रेत पर लोटपोट करके रेत को अपने शरीर पर चिपका लेती. जब रेत उसके शरीर पर चिपक जाती, तो वह सेतु पर जाकर सारा रेत झाड़ देती है. वह बहुत समय से ऐसा कर रही है. यह सुनकर लक्ष्मण ने कहा कि वह केवल क्रीड़ा का आनंद ले रही है. इस पर श्रीराम ने कहा कि लक्ष्मण से कहा कि मुझे ऐसा प्रतीत नहीं होता. उत्तम तो यही होगा कि हम इस संबंध में गिलहरी से ही पूछ लेते हैं. उन्होंने गिलहरी से पूछा कि तुम क्या कर रही हो? गिलहरी ने उत्तर दिया कि कुछ नहीं, केवल सेतु निर्माण के पुनीत कार्य में अपना थोड़ा सा योगदान दे रही हूं. उन्हें उत्तर देकर गिलहरी पुनः अपने कार्य के लिए चल पड़ी, तो लक्ष्मण ने उसे रोकते हुए पूछा कि तुम्हारे रेत के कुछ कणों से क्या होगा?
इस पर गिलहरी ने उत्तर दिया कि आप सत्य कह रहे हैं. मेरे रेत के कुछ कणों से कुछ नहीं होगा, परन्तु मैं अपने सामर्थ्य के अनुसार जो योगदान दे सकती हूं, दे रही हूं. मेरे कार्य का कोई मूल्यांकन नहीं, परन्तु इससे मेरे मन को संतुष्टि प्राप्त हो रही है कि मैं अपनी योग्यता एवं सामर्थ्य के अनुसार अपना योगदान दे रही हूं. मेरे लिए यही पर्याप्त है, क्योंकि यह राष्ट्र का कार्य है एवं धर्म का कार्य है. गिलहरी का यह प्रसंग सदैव से ही प्रासंगिक रहा है, क्योंकि इससे यह प्रेरणा मिलती है कि प्रत्येक मनुष्य को अपने सामर्थ्य के अनुसार जनहित एवं राष्ट्र हित में कार्य करना चाहिए.
’नेतृत्व क्षमता’
श्रीराम एक लोक नायक थे. उनमें नेतृत्व की अपार क्षमता थी. उन्होंने समुद्र में पत्थरों से सेतु का निर्माण करवाया, जिसे राम सेतु कहा जाता है. सीताहरण के पश्चात उन्होंने वानरों की सेना के माध्यम से लंका पर चढ़ाई कर दी. एक ओर लंका नरेश रावण की बलशाली राक्षसों की शक्तिशाली सेना थी, तो दूसरी ओर निर्बल वानरों की छोटी सी सेना. किन्तु श्रीराम के पास सत्य की शक्ति थी और वानर सेना का उनके प्रति अटूट प्रेम, श्रद्धा एवं विश्वास था. इस सत्य एवं श्रद्धा के बल पर उन्होंने लंका पर विजय प्राप्त की. वे अपने मित्रों एवं साथियों को आदर एवं सम्मान देते थे. उन्होंने अपने मित्र निषादराज, सुग्रीव, हनुमान, केवट, जामवंत एवं विभीषण आदि को समय-समय पर नेतृत्व करने के अवसर प्रदान किए तथा उनकी हृदय से सराहना भी की.
’मातृभूमि से प्रेम’
लंका पर विजय प्राप्त करने के पश्चात श्रीराम ने लंका का राज्य रावण के भाई विभीषण को सौंप दिया तथा अयोध्या लौटने का निर्णय किया. इस पर लक्ष्मण ने कहा कि लंका में स्वर्गीय सुख है. लंका स्वर्णमयी है. अयोध्या में क्या रखा है? इस पर श्रीराम ने कहा-
अपि स्वर्णमयी लंका न मे लक्ष्मण रोचते.
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी.. (वाल्मीकि रामायण)
अर्थात यद्यपि यह लंका स्वर्ण से निर्मित है, फिर भी इसमें मेरी कोई रुचि नहीं है, जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान है.
श्रीराम ने स्वयं को एक लोकनायक के रूप में ही प्रस्तुत किया. इसलिए वह कभी स्वाभाविक जीवन व्यतीत नहीं कर पाए. उनका बाल्यकाल शिक्षा ग्रहण करते हुए गुरुकुल में व्यतीत हुआ. गुरुकुल में वह राजकुमारों की भांति नहीं रहे, अपितु उन्हें अन्य बालकों की भांति ही अपने सारे कार्य स्वयं करने पड़ते थे. इसके अतिरिक्त में वह अपने सहपाठियों के साथ कंद-मूल एवं लकड़ियां एकत्रित करने वन भी जाते थे. इस प्रकार उनका बाल्यकाल सुख-समृद्धि में व्यतीत नहीं हुआ. युवा होने पर जब उन्हें राज्य का संपूर्ण दायित्व सौंपने का निर्णय लिया गया एवं उनके राज्यभिषेक की तैयारियां होने लगीं, तो उन्हें अकस्मात चौदह वर्ष के लिए वनवास जाना पड़ा. उन्होंने वनवास की समयावधि में भी अनेक कष्टों का सामना किया. जब रावण ने उनकी पत्नी सीता का हरण कर लिया, तो उन्हें पत्नी के वियोग में एवं उनकी खोज में वन-वन भटकना पड़ा. एक साहसी शत्रु से सामना करने के लिए उनके पास कुछ भी नहीं था. उन्हें वानर राज सुग्रीव की सहायता प्राप्त हुई, परन्तु इससे पूर्व उन्हें बाली का वध करके सुग्रीव को राजा
बनाना पड़ा. इस समयावधि में उन्हें अनेक कष्ट एवं आरोपों का सामना करना पड़ा.
एक राजा के रूप में भी श्रीराम ने स्वयं को लोकनायक ही सिद्ध किया. उन्होंने लोकनायक के रूप में शासन किया. वह राजा थे. वह चाहते तो निरंकुश होकर निर्णय ले सकते थे, परन्तु उन्होंने लोकनायक के रूप में आदर्श स्थापित किया. लेखक - लखनऊ विश्वविद्यालय में एसोसीएट प्रोफेसर है. -
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