शेरे नशिस्त, काव्य गोष्ठी मत सुनायें शायरी दरबार में

अफजल हुसेन अफजल के शेर ‘ हर जतन मैंने किया रिश्ता निभाने के लिये, जंग हारी घर में कसदन, घर बचाने के लिये’ एवं सागर गोरखपुरी की रचना ‘ ना मे छिपाये रखते हैं जो हां कभी-कभी, ऐसे भी मिलते रहते हैं मेहरबा कभी-कभी’ पर वाह वाही मिली। हरीश दरवेश ने कुछ यूं कहा- वही जुल्फें, वही जिक्रे, जवानी आज भी क्यूं है, गजल में बस मोहब्बत की कहानी आज भी क्यूं हैं। खैरूल बशर के शेर ‘ जिन्दगी दर्द कोई जब भी नया देती है, एक नया फूल तबीयत में खिला देती है एवं वसीर खान के शेर ‘ नाहक ही अपनी जान को कुरबान क्या करें, वो ह्रिसो हो सारी फौज तो सुल्तान क्या करें’ ने नशिस्त को ऊंचाई दी। रामचन्द्र राजा की रचना ‘ अब इल्तजा मेरी है, मेेरे पास तुम रहो, फिर क्या पता ये प्रेम की बरसात हो न हो, मंसूर कासमी के शेर ‘ मेरे हर ख्याब की सोई हुई ताबीर बोलेगी, नजर में डाल दंू, तूं क्या तेरी तस्वीर बोलेगी’ को सराहना मिली।
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