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श्रीमद्भगवद्‌गीता

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भागवत गीता हिन्दुओं मे सबसे पवित्र ग्रन्थों में से एक है। महाभारत के मुताबिक कुरुक्षेत्र में भागवान श्री कृष्ण ने गीता के विचार अर्जुन को सुनाये थे। श्रीमद्भागवत गीता में 18 अध्याय और 700 श्लोक है, गीता मे आत्मा- परमात्मा, भक्ति, कर्म, आदि का विराट रूप से उल्लेख किया गया है                         

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                                                                                 भगवत गीता श्लोक

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1.परित्राणाय साधूनाम् विनाशाय च दुष्कृतामा |
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ||
अर्थ :- साधु-संतो की रक्षा के लिए दुष्कर्मियो के विनाश के लिए, धर्म को स्थापना करने के लिए मैं युगो - युगो तक धरती पर अवतारित होंगा।

2.पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामह: |
 वेद्यं पवित्रमोङ्कार क्सास यजुरेव च ||

अर्थ :- इस लोक को पैदा करने वाला पिता और इसकी जननी माता स्वयं मैं ही मैं हूं
इस लोक मे प्राप्त करने योग्य (वेद्यं), ओंकार और ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, सब मैं ही है।

3.यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत: |
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ||
अर्थ :- जब जब इस पृथ्वी पर धर्म का नाश होता है और अधर्म का वास  होता है, तब तब मैं धर्म की सुरक्ष्या करने के लिए अवतार लेता हूँ

4न चैतद्विद्मः कतरन्नो गरियो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयु: |
यानेव हत्वा न जिजीविषाम- स्तेSवस्थिताः प्रमुखे धार्तराष्ट्राः ||
अर्थ :- अर्जुन कहते हैं कि मुझे तो ये भी नहीं पता है कि क्या सही है क्या गलत है - हम सब उनसे विजय चाहते हैं या उनके सामने विजय होना चाहते हैं , धृतराष्ट्र पुत्रो को मारकर हम कभी जीना नहीं चाहेंगे फिर भी वो लोग युद्ध के लिए हमारे शमाक्श हैं

5.न हि प्रपश्यामि ममापनुद्या-
द्यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् |
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं
राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ||
अर्थ:- धरती पर सम्पत्ति, उन्नति, और दुश्मनरहित राष्ट्र और स्वर्ग में देवताओं को अधिकार मिल जाए तो फिर भी इन्द्रियों को सूखा देने वाले इस दुख से निकलने का मुझे कोई किरण नहीं दिख रही है |

6कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्म सम्मूढचेताः |
यच्छ्रेयः स्यान्निश्र्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेSहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ||
अर्थ:- मैं अपनी कंजूस शक्तिहीनता के करण अपना साब्र खोते जा रहा हूँ ,  मैं अपने जिम्मेदारी को भूलता जा रहा हूं| अब आप ही मुझे योग्य है जो मेरे लिए उत्तम है| मैं अब से आपका अनुयायी हूं और आपकी आश्रय में हूं| कृपया मुझे शिक्षा दिजिये

7.योगस्थः कुरु कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा धनञ्जय |
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ||
अर्थ:- हे अर्जुन ! कामयाबी और नाकामयाबी की आसक्ति को उत्सर्ग कर अपने शुद्ध मन से कर्म करते रहो| यही समता योग कहलाती है|

8.दुरेण ह्यवरं कर्म बुद्धियोगाद्धञ्जय
बुद्धौ शरणमन्विच्छ कृपणाः फलहेतवः ||
अर्थ:- हे  अर्जुन ! अपनी बुद्धि, योग और चेतना से, बुरे कार्यों से दूर रहो और समभाव से ईश्वर की शरण प्राप्त कर लो। जो व्यक्ति अपने कर्म के फल भोगना चाहता है, वह कृपण हैं

9.विद्याविनयसंपन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पंडिता: समदर्शिन:॥
अर्थ:- ज्ञानी महापुरुष विद्या-विनययुक्त ब्राह्मण में और चाण्डाल में तथा गाय, हाथी एवं श्वान में भी समरूप परमात्मा को देखने वाले होते हैं।

10.यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति | शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः ||
अर्थ:- जो न कभी खुश होता है न द्वेष करता है, न शोक करता है न कामना करता है तथा जो मंगल और अमंगल संपूर्ण कर्मों का त्यागी है वह भक्तियुक्त पुरुष मुझको प्रिय है.

11.प्रकृतिम स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुन: पुन: | भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशम प्रकृतेर्वशात ||
अर्थ:- संपूर्ण जगत उनके विशाल रूप का दास है और श्रीकृष्ण की इच्छा से ही इस संसार का भला और विनाश होता है.और मैं इस संपूर्ण जगत को बार-बार उनके कर्मों अनुसार रचता हूं 

12.कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
अर्थ:- हे अर्जुन ! कर्म करना तुम्हारा अधिकार है लेकिन फल की इच्छा करना तुम्हारा अधिकार नहीं है| कर्म करो और फल की इच्छा मत करो

13.न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्‌। 
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥
अर्थ:- वास्तव में कोई भी मनुष्य किसी भी काल में क्षणमात्र भी कर्म किए बिना नहीं रहता क्योंकि सारे मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा अधीन हुआ कर्म करने के लिए विवश है

14.तं विद्याद् दुःखसंयोगवियोगं योगसञ्ज्ञितम्। 
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा ॥
अर्थ:- दुख के संबंध से विच्छेद की अवस्था को योग के रूप में जाना जाता है। इस योग को जमकर अडिग हो कर और निराशा से मुक्त होकर पालन करना चाहिए।

15.यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः। 
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥
अर्थ:- मगर जो मानव आत्मा में ही रमण करने वाला और आत्मा में ही प्रसन्न तथा आत्मा में ही सन्तुष्ट हो, उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है।

16.प्रकृतेर्गुणसम्मूढ़ाः सज्जन्ते गुणकर्मसु। 
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत्‌॥
अर्थ:- प्रकृति के गुणों से अत्यधिक आकर्षित हुए मनुष्य गुणों में और कर्मों में मोहित रहते हैं, उन पूर्णतया न समझने वाले मूर्ख अज्ञानियों को पूर्णतया जानने वाला ज्ञानी विचलित न करे |

17.अंतकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्‌। 
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥
अर्थ:- जो पुरुष अंतकाल में भी मुझको ही याद करता हुआ शरीर को उत्सर्ग कर जाता है, वह मेरे संमुख स्वरूप को प्राप्त होता है इसमें कुछ भी संशय नहीं है।

18.एवमेतद्यथात्थ त्वमात्मानं परमेश्वर। 
द्रष्टुमिच्छामि ते रूपमैश्वरं पुरुषोत्तम॥
अर्थ:- हे परमेश्वर! आप अपने को जैसा कहते हैं, यह ठीक ऐसा ही है, किंतु हे पुरुषोत्तम! आपके ज्ञान, वैभव, शक्ति, बल, और तेज से युक्त ऐश्वर्य-रूप को मैं साक्षात् देखना चाहता हूँ।

19.चिन्तया जायते दुःखं नान्यथेहेति निश्चयी। 
तया हीनः सुखी शान्तः सर्वत्र गलितस्पृहः॥
अर्थ:- चिंता से ही दुःख उत्पन्न होते हैं किसी अन्य  उद्देश्य से नहीं, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला, चिंताहीन होकर सुखी, शांत और सभी इच्छाओं से स्वतंत्र हो जाता है।

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