ट्विटर पर लगाम- दिखेगा व्यापक प्रभाव

अजय कुमार
उत्तर प्रदेश में धीरे-धीरे चुनावी माहौल बनने लगा है. तमाम दलों के नेताओं की यूपी में सक्रियता बढ़ गई है, जो लोकतंत्र में स्वभाविक भी है, इसी से देश को मजबूती मिलती है, लेकिन चिंता तब बढ़ जाती है जब तमाम राजनैतिक दल और उनके नेता एवं समर्थक पर्दे के पीछे से चुनाव जीतने हराने के लिए साजिशें रचना शुरू कर देते हैं . खुले तौर पर राजनैतिक दलों द्वारा यह साजिशें अपने पक्ष में वोटों के धु्रवीकरण के लिए रची जाती हैं. इसी लिए चुनावी वर्ष में किसी भी राज्य सरकार के लिए प्रदेश में अमन-चैन और सौहार्द बनाए रखना आसान नहीं होता है. चुनाव जीतने के लिए जो साजिशें रची जाती हैं, उसमें बेवजह नेताओं द्वारा उतेजक और भ्रामक बयानबाजी,विरोधी दलों के नेताओं की छवि पर कुठाराघात, साम्प्रदायिक माहौल खराब करने की कोशिशें, जातीय विद्वेष बढ़ाने के प्रयास जैसी घटनाएं शामिल रहती हैं तो चुनाव में विरोधियों को पटकनी देने के लिए ‘साम- दाम-दंड-भेद’ का भी सहारा लिया जाता है. यह सब ‘हरकतें’ इतने सुनियोजित तरीके से अंजाम तक पहुंचाई जाती हैं कि जनता के लिए भी इस बात का अंदाजा लगाना मुश्किल हो जाता है कि हकीकत क्या है. करीब-करीब सभी चुनावों के समय यह मंजर आम हो जाता है. नेताओं के इस तरह के झूठे और बेबुनियाद ओरोपों/चर्चाओं को अमली जामा पहनाने का काम सबसे अधिक कोई करता है तो निश्चित ही इसमें टिवटर जैसे सोशल नेटवर्क अव्वल हैं.अपनी इन्हीं हरकतों के चलते हिन्दुस्तान में ट्विटर विवादों में घिर गया है.
आजकल सोशल नेटवर्क के माध्यम से ही सबसे अधिक विभिन्न दलों के नेताओं द्वारा चुनाव को प्रभावित करने के लिए कुछ रसूखदार लोगों से अपने पक्ष में बयानबाजी कराई जाती है. यह खटराग इसलिए करना पड़ता है, क्योंकि नेता जानते है कि जनता के बीच उनकी ‘इमेज‘ काफी खराब हो चुकी है. जनता उनकी बातों पर विश्वास नहीं करती है. ऐसे में जब समाज के कुछ प्रभावशाली या बुद्धिजीवी लोग कोई बयान सोशल प्लेटफार्म पर देते है जनता उनकी बातों पर सहज भरोसा कर लेती है. इसके लिए सोशल मीडिया पर मुहीम चलायी जाती है तो मीडिया मंचों पर बहस के द्वारा भी ‘हवा का रूख‘ बदलने की कोशिश होती है. यह करना गलत नहीं होगा कि अब मीडिया भी निष्पक्ष नहीं रह गया है. सबके पीछे किसी न किसी पार्टी-दल या नेता के समर्थन या विरोध का ठप्पा लगा हुआ.मीडिया जब जनपक्ष की नहीं सियासी पक्ष की बात करती है.
बात यहीं तक सीमित नहीं है समय के साथ धार्मिक ‘हस्तियां‘ भी सियासत के खेल में हाथ अजमाने का मौका छोड़ने को तैयार नहीं है. वोटरों को प्रभावित करने के लिए धार्मिक नेता चुनाव के समय विभिन्न दलों -नेताओं के प्रति अपना जुड़ाव जगजाहिर करने का मौका नहीं छोड़ते है. कहीं कोई किसी के पक्ष में ‘फतवा‘ जारी करता है तो कोई बयानबाजी के ‘सहारे‘ सरगर्मी बढ़ता है. पिछले कुछ वर्षों से सोशल मीडिया चुनाव के समय मुद्दे का प्रचार करने का ‘सहज‘माध्यम बन गया है. चुनाव के समय यह प्लेटफार्म कुछ और ही ज्यादा सक्रिय हो जाता है,जैसा की यूपी के गाजियाबाद में देखने को मिल रहा है. जहां एक मामूली घटना को सोशल मीडिया पर साम्प्रदायिक रंग देकर प्रदेश का माहौल खराब करने की साजिश रची गई. इतना ही नहीं केन्द्र के बार-बार कहने के बाद भी इस पोस्ट को ट्विटर द्वारा हटाया नहीं गया.
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बहरहाल, केन्द्र ने जब ट्विटर के खिलाफ सख्त कदम उठाया तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी साफ कर दिया है कि सोशल मीडिया पर दुष्प्रचार करने वालों के खिलाफ कठोर कार्रवाई की जाएगी. फेक विडियो, फेक न्यूज के प्रसार करने वालों से सख्ती से निपटा जाएगा. सांप्रदायिक उन्माद बढ़ाने की एक भी कोशिश स्वीकार नहीं कि जाएगी. शासन द्वारा प्रदेश के सभी जिलाधिकारियों, मुख्य चिकित्साधिकारियों और पुलिस अधिकारियों को भेजे गए निर्देश में कहा गया है कि टीके को लेकर अफवाहें फैलाने वालों को समझाए जाए कि यह टीकाकरण उन सबके लिए जरूरी है और इससे लोग कोरोना से भी सुरक्षित हो सकेंगे. इसके बाद भी अगर लोग बाधा उत्पन्न करें तो उनसे भी सख्ती से निपटा जाए. निर्देश में यह भी कहा गया है कि अगर समझाने के बाद भी अफवाहें फैलाने वाले नहीं मानें तो उनके विरूद्ध महामारी अधिनियम के तहत कार्रवाई की जाए. (यह लेखक के निजी विचार हैं.)