अनिरूध जगन्नाथ- भारत के बाहर के एक बड़े भारतीय का अवसान
आर.के. सिन्हा
अगर भारत से हजारों किलोमीटर दूर बसे मॉरीशस को लघु भारत कहा जाता है तो इसका श्रेय़ अनिरूध जगन्नाथ जैसे वहां के जन नेताओं भी को देना होगा. उन्होंने दोनों देशों के लोगों को सांस्कृतिक और भाषा के स्तर पर जोड़े रखने की जीवन पर्यंत कोशिशें की. अनिरूध जगन्नाथ के निधन से भारत का मित्र और भारत से बाहर सबसे बड़ा भारतीय का अवसान हो गया है. वे हिन्दी और भोजपुरी भाषा को दिल से चाहते थे. वे मॉरीशस के प्रधानमंत्री एवं राष्ट्रपति दोनों ही पदों पर रहे थे.
मारीशस की राजधानी पोर्ट लुई में कुछ साल पहले हुए विश्व हिन्दी सम्मेलन में वे लगातार उपस्थित रहे थे. अनिरुद्ध जगन्नाथ का निधन हिंदी लिए भी बड़ी क्षति है. वे 91 साल के थे. उन्होने भरपूर जीवन व्यतीत किया. भारत और हिंदी के प्रति अपने खास लगाव के लिए पहचाने जाने वाले अनिरुद्ध जगन्नाथ को प्रथम प्रवासी भारतीय सम्मान से नवाजा गया था.जगन्नाथ जी ने भारत मारीशस के द्विपक्षीय संबंधों को मजबूती देने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी. यूं तो फीजी, त्रिनिडाड, गुयाना तथा सूरीनाम में भी भारतवंशी बहुमत में या फिर काफी संख्या में है, पर मारीशस की बात ही कुछ और है. वह तो भारत से बाहर एक लघु भारत ही लगता है. उसे इस स्थिति तक पहुंचाने में अनिरूध जगन्नाथ और उनसे पहले शिवसागर राम गुलाम जैसे भारतवंशी नेताओं का अहम रोल रहा.
अनिरुद्ध जगन्नाथ के बिहारी पूर्वज यादव जाति से संबंध रखते थे. हालांकि वे अपने नाम के साथ यादव लिखते नहीं थे. इस तरह की रिवायत सामान्यत: मारीशस में नहीं है.ब्रिटिश सरकार उनके पुरखों को गिरमिटिया श्रमिक के रूप में मारीशस लेकर गई थी, गन्ने के खेतों में काम करवाने के लिए. इन श्रमिकों ने दुनिया के विभिन्न हिस्सों में कमाल की जीवटता दिखाई और घोर परेशानियों से दो-चार होते हुए अपने लिए जगह बनाई. इन भारतीय श्रमिकों ने लंबी समुद्री यात्राओं के दौरान अनेक कठिनाइयों को झेला. अपने देश से हजारों किलोमीटर दूर जाकर बसने के बावजूद इन्होंने अपने संस्कारों को छोड़ा नहीं.
अनिरूध जगन्नाथ के लिए अपना धर्म, भाषा और संस्कार बेहद खास थे. हालांकि वे मारीशस के मूल्यों को भी पूर्णत: आत्मसात कर चुके थे. भारत से गिरमिटिया श्रमिकों को फिजी, गुयाना, मॉरिशस तथा कैरीबियाई द्वीप समूह भेजे गए थे. दरअसल ब्रिटेन को 1840 के दशक में गुलामी का अंत होने के बाद श्रमिकों की जरूरत पड़ी जिसके बाद भारत से गिरमिटिया मजदूर बाहर के देशों में जाने लगे. बेशक भारत के बाहर जाने वाला प्रत्येक भारतीय अपने साथ एक छोटा भारत ले कर जाता था. इसी तरह भारतवंशी अपने साथ तुलसी रामायण, हिंदी भाषा, खान पान एवं परंपराओं के रूप में भारत की संस्कृति ले कर गए थे.
मारीशस में रह रहे भारतीय समुदाय को अपनी विरासत एवं भारत पर गर्व है. आज जब महान भारतवंशी नेता अनिरुद्ध जगन्नाथ नहीं रहे हैं तो भारत-मारीशस सरकारों को दोनों देशों के लोगों को जोड़ने के लिए और अधिक प्रयास करने चाहिए. भारत को उन सभी मारीशस में बसे भारतवंशियों को भारत की यात्रा करने का अवसर देना होगा जो यहां आना चाहते हैं. उनकी टिकटों को सस्ता किया जा सकता है. मारीशस में हर साल 2 नवंबर को उन मजदूरों याद किया जाता है जो यहां भारत से मॉरिशस के कुलीघाट पहुंचे थे. पहला जत्था 1834 में पहुंचा था. ये आयोजन वहां के ऐतिहासिक आप्रवासी घाट पानी “कुली घाट” पर होता है. इसमें अनिरुद्ध जगन्नाथ हमेशा भाग लेते थे.
इधर की प्रत्येक ईंट और पत्थर धैर्य, संघर्ष एवं बहादुरी की कहानी कहता है. यह उन गिरमिटिया मजदूरों की कहानी है, जो यहां आए थे. यही विरासत आज मारीशस के लोगों का मार्गदर्शन करती है तथा उनको सुदृढ़ करती है. उस दिन एम वी एटलस नामक जलयान विशाल हिंद महासागर की भयावह तरंगों से संघर्ष करते हुए भारत से श्रमिकों के पहले समूह को मारीशस लाया था.भारत और मारीशस के बीच संबंध असाधारण है जो साझी ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक विरासत पर आधारित है.
भारत और मारीशस के स्वतंत्रता संघर्षों को एक दूसरे से प्रेरणा एवं ऊर्जा मिलती है.भारत हमेशा से मारीशस का दृढ़ मित्र रहा है और आगे भी रहेगा. बहरहाल, यह एक सुखद संयोग ही है कि मारीशस के वर्तमान में अनिरूद् जगन्नाथ के पुत्र हैं वहां के प्रधानमंत्री. वे भी भारत के गहरे दोस्त और हिन्दी प्रेमी हैं. इसलिए उम्मीद की जा सकती है कि भारत और लघु भारत मारीशस के संबंध बेहतर होते रहेंगे. भारत का भी दायित्व रहेगा कि वह मारीशस से अपने संबंधों को और मजबूती प्रदान करे.
मारीशस की हर स्तर पर मदद करे. भारत को फीजी, सूरीनाम और गयाना जैसे टापू देशो के साथ भी गहरे संबंध स्थापित करने होंगे. वहां पर बसे भारतवंशियों के हितों का ध्यान रखना होगा. फीजी में तो भारतवंशियों के साथ कसकर भेदभाव होता रहा है. यही करना हमारी ओर से अनिरुद्ध जगन्नाथ को सच्ची श्रद्धांजलि होगी. (लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं. यह उनके निजी विचार हैं.)