भारतीय बस्ती स्थापना दिवस 2025: पाठकों का भरोसा ‘भारतीय बस्ती’ की शक्ति
भारतीय बस्ती के संस्थापक रहे स्व. श्री दिनेश चंद्र पांडेय का वर्ष 2024 में प्रकाशित लेख
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दैनिक भारतीय बस्ती के संस्थापक श्री दिनेश चन्द्र पाण्डेय का गत 18 फरवरी 2025 को निधन हो गया. स्मृति शेष श्री दिनेश चन्द्र पाण्डेय मेरे पूज्य पिता ही नहीं पत्रकारिता के प्रथम गुरू भी थे. उन्होने 2024 के स्थापना दिवस के लिये जो लेख लिखा था उसे पुनः प्रकाशित किया जा रहा है जिससे स्मृतियां जीवन्त हो. उनके विचार, संस्कार, सरोकार सदैव प्रेरणा देते रहेंगे.
'भारतीय बस्ती' की प्रकाशन यात्रा पाठकों के विश्वास से अनवरत जारी है. 'इस पथ का उद्देश्य नहीं है, श्रांत भवन में टिक रहना, किंतु पहुंचना उस सीमा तक, जिसके आगे राह नहीं.'
बाबू जयशंकर प्रसाद की इन्हीं पंक्तियों को आदर्श मानकर ‘भारतीय बस्ती’ दैनिक का प्रकाशन 44 साल पहले आरम्भ किया गया था, जो आज ‘बस्ती’ और राम जी की नगरी ‘अयोध्या’ से प्रकाशित हो रहा है. बस्ती जैसे पिछड़े कहे जाने वाले क्षेत्र के लोगों ने ‘भारतीय बस्ती’ के प्रति सदा बड़ा दिल दिखाया. आम जनमानस ने इतना विश्वास दिया कि कठिनाइयाँ कभी हरा नहीं सकीं. यही हाल अयोध्या के लोगों का रहा. बिना पूंजी के, आम जनमानस के भरोसे ‘भारतीय बस्ती’ अपने प्रकाशन के 45वें वर्ष में प्रवेश करने जा रहा है. हमारे साथियों ने इसे अख़बार नहीं, अपने मानस का द्वार समझा और लगे रहे इस लंबी यात्रा को जीवंत बनाए रखने में. वेडेल फिलिप्स के इस विचार को सदा आत्मसात किया और उनका यह ध्येय वाक्य 'भारतीय बस्ती' के संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित कर, उसे पूरा करने का संकल्प लेते हैं-

'हम समाचार पत्र प्रकाशित करते हैं तो इस बात की परवाह नहीं करते कि कौन धर्म का नियामक है और कानून का निर्माता.'
'भय काहू को देत ना, ना भय मानत आन'.
ना डरे, ना डराया. चलते रहे आम आदमी के विश्वास के सहारे अपने लक्ष्य की ओर. हमें पता है कि पत्रकारिता अनंत प्रक्रिया का हिस्सा है. हम नित्य अपनी मंज़िल की ओर आगे बढ़ने का प्रयास करते रहते हैं.
'मंज़िल मिले, मिले, ना मिले इसका ग़म नहीं, मंज़िल की जुस्तजू में मेरा कारवां तो है.'
जनकवि बाल सोम गौतम की ये पंक्तियाँ मंत्र की तरह जपते रहते हैं-
'सीधा-सादा सच्चा लिख, जो भी लिख पर पक्का लिख, मत लिख इनके उनके जैसा, केवल अपने जैसा लिख.'
‘भारतीय बस्ती’ ने अपना रास्ता स्वयं बनाया और चलते जा रहे हैं उसी रास्ते पर. बस्ती के पहले दैनिक ‘ग्रामदूत’ के संपादक बाबू गिरिजेश बहादुर सिंह राठौर ने धर्मशाला के कमरे से एक ताव कागज और एक पेंसिल की पूंजी लेकर ग्रामदूत दैनिक का प्रकाशन किया. इस संकल्प ने हमारे लिए मार्गदर्शन का काम किया और बल देकर चेताया कि पूंजी के बिना भी दैनिक अख़बार का प्रकाशन किया जा सकता है. अपने पथ पर चलते गए और जन विश्वास की पूंजी के सहारे बढ़ते जा रहे हैं आगे ही आगे.
आज जब देश का कोई हिन्दी दैनिक सौ साल की यात्रा भी पूरी नहीं कर पाया-वाराणसी के ‘आज’ ने जोड़-बटोर कर सौ साल पूरे किए-तब बस्ती जैसे पिछड़े कहे जाने वाले स्थान से दैनिक के प्रकाशन की आधी सदी की विश्वसनीय यात्रा को हम नहीं, आम आदमी आंक रहा है. इसे ही हम हर प्रति को अपनी मंज़िल समझ कर पत्रकारिता को शिरोधार्य किए हुए हैं और आगे चलते ही रहेंगे. वैसे, जिसने एक अंक भी प्रकाशित किया, वह भी हमारे लिए प्रेरणा का स्रोत है.
प्रदीप और उनके साथियों के क्रियाशील नेतृत्व में ‘भारतीय बस्ती’ प्रकाशन समूह के अख़बार, वेबसाइट, 'आवाज भारती' नेटवर्क का नया स्वरूप जन विश्वास के भरोसे अग्रसर है. आपका प्यार, दुलार और विश्वास ही हमारा संबल है. अब दूसरी-तीसरी पीढ़ी और उनके साथी जन विश्वास के सहारे आगे कदम बढ़ा रहे हैं. कहना ही पड़ता है- 'क्या दिया नहीं जन विश्वास ने हमें, क्या लिखा नहीं मेरे नाम से, हम फिदा हैं तेरे दुलार पर, कि जग लिख दिया हमारे नाम पर.'
और अब पैंतालीसवें वर्ष के लिए यही कहना है- 'ऐ जनम साथियों, ऐ करम साथियों, लो संभालो तू अपने ये साजो-ग़ज़ल. मेरे नग्मों को अब नींद आने लगी.'
फिर भी अंतिम सांस तक 'भारतीय बस्ती' के लिए ही जीना है. हार नहीं मानूंगा. 'काल के कपाल पर लिखूंगा, मिटाऊंगा, आपको सुनाऊंगा, आपको दिखाऊंगा, 'भारतीय बस्ती' पढ़ाऊंगा.'
- मुख्य संपादक
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