बाबा से सीखा पत्रकारिता का ककहरा
भारतीय बस्ती स्थापना दिवस
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राहुल सांकृत्यायन
मैंने जब से होश संभाला खुद को ऐसे माहौल में पाया जहां सुबह सूरज की किरणें अकेले नहीं आतीं, वो अपने साथ स्याही की गंध और कागज की महक लेकर आती है. अक्सर बचपन में लोगों से पूछा जाता है कि उनके परिजन या अभिभावक या माता-पिता क्या करते हैं? मुझसे कभी किसी ने नहीं पूछा. कम से कम केंद्रीय विद्यालय के 10 साल में तो बिल्कुल भी नहीं. इसकी वजह यह नहीं थी कि मेरे बारे में लोग बहुत जानते थे. लोग मेरे बाबा स्व. श्री दिनेश चंद्र पांडेय के बारे में जानते थे. उत्तर प्रदेश स्थित बस्ती में जहां जिला पंचायत के आवंटित बड़े से हिस्से में केंद्रीय विद्यालय था, उसके ठीक बगल, भारतीय बस्ती का बड़ा सा दफ्तर था. एक बड़ा हॉल. जिसमें बाबा जी बैठते थे.
उस हॉल का जिक्र होते ही आज भी मेरे जेहन में वो बड़ी सी टेबल, लकड़ी की वो कुर्सी, दराज और टेबल पर शीशे के नीचे रखे कागजों की यादें ताजा हो जाती हैं, जहां बाबा जी बैठते थे. शायद उसी वक्त से मेरे दिल-ओ-दिमाग में पत्रकारिता ने कहीं घर कर लिया. भले ही मैंने 10वीं तक साइंस, 12वीं में कॉमर्स और स्नातक में बीकॉम किया लेकिन इसके बाद मैंने अपनी जिंदगी का जो रुख पत्रकारिता की ओर मोड़ा, उसके पीछे इस बड़े से हॉल का बड़ा योगदान था.
उस बड़े से हॉल में मैंने क्या नहीं देखा. अपने जीवन का सबसे पहला कंप्यूटर. फ्लॉपी डिस्क जिसकी काली फिल्म से आग उगलता सूरज भी नरम दिखाई पड़ता था. कटिंग मशीन, प्रिंटिंग मशीन, प्लेट मेकिंग. मैंने इसी हॉल में कंपोजिंग भी देखी. इसी हॉल का योगदान था कि मैंने जब पत्रकारिता में परास्नातक की परीक्षा दी तो प्रिंटिंग का विषय मैं पढ़कर नहीं गया था क्योंकि एक बड़ी आबादी के लिए जो थ्योरी थी, वो मैंने अपनी आंखों के सामने व्यवहारिकता में बदलते और ढलते देखा था.

और इस हॉल को ऐसा बनाने में किसका योगदान था? बाबा जी का. कंपोजिंग से लेकर प्रिंटिंग मशीन तक. सबके बारे में कुछ न कुछ जानने की वजह बाबा जी ही थे. जब स्कूल से मेरी छुट्टी होती तो मैं सीधा दफ्तर आता क्योंकि फिर वहीं से बाबा जी मुझे घर लेकर जाते. बाबा जी मुझे घर पहुंचाने से पहले अखबार में अपने हिस्से का काम खत्म कर के ही जाते थे. अगर कभी मशीन काम नहीं कर रही है तो एक ऑफसेट प्रेस पर मैं उनके साथ जाता था, जहां बटर पेपर पर पूरा अखबार उल्टा छपा होता थ (रिवर्स में). फिर जब वो अखबार छप कर आता था तो ऐसा लगता था कि उसके छपने में मेरा भी योगदान है.
बाबा जी ने पहली बार मुझसे अखबार का कौन सा काम कराया था, वो मुझे आजतक याद है. बाबा जी की आंख का ऑपरेशन हुआ था. ये वो वक्त था जब मेरी गर्मी की छुट्टियां चल रहीं थीं और इसी दौरान आरएनआई (अब भारत के प्रेस महापंजीयक) को अखबार की वार्षिक विवरणी भेजी जानी होती थी. डॉक्टर की सलाह पर बाबा जी ने खुद को करीब डेढ़ महीने तक काम से लगभग अलग रखा था और वह घर ही रहे लेकिन जो काम जरूरी है वो तो होता ही. ऐसे में उन्होंने मुझे लगाया.
एक रजिस्टर में भारतीय बस्ती के बारहों महीने की छपाई, स्याही, बिजली, कितने अंक छपा और कितना नहीं छपा. कितने दिन छुट्टी रही और हर अंक छपने में कितना प्रतिशत कागज खराब और मशीन पर डेप्रिसिएशन यानी ह्रास कितना लगा... ये सारी कैलकुलेशन, उसी समय पहली बार मेरे दिमाग में फिट हुई. मैं दावे के साथ तो नहीं कह सकता लेकिन उस वक्त जिस तरह मैंने बाबा जी के निर्देशों पर कागज के रेट, स्याही के दाम और अन्य चीजों के कैलकुलेशन किये थे, अगर वही तरीका आज भी लागू होता हो, तो मैं थोड़ा बहुत कर ले जाऊंगा. 1 रिम कागज में कितनी शीट आती है और कितनी स्याही में कितना अखबार छपेगा... ये सब वो चीजें हैं जो खबर लिखने की दुनिया से दूर हैं.
बाबा जी अक्सर ये कहते थे, खबर लिखना बहुत कठिन काम नहीं है लेकिन प्रबंधकीय काम संभालना जब सीख जाओगे तब बहुत कुछ आसान हो जायेगा. मुझे अच्छी तरह से याद है जब मैं पहली बार साल 2013 में दिल्ली आया तब बाबा जी मुझे सीजीओ कॉम्पलेक्स ले गये थे. वहीं डीएवीपी (अब सीबीसी) के दफ्तर से मेरी मुलाकात कराई थी. फिर जब मैं ग्रेजुएशन करने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अनुषांगिक महाविद्यालय ईश्वर शरण डिग्री कॉलेज गया, उसके बाद भी जब मैं घर लौट कर आता तो दफ्तर जरूर जाता था. चाहे बाबा जी के साथ या अकेले. 10वीं और 12वीं में गर्मियों की छुट्टियां तो लगभग दफ्तर के इर्द गिर्द बीतीं.
बाबा जी ने एक ओर जहां प्रबंधकीय काम सिखाया तो वहीं खबरों की दुनिया से भी परिचय कराते रहे. उन्होंने कई बार मुझसे खबरें लिखवाईं. मुझे याद है साल 2009 में केंद्रीय विद्यालय बस्ती का वार्षिक समारोह था. वहां बाबा जी को उस वक्त के प्रिंसिपल ने आमंत्रित किया था. बाबा जी खुद नहीं गये, उन्होंने मुझे भेजा और कहा जाओ और लौटकर खबर लिखना. फिर वो खबर अखबार में छपी और वही अखबार मैं फिर स्कूल में देने भी गया था.
बाबा जी ने सिर्फ इतना ही नहीं सिखाया बल्कि हर रोज गर्मी की छुट्टियों में दफ्तर आकर मेरा काम होता था कि मैं भारतीय बस्ती को अलग-अलग जगहों के लिये डाक के जरिये भेजता था. एक दिन में कम से कम 50-60 अखबार. अगर वो अयोध्या (फैजाबाद) भी गये हैं, तब भी फोन कर के पूछते थे डाक गया कि नहीं. जब मेरी ओर से जवाब हां में होता तो कहते जा... अब कुछ खाइ पी ले.
लिखते-लिखते इन्हीं छुट्टियों से एक और बात याद आ गयी. एक बार पापा जी (श्री प्रदीप चंद्र पांडेय, संपादक) कहीं गये हुये थे. बाबा जी और मैं दफ्तर पहुंचे. बाबा जी ने कहा कि मैं तुमको संपादकीय लिखकर देता हूं, तुम वही टाइप करना. बाबा जी ने पूरी संपादकीय करीब 2 पन्ने पर लिखी और फिर उसे बोलकर टाइप कराया.उनको उस दिन इस बात की बड़ी खुशी हुई थी कि मेरी टाइपिंग की रफ्तार तेज है.
सबसे बड़ी बात. बाबा जी तकनीकी सीखने और समझने में भरोसा रखते थे. इस वर्ष 18 फरवरी 2025 को जब बाबा जी ने हम सबका साथ छोड़ अनंत यात्रा की ओर प्रस्थान किया, उसके बाद जो भी घर आता और यह जानता की वह खुद से टाइप करके लेख लिखते और अखबार बनाते, तो वह चौंक जाता. लोगों को लगता है कि एक उम्र के बाद आदमी सीखना, जानना बंद कर देता है लेकिन बाबा जी ऐसे नहीं थे.
आरडी 2030 एलजी, नोकिया 1100 से लेकर आज के आधुनिक फोन तक. बाबा जी ने अपने पूरे जीवन में न सिर्फ सिखााया, बल्कि खुद भी सीखा. डीएवीपी, आरएनआई की वेबसाइट्स जिसे तमाम लोग आज भी ढंग से समझ नहीं पाते और दूसरों के सहारे बैठे रहते हैं, बाबा जी खुद वेबसाइट्स चेक करते. अगर कोई एडवाइजरी आती तो उसे अपने व्हाट्सएप पर लेते और फिर उसको पढ़कर समझते कि अब अखबारों के लिये क्या नया होने को है.
पहले तो आरएनआई को वार्षिक विवरणी कागज पर भेजनी होती थी, फिर जब आधुनिक युग आया तो बाबा जी ने उससे भी कदमताल किया और खुद बैठकर फॉर्म भरवाते थे. अगर कहीं कुछ गलत होता तो उसे ठीक कराते. टेक्निकल ग्लिच की वजह से अगर फॉर्म सबमिट नहीं हो पाता तो वह फिर से पूरी प्रक्रिया दोहराते और काम खत्म कर के ही घर लौटते थे.
जब भारतीय बस्ती ने डिजिटल दुनिया से कदमताल शुरू करना शुरू किया तो वह रोज इस बात पर गौर करते थे ईपेपर अपलोड हुआ या नहीं.
ऐसा नहीं है कि बाबा जी ने खुद अपने अनुभवों से जो सीखा, वह सिर्फ मुझे सिखाया, बल्कि उन्होंने बस्ती मंडल- बस्ती, सिद्धार्थनगर और संतकबीरनगर में तमाम लोगों को सिखाया और बताया कि अखबार के प्रकाशन, मुद्रण और उसकी प्रबंधकीय व्यवस्था कैसे चलती है. आप दफ्तर चले जाइये और वहां बाबा जी हों, तो कोई न कोई अपनी सांस्थानिक समस्या उनसे साझा करता और वह उसका समाधान भी करते.
पत्रकारिता में मेरी पहली नौकरी अमर उजाला से लेकर आज एबीपी न्यूज़ तक. बाबा जी हमेशा मेरी प्रगति से खुश रहे. जब साल 2024 में डिप्टी न्यूज़ एडिटर के पद पर प्रोन्नत हुआ और दफ्तर से ही फोन कर के बाबा जी को बताया तो उन्होंने सबसे पहले यही कहा- जा... हनुमान जी के प्रसाद चढ़ा दे.मैं लिखता चला जाऊंगा, शायद मेरी यादें और बाबाजी के अनुभवों से मेरा सीखा, खत्म नहीं होगा. जब भी मैं नौकरी बदलता तो वह मुझसे नये दफ्तर के पहले दिन यही पूछते, यहां क्या नया है जो तुम सीखोगे.
मेरे लिये बाबा जी पत्रकारिता का पहला विद्यालय थे. आईआईएमसी के क्लास रूम में भी जब कोई प्रिटिंग, संपादन और ऐसे विषय पढ़ता जिन पर मैं पहले से ही कुछ न कुछ जानता था, तो मैं शाम को हॉस्टल आकर बाबा जी को बताता था, कि जो आप सिखाये पढ़ाये हैं, वहीं सब यहां भी है. बस ये पेपर लेंगे और नंबर देंगे. आपकी परीक्षा का तरीका अलग था.
आखिरी में उस हॉल की कहानी. अब वो हॉल नहीं है. अब हॉल की जगह कमरे हैं. उन कमरों में से एक जिसमें बाबा जी बैठते थे, अब वह लगभग खाली रहता है. मेज, शीशा, कुर्सी लगभग सब हैं, बस कोई नहीं है तो वो बाबा जी.
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