नज़रिया: अफगानिस्तान के हालात पर अमेरिका, पाकिस्तान और चीन की भूमिका संदिग्ध

नज़रिया: अफगानिस्तान के हालात पर अमेरिका, पाकिस्तान और चीन की भूमिका संदिग्ध
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योगेश मिश्रा
अफगानिस्तान पर तालिबानियों के क़ब्ज़े ने न केवल समूची दुनिया को सकते में डाल दिया है. बल्कि अमेरिका, पाकिस्तान, चीन की बदली परिस्थितियों में भूमिका पर भी कम सवाल नहीं खड़े किये हैं. दुनिया भर में आतंकवाद के ख़िलाफ़ चल रही जंग को भी इस फ़ैसले से पलीता लगा है. भारत के लिए एक बेहद डराने वाला संदेश इसमें निहित है . क्योंकि 1996 से 2001  के बीच जब अफगानिस्तान में तालिबान का शासन था, तब भारत ने अफगानिस्तान से संबंध तोड़ लिये थे.

क्योंकि इस बात के पुख़्ता सुबूत हैं कि शुरुआत में तालिबान से जुड़ने वाले लोग पाकिस्तान के मदरसे से निकले थे. यही नहीं , तालिबान सरकार को मान्यता देने वाले देशों में पाकिस्तान भी आगे था. सबसे अंत में पाकिस्तान ने अपने इस फ़ैसले से खुद को अलग किया. पाकिस्तान के अलावा सऊदी अरब व संयुक्त अरब अमीरात ने भी मान्यता तालिबान सरकार को दी थी. ओसामा बिन लादेन व तब के तालिबान प्रमुख मुल्ला मोहम्मद उमर व उनके कुछ साथियों ने पाकिस्तान के क्वेटा शहर में पनाह ली थी. 2015 में मुल्ला उमर की मौत स्वास्थ्य दिक़्क़तों के चलते पाकिस्तान के एक अस्पताल में हुई. मुल्ला मंसूर नये नेता बने. मंसूर की मौत 2016  में ड्रोन हमले में हुई. तालिबानी संगठन मौलवी मुल्ला हिबतुल्लाह अखुंदाजा के हाथ आ गया. अभी यही तालिबान प्रमुख हैं .तालिबान के लड़ाकों की संख्या 85 हज़ार के आसपास है.

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पाकिस्तान में तीस लाख से अधिक अफ़ग़ान शरणार्थी हैं. दोनों देशों के बीच ढाई हज़ार किलोमीटर की लंबी सीमा है. कहा जाता है अमेरिकी सेना के अफगानिस्तान से वापसी के फ़ार्मूले में भी पाकिस्तान का हाथ है. इतना ही नहीं, सऊदी अरब के भी तालिबान से बेहतर रिश्ते है. सऊदी अरब व पाकिस्तान के अच्छे रिश्ते जगज़ाहिर हैं. इसलिए इस  आशंका से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि पाकिस्तान कहीं तालिबान का इस्तेमाल कश्मीर में न करे.  हालांकि तालिबान ने कहा है कि वह अफगानिस्तान की ज़मीन का इस्तेमाल किसी और देश के ख़िलाफ़ नहीं होने देगा . लेकिन इस पर भरोसा करना बड़ी ग़लती होगी. क्योंकि कश्मीर में आतंकी वारदातों को अंजाम देने के लिए गठित संगठन जैश-ए-मुहम्मद को तैयार करने में तालिबान ने मदद की थी. इसके सरगना मसूद अजहर ने लगातार तालिबान के साथ काम किया है. यही नहीं, भारत के खिलाफ काम करने वाले कई आतंकी संगठन अभी भी तालिबान के साथ मिलकर अफगानिस्तान में लड़ाई लड़ रहे हैं. इनमें लश्कर, इस्लामिक स्टेट और अलकायदा शामिल हैं. तालिबान का राजनीतिक कार्यालय कतर के दोहा मैं है. कतर से अमेरिका की निकटता किसी से छिपी नहीं है.

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11 सितंबर,2001 के हमले के पंद्रहवें दिन अमेरिकी गुप्तचर संस्था सीआईए ने तालिबान विरोधी ‘वार लार्डस’ से मिलकर मुल्ला उमर की हुकूमत गिराने की शुरूआत की थी. 2001 में ही अमेरिकी सेना ने तालिबान को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखाया था. तालिबान ने अमेरिका के साथ 2018 में बातचीत शुरू कर दी थी. फ़रवरी,2020 में दोहा में दोनों पक्षों के बीच समझौता हुआ जिसमें तालिबान ने अमेरिकी सैनिकों पर हमले बंद करने और अमेरिका ने अपने सैनिक अफगानिस्तान से हटाने पर रज़ामंदी जताई . यानी दो दशक  बाद उसी तालिबान से अमेरिका को समझौता करना पड़ा.

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हार्वर्ड और ब्राउन यूनिवर्सिटी के मुताबिक़ ने 2003 से 2011 के बीच अमेरिका ने अफगानिस्तान के साथ साथ ईराक के मोर्चे पर भी युद्ध किया . बहुत से खर्चे ऐसे हैं जो दोनों लड़ाईयों पर लागू होते हैं. अफगानिस्तान युद्ध को फाइनेंस करने में अमेरिका को 2 ट्रिलियन डालर खर्च करने पड़े हैं. इस धन पर अमेरिका को 6.5 ट्रिलियन डालर का ब्याज वर्ष 2050 तक चुकाना पड़ेगा. इसके अलावा पाकिस्तान ने तालिबान, अलकायदा और आईएसआईएस के खिलाफ लड़ाई में पकिस्तान को जो मदद दी है उसका खर्चा अलग है. कुल मिलाकर तालिबान के खिलाफ अमेरिका ने हर साल 100 अरब डालर से ज्यादा खर्च किये हैं.

अप्रैल 2021 तक अफगानिस्तान में 2448 अमेरिकी सैनिक, 3846 अमेरिकी कांट्रेक्टर, अन्य नाटो देशों के 1144 सैनिक, 66 हजार अफगान सैनिक, 47,245 अफगान नागरिक, 51,191 तालिबानी और अन्य लड़ाके, 444 सहायता कर्मी तथा 72 पत्रकार मारे गये.2002 में अमेरिका के 10 हजार सैनिक अफगानिस्तान में थे. 2011 में इनकी सर्वाधिक संख्या एक लाख 10 हजार थी.

जुलाई 2021 की रिपोर्ट में बताया गया है कि अफगानिस्तान की सुरक्षा के लिए अमेरिका ने 88 अरब डॉलर से ज्यादा खर्च किये हैं.2022 के लिए अमेरिका ने 3.3 अरब डॉलर का आबंटन किया है. इसमें से 1 अरब डॉलर अफगान वायुसेना और स्पेशलफोर्स पर, 1 अरब डॉलर पेट्रोल डीजल, गोला बारूद और स्पेयर पार्ट्स पर तथा 70 करोड़ डॉलर अफगान सैनिकों के वेतन पर खर्च होंगे. अमेरिका और अन्य नाटो देशों का कमिटमेंट है कि वे अफगान सेना और सुरक्षाबलों को 2024 तक हर साल 4 अरब डॉलर देते रहेंगे. कुल मिला कर अफगान सरकार के बजट का 80 फीसदी पैसा अमेरिका और नाटो के अन्य सदस्य देते हैं.

शायद यही कारण है कि अमेरिकी समझौता किसी के गले नहीं उतर रहा है. अमेरिकी फ़ैसले से न केवल पाकिस्तान व अमेरिका के रिश्ते मज़बूत हुए हैं, बल्कि दुनियाभर में आतंकवादी ताक़तों को बल मिला है. तभी तो अफगानिस्तान के निर्वासित राष्ट्रपति अशरफ़ गनी ने तालिबान की मज़बूत पकड़ के लिए अमेरिका को ज़िम्मेदार ठहराया दिया.

पश्तो ज़ुबान में छात्र को तालिबान कहा जाता है. नब्बे के दशक के शुरुआत में जब सोवियत संघ अपनी सेनाएँ वापस बुला रहा था , तब तालिबान का उदय हुआ. यह पहले धार्मिक मदरसों में पला बढ़ा. इसके लिए सऊदी अरब ने धन मुहैया कराया. इसमें सुन्नियों की कट्टर मान्यताओं का प्रचार किया जाता था. इन्होंने पश्चिम इलाक़े में शरिया के कट्टरपंथ को लागू करने का दावा ठोंका. सितंबर 1995 में हेरात प्रांत पर क़ब्ज़ा कर लिया. एक साल बाद काबुल पर क़ब्ज़ा कर दिखाया.

               सोवियत संघ ने अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति बुरहानुद्दीन रब्बानी को सत्ता से हटाया . रब्बानी अफ़ग़ान मुजाहिद्दीन के संस्थापक थे. सोवियत संघ के सैनिकों के जाने के बाद अफगानिस्तान के लोग मुजाहिद्दीन की ज़्यादतियों और संघर्ष से ऊब गये थे. लिहाज़ा उन्होंने तालिबान का खुलकर स्वागत किया. दो तालिबानी नेता-  मुल्ला अब्दुल गनी बरादर, और हिबतुल्लाह अखुंदाजा प्रमुख हैं. मुल्ला बरादर 1994 में तालिबान के गठन के समय के चार लोगों में से एक हैं. बरादर का रिश्ता दुर्रानी कबीले से है. अपदस्थ राष्ट्रपति हामिद करजई भी इसी कबीले के हैं. हिबतुल्लाह नूरजाई कबीले से ताल्लुक़ रखते हैं.

एशिया के इस हिस्से में अफगानिस्तान की महत्वपूर्ण भौगोलिक पोजीशन है , जिसका पूरा फायदा चीन उठाना चाहेगा. उधर पाकिस्तान अपना एजेंडा चलाने के लिए तालिबान को हमेशा से सपोर्ट देता रहा है. ऐसे में भारत को अब चीन, पाकिस्तान और अफगानिस्तान, इन तीनों के गठजोड़ से मुकाबला करना पड़ेगा. उधर रूस भी तालिबान शासन से मिल कर रहेगा. ऐसे में भारत की सिर्फ अमेरिका से उम्मीद है . लेकिन अब चूंकि अमेरिका ने अफगानिस्तान से पल्ला झाड़ लिया है , सो वह भारत की कितनी मदद करेगा, यह आसानी से समझा जा सकता है. भारत ने अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में 22 हजार करोड़ रुपए निवेश किए हैं. अफगानिस्तान के संसद भवन और शहतूत डैम समेत कुल 500 छोटी-बड़ी परियोजनाओं में भारत का निवेश है. तालिबान ने भले ही भारत के निवेश और संसाधन निर्माण में उसकी सहायता को स्वीकारा है . लेकिन साथ ही साथ तालिबान ने चीन को न्योता दिया है कि वह अफगानिस्तान की सूरत सँवारे. इसका मतलब भारत के निवेश पर तलवार के लटकने जैसा होगा. भारत ईरान के चाबहार बंदरगाह से अफगानिस्तान के देलारम तक की सड़क परियोजना पर भी काम कर रहा है. अगर अफगानिस्तान के रास्ते हमारा ईरान से संपर्क कट जाता है, तो चाबहार पोर्ट में निवेश हमारे किसी काम का नहीं रहेगा. मध्य यूरोप के साथ कारोबार की भारत सरकार की योजना पर भी पानी फिर सकता है.

तालिबानी सत्ता के बाद अफगानिस्तान के लोगों के सामने एक नई दुनिया, नई चुनौतियाँ हैं. तालिबान के पहले शासन को याद करते हुए तमाम लोग अफगानिस्तान छोड़ कर भागना चाहते हैं. पर उन्हें न तो हवाई उड़ानें मिल रहीं हैं. न ही कोई और रास्ता. पर तालिबान की पूरी कोशिश अपने पुराने कट्टरपंथी चेहरे को बदल कर पेश करने की है. तभी तो तालिबान प्रवक्ता सुहास शाहीन ने कहा संगठन अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ शांतिपूर्ण संबंध चाहता है. किसी भी मुद्दे पर बातचीत को तैयार है. काबुल पर क़ब्ज़ा करने के बाद एक बार फिर तालीबान ने अपने लड़ाकों को आदेश दिया है कि अफ़ग़ान नागरिकों को परेशान न करें.  कोई भी बिना अनुमति किसी के घर के भीतर प्रवेश न करे. मुजाहिद्दीनों की ज़िम्मेदारी है कि वो लोगों के जीवन , संपत्ति और उनके सम्मान को हानि न पहुँचाए . जिस तरह बिना खून ख़राबे के तालिबान समूचे अफगानिस्तान पर क़ाबिज़ होने में कामयाब हुए, जिस तरह राज्यों के गवर्नर व राष्ट्रपति की ओर से बड़ा प्रतिरोध दर्ज नहीं कराया गया , उससे तालिबानियों के सत्ता पर काबिज होने की कहानी में भी बहुत झोल नज़र आ रहा है. यह सत्ता हस्तांतरण जैसा पारदर्शी नज़र आ रहा है उतना वास्तव में है नहीं .

( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं . यह उनके भी निजी विचार हैं.)

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